पंचायत चुनाव: अर्धसैनिक बलों की मांग, पुलिस, पीएसी की साख पर सवाल

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योगेश श्रीवास्तव
लखनऊ। प्रदेश में आगामी त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव दो चरणों में होने के बावजूद राज्य निर्वाचन आयोग ने पेशबन्दी करते हुए भारी भरकम संख्या में अद्र्धसैनिक बलों की मांग कर दी है। पंचायत चुनाव के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि पंचायत चुनाव के लिए इतनी भारी संख्या में अद्र्धसैनिक बलों की मांग की गयी। ऐसे में उत्तर प्रदेश की पुलिस और पीएसी की साख पर सवालिया निशान लग गये हैं। जानकार इसे पेशबन्दी के तौर पर देख रहे हैं। राज्य निर्वाचन आयोग की मांग पर यदि उत्तर प्रदेश को 423 कंपनी केन्द्रीय अद्र्धसैनिक बल नहीं उपलब्ध होता है तो पंचायत चुनाव के दौरान हिंसा होने पर इसका ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोडऩे में आसानी होगी। आगामी नवंबर में बिहार में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों को देखते हुए यह तय माना जा रहा है केन्द्र इतनी अधिक संख्या में अद्र्धसैनिक बल नहीं उपलब्ध करा पायेगा। उत्तर प्रदेश में अभी तक स्थानीय पुलिस और पीएसी के दम पर ही पंचायत चुनाव होते रहे हैं। सिर्फ वर्ष 2010 में मायावती के मुख्यमंत्रित्वकाल में हाईकोर्ट के आदेश पर बाराबंकी में मात्र एक कंपनी केन्द्रीय अद्र्धसैनिक बल की तैनाती की गयी थी। इस बारे में एक पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त का कहना है कि पंचायत चुनाव कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है और वह भी अपने संसाधनों से क्योंकि इस चुनाव में आने वाला खर्च भी राज्य सरकार की वहन करती है। विपक्षी दलों का भी मानना है कि इस चुनाव में भारी पैमाने पर गड़बड़ी होने की संभावना है ऐसे में केन्द्रीय बलों की तैनाती होना आवश्यक है। 2005 में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल में पांच कंपनी सीपीएमएफ की तैनाती की गई थी जिसमें एसएसबी की देख-रेख में चुनाव हुए थे। उप्र में अभी तक विधान सभा और लोकसभा के चुनाव में ही केन्द्रीय बलों की तैनाती होती रही है। 2012 के विधानसभा चुनाव में औसतन प्रत्येक चरण में 350 से 375 कंपनी केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती की गई थी। इसी प्रकार से 2014 के लोकसभा चुनाव में भी औसतन प्रत्येक चरण में 80 से 90 कंपनी केन्द्रीय बल की तैनाती की गई थी। केन्द्रीय निर्वाचन आयोग के अनुसार इतनी भारी सं या में केन्द्रीय बलों की तैनाती में औसतन सौ से सवा सौ करोड़ रुपये का खर्च आता है। जो कि केन्द्रीय सरकार उठाती है। निर्वाचन आयोग का गठन की इसी मकसद से किया गया था कि ताकि राज्य सरकारें पंचायतों को सबल बनाने के लिए अपने स्तर से चुनाव करा कर जन प्रतिनिधियों को मौका दें। सवाल यह उठता है कि अगर केन्द्रीय सुरक्षा बल की निगरानी में प्रदेश में चुनाव होते है तो अपरोक्ष रुप से प्रदेश की जनता पर एक वित्तीय भार पड़ेगा जो कि आगे चलकर विभिन्न करों के माध्यम से जनता से ही वसूला जायेगा। जाहिर है कि सौ से सवा सौ करोड़ रुपये राज्य सरकार ही वहन करेगी। यूपी में मामले में इतनी भारी संख्या में केन्द्रीय बल की मांग अपने आप में सवाल खड़ा कर रही है कि आखिर उप्र की पुलिस और पीएसी से इतना काम भी राज्य सरकार नहीं कर पायेगी जो उसे बाहर की फोर्स पर भरोसा करना पड़ रहा है। अब अगर 2005 के पंचायत चुनाव में हुयी हिंसक घटनाओं पर जोर दे तो तीन दर्जन से ज्यादा हिंसक घटनाएं हुई थी और 2010 के चुनाव में ढाई दर्जन से ज्यादा घटनाएं हुई थी। दरअसल पंचायत चुनाव में हिंसक घटनाएं बड़े पैमाने पर होती है।