मोक्ष के लिए आ रहे हैं पूर्वज

पितृपक्ष में पूर्वजों को तर्पण कर उनका ऋृण उतारा जाता है। मान्यता है कि इस अवधि में पूर्वज पृथ्वी पर आते है और उनको पिंडदान करने से ऋृण से मुक्ति होती है।ब्रह्म पुराण के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितृों को मुक्त कर देते हैं और वे अपनी संतानों तथा वंशजों से पिण्ड दान लेने के लिए पृथ्वी पर आते हैं। सूर्य के कन्या राशि में आने के कारण ही आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का नाम कनागत पड़ गया। क्योंकि सूर्य के कन्या राशि में आने पर पितृ पृथ्वी पर आकर अमावस्या पर घर के द्वार पर ठहरते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से प्रारम्भ करके आश्विनी कृष्ण अमावस्या तक 16 दिन पितृों का तर्पण और विशेष तिथि को श्राद्घ अवश्य करना चाहिए, इस प्रकार करने से यथोचित रूप से पितृ व्रत पूर्ण होता है। उनके मुहुर्त ज्योतिष के अनुसार अपरान्ह काल पितृकार्यों के लिए एवं पूर्वान्ह काल देव कायोंर् के लिए प्रशस्त माना गया है, एकोदिष्ट श्राद्घ में मध्यान्ह एवं पार्वण श्राद्घ में अपरान्ह को ग्रहण किया जाता है। यही कारण से श्राद्घ पक्ष में अपरान्ह व्यापिनी तिथि को ग्राह्म किया जाता है। ज्योतिषाचार्य पंडित संजय पांडे के अनुसार कि शास्त्रों में तीन प्रकार के ऋृण बताए गए हैं, देव ऋृण, ऋृषि ऋृण और पितृ ऋृण। इसमें से पितृ ऋृण को श्राद्घ करके उतारना आवश्यक है।
इस बार पितृ पक्ष महालया 7 सितम्बर से आरम्भ हो रहा है। परन्तु 7 सितम्बर को मध्यान्ह में प्रतिपदा न मिलने से प्रतिपदा का श्राद्घ 6 सितम्बर को किया जायेगा। इसी प्रकार भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा 5 सिम्बर को दोपहर 12:42 बजे पर लगेगी, जोकि 6 सितम्बर को मध्यान्ह 12:33 बजे तक रहेगी। इसके बाद प्रतिपदा लग जायेगी। अपरान्ह में पूर्णिमा न मिलने से पूर्णिमा एवं षौष्ठपदी का श्राद्घ 5 सितम्बर को अपरान्ह काल में किया जायेगा। इस दिन चान्द्र-पूर्णिमा व्रत भी है। इस बार पंचमी तिथि क्षय है एवं अमावस्या दो दिन 19 एवं 20 सितम्बर को है। 19 सितम्बर को सर्वपितृ अमावस्या के श्राद्घ के साथ पितृ विजर्सन होगा एवं पितृ पक्ष समाप्त हो जायेगा। 20 सितम्बर को देव कार्य अमावस्या है। आश्विनी कृष्ण पक्ष (पूर्णिमांत) समाप्त हो जायेगा। पितृों की प्रतिमा की प्रतिष्ठा मघा, रोहिणी, मृगशिरा एवं श्रवण नक्षत्र में, रविवार, सोमवार एवं गुरूवार में तथा वृषभ, सिंह एवं कुंभ लग्न में प्रशस्त माना गया है।
शास्त्रों में 12 प्रकार के श्राद्घ का वर्णन है- 1़ नित्य श्राद्घ 2़ नैमित्तिक श्राद्घ 3़ काम्य श्राद्घ 4़ वृद्घि-श्राद्घ 5़ सपिण्डन श्राद्घ 6़ पार्वण श्राद्घ 7. गोष्ठ श्राद्घ 8़ शुद्घि श्राद्घ 9़ कर्मांग श्राद्घ 10़ दैविक श्राद्घ 11़ औपचारिक श्राद्घ 12़ सांवत्सरिक श्राद्घ। सभी श्राद्घों में सांवत्सरिक श्राद्घ सबसे श्रेष्ठ है। इसे मृत व्यक्ति की तिथि पर करना चाहिए। श्राद्घ में सात महत्वपूर्ण चीजें हैं- दूध, गंगाजल, मधु, तसर का कपड़ा, दौहित्र, कुतप (दिन का आंठवा मुहुर्त) और तिल।
श्राद्घ में लोहे के पात्र का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए, सोने, चांदी, कांस्य और तांबे के पात्र पूर्ण रूप से उत्तम है। केले के पत्ते में श्राद्घ, भोजन सर्वथा निषेद्घ है। मुख्य रूप से श्राद्घ में चांदी को विशेष महत्व दिया जाता है।
श्राद्घपक्ष में श्राद्घ वाले दिन प्रात:काल घर को स्वच्छ कर पुरूषों को सफेद वस्त्र एवं ्त्रिरयों को पीले अथवा लाल वस्त्र धारण करना चाहिए। श्राद्घ का उपयुक्त समय कुतुपकाल मध्यान्ह होता है। भोज्य सामग्री बनने के पश्चात् सर्वप्रथम हाथ में कुश, काले तिल और जल लेकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके संकल्प लेना चाहिए, जिसमें अपने पितृों को श्राद्घ ग्राह्म करने के लिए इनका आवाहन करने और श्राद्घ से संतुष्ट होकर कल्याण की कामना करनी चाहिए। तत्पश्चात् जल, तिल और कुश को किसी पात्र में छोड़ दें एवं श्राद्घ के निमित्त तैयार भोजन साम्रगी में से पंचवली निकालें। देवता के लिए किसी कण्डे अथवा कोयले को प्रज्ज्वलित कर उसमें घी डालकर थोड़ी-थोड़ी भोज्य सामग्री अर्पित करनी चाहिए। शेष बलि जिनके निमित्त है उन्हें अर्पित कर देनी चाहिए। श्राद्घ के लिए पंचबली विधान के पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। तदोपरान्त ब्राह्मणों को अपना पितृ मानते हुये ताम्बूल और दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए और उनकी चार परिक्रमायें करनी चाहिए, साथ ही श्रद्घा के अनुसार उन्हें दान करना चाहिए।