एक दूसरे के पर्याय थे राजकपूर और शैलेन्द्र

अंकित कुमार मिश्र। हिंदी सिनेमाजगत का एक ऐसा गीतकार जिसके अंदर साधारण भाषा में असाधारण बात कहने की क्षमता थी। शब्द व भाषा का एक ऐसा धनी कवि जिसे अन्य कवियों व गीतकारों की तरह तुकबंदी के जोड़ तोड़ का संघर्ष नहीं करना पड़ा। जिसने हर गीत को इतना सहज व सरल अंदाज में लिखा कि हर सुनने वाले ने उसमे खुद को पाया। जिसके गीत हमसे संवाद करते, हमारे सुख दुख व संघर्षों को बयां करते सुनाई पड़ते हैं। उसके सुमधुर गीतों ने हर तबके के संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज किया है। जिसके गीतों का जादू भारत ही नहीं अपितु अफग़ानिस्तान व रूस तक लोगों के सिर चढक़र बोला है। एक मात्र ऐसा गीतकार जिसे बूढ़े बच्चे जवान हर पीढ़ी ने समान चाव से सुना है। शायद ही ऐसा कोई संगीत प्रेमी हो, जिसने शैलेन्द्र के गीतों को सुना या गुनगुनाया न हो। शैलेंद्र एक ऐसे गीतकार थे जिनकी पंक्तियों में समाज व व्यवस्था का कटु अनुभव तो झलका ही साथ ही उन्हे वामधारा से प्रेरित व तरक्की पसंद मिजाज का भी साबित किया। उनके गीतों ने शोषण व अत्याचार का जम कर प्रतिकार किया। उनकी रचनाओं ने जहां प्रेम को जुबान दी वहीं आम जनमानस की पीड़ाओं को भी बखूबी उभारा। उनके गीत निष्ठापूर्वक गऱीबी, शोषण, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान करते प्रतीत होते हैं। वे हर दलित, शोषित, वंचित, पिछडि़त व उपेक्षित की आवाज मालूम पड़ते हैं। तमाम आंदोलनों व हड़तालों का घोष वाक्य बन चुका नारा “जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है” के जरिए शैलेंद्र हमेशा संघर्षों का हिस्सा रहेगें। इनके गीतों में भक्तिकालीन दर्शन, रीतिकालीन सौंदर्य, छायावाद की कल्पना, प्रगतिवाद का स्वप्न और प्रयोगवाद की कलाओं का अद्भुत तालमेल है। मानवीकरण की कल्पना का जो प्रयोग शैलेंद्र ने अपनी पंक्तियों में की वह कहीं और नहीं मिलता। इन्हीं विविध आयामों के दमखम शैलेंद्र के नाम आठ सौ से अधिक बेमिसाल यादगार गीत दर्ज हैं। बेहतरीन गीतों के अलावा शैलेंद्र ने भारतीय हिंदी सिनेमा को एक बेहद कालजई फिल्म ” तीसरी कसम” से भी समृद्ध किया है। हालांकि यह उनकी पहली और आखिरी फिल्म साबित हुई। जाने माने साहित्यकार फणीश्वनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ” मारे गए गुलफाम” पर आधारित इस फिल्म की पटकथा स्वयं फणीश्वरनाथ ने बड़ी बारीकी से लिखा था। फिल्म में उस वक्त के कई स्थापित नामचीन सितारे मौजूद थे। हिरामन के किरदार में राजकपूर जो उस वक्त एशिया के सबसे बड़े शोमैन के नाम से मशहूर हो चुके थे। फिल्म समीक्षक प्रहलाद अग्रवाल के अनुसार “राजकपूर जितनी ताकत के साथ ‘तीसरी कसम’ में मौजूद हैं उतना फिल्म ‘जागते रहो’ में भी नहीं।” राजकपूर के आलावा वहीदा रहमान भी एक बेहतरीन अदाकारा के तौर पर नामजद हो चुकी थी। उन्होंने फिल्म में हीराबाई का बखूबी किरदार निभाया। संगीतकार शंकर जयकिशन की लोकप्रियता भी उन दिनों बुलंदियों पर थी। फिल्म के सारे गीत स्वयं शैलेंद्र ने लिखे थे। गीतों की सफलता का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि फिल्म प्रदर्शन से पूर्व ही सारे गीत काफी लोकप्रिय हो चुके थे। हालांकि छह महीने के भीतर तीन लाख की लागत में बनने वाले इस फिल्म के निर्माण में आखिरकार पांच साल और बाईस लाख की लागत लग गई। अफ़सोस 1966 में फिल्म जब रिलीज हुई इसे खरीदने वाला कोई नहीं था। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म पूरी तरह पिट गई। शैलेंद्र पर आर्थिक तंगी हावी होती चली गई और वे नशे के आदी होते चले गए। इसने उनके स्वास्थ्य पर काफी बुरा असर डाला। वह इस सदमे से उबर न सके और कुछ ही महीनों बाद 14 दिसबर 1966 में तैंतालिश वर्ष की अल्पआयु में चल बसे। हालांकि शैलेंद्र की बेटी अमला बीबीसी से बातचीत में आर्थिक तंगी को उनकी मौत का कारण मानने से अस्वीकार करते हुए कुछ अलग ही कहती “उन्हें धोखा देने वाले लोगों से चोट पहुंची थी, बाबा भावुक इंसान थे। इस फि़ल्म को बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला। इसमें हमारे नज़दीकी रिश्तेदार और उनके दोस्त तक शामिल थे। जान पहचान के दायरे में कोई बचा ही नहीं था जिसने बाबा को लूटा नहीं। नाम गिनवाना शुरू करूंगी तो सबके नाम लेने पड़ जाएंगे।” जो कुछ भी हो प्रतिभा के इस ज्योति पुत्र के साथ दुनिया ने न्याय नहीं किया। दुनिया यूं भी किसी के साथ न्याय नहीं करती। ये प्रतिभाशाली गीतकार भी उससे खुद को बचा नहीं पाया। बाद में उनके देहावसान के बाद इस फिल्म को राष्ट्रपति द्वारा स्वर्णपदक से नवाजा गया तथा बंगाल फि़ल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने सर्वश्रेष्ठ फि़ल्म के अवार्ड से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त यह फिल्म मास्को फि़ल्म फेस्टिवल में भी पुरस्कृत की गई थी। ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसे सैलुलाइड पर लिखी कविता बताया। शैलेंद्र अपने जिन गीतों के लिए तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के तौर पर फिल्मफेयर पुरस्कार से पुरस्कृत हुए वे हैं ” ये मेरा दीवानापन है” (फिल्म यहूदी), “सब कुछ सिखा हमने न सीखी होशियारी” (फिल्म अनाड़ी) “मै गाऊं, तुम सो जाओ” (फिल्म ब्रह्मचारी)। इसके अलावा फिल्म मधुमति के जिस गीत “आ जा रै परदेशी” के लिए लता जी को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला वह भी शैलेंद्र ने ही लिखा था। लेकिन इस सब के बाबजूद शैलेंद्र को वह स्थान नहीं मिला जिसके वह असली हकदार थे। इसे एक इत्तेफाक कहे या संयोग कि आज 14 दिसंबर को एक तरफ जहां भारतीय सिनेमा के शोमैन के नाम से मशहूर निर्माता निर्देशक राजकपूर की जन्मतिथि वहीं उनके अजीज दोस्त कवि व गीतकार शैलेंद्र की पुण्यतिथि। दोनों को एक साथ याद करने के लिए सैकड़ों बेहतरीन गीतों में से किसी एक को चुन पाना वाकई बहुत कठिन है। इसके बाबजूद मै आवारा फिल्म के “आवारा हूं” गीत चूनुंगा। इस गीत को लेकर भी दिलचस्प वाकया है। स्वयं शैलेंद्र लिखते हैं शुरू में जब शैलेंद्र ने फिल्म के नाम के तर्ज पर ही इस गीत को लिख लिया था मगर राजकपूर ने इसे फिल्म में लेने से मना कर दिया। फिल्म निर्माण के बाद उन्होंने इसे फिर सुनाने को कहा तो ख्वाजा अहमद अबास ने कहा इस गीत को तो फिल्म का मुख्य गीत होना चाहिए और फिर बाद में इसे फिल्म में शामिल किया गया। आगे चलकर यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ। इस गीत की कामयाबी व लोकप्रियता का दिलचस्प कहानी बीबीसी से बातचीत के दौरान अमला बताती हैं. “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की एक किताब है ‘द कैंसर वार्ड’. इस पुस्तक में कैंसर वार्ड का एक दृश्य आता है, जिसमें एक नर्स एक कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ यह गाना गाकर कम करने की कोशिश करती है। आज वाकई इस गीत को सुनकर सैकड़ों गमगीन लोगों की तकलीफें कम होती है।