सुरक्षित स्वच्छ पेयजल का सपना अधूरा

अंकित कुमार मिश्र। संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा सतत विकास लक्ष्य के तहत 2030 तक सुरक्षित स्वच्छ पेयजल की सार्वभौमिक व न्यायसंगत उपलब्धता के साथ साथ सभी तक समुचित साफ सफाई के प्रबंधन और खुले मे शौच से मुक्ति पाने के निर्धारित लक्ष्य के बीच भारत के लिए एनएफएचएस 5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5) के आंकड़े संतोषजनक नहीं हैं। बीते साल दिसम्बर में आए एनएफएचएस 5 (2016-20) के रिपोर्ट बताते हैं कि सुधार के बाबजूद बीते पांच सालों में कई राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में हर चौथा व्यक्ति साफ सफाई व गंदगी उन्मूलन के प्रबंधन हेतु जरूरी उपकरणों की अनुपलब्धता से जूझ रहा है। इस दौरान स्वच्छता मामले में सर्वाधिक सुधारों के बाबजूद बिहार नीचे से दूसरे पायदान पर रहा जहां हर दूसरा व्यक्ति समुचित स्वच्छता सुविधाओं के अभाव से जूझ रहा है। इस मामले में हिमाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, नागालैंड, गोवा और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ और मिजोरम, केरल व लक्ष्यद्वीप का प्रदर्शन सराहनीय है। स्वच्छता सुविधा उपलब्धता के मामले में शहरी व ग्रामीण असमानता काफी अधिक है। मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, नागालैंड को छोडक़र बाकी लगभग सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में शहर के मुकाबले गांवों में साफ सफाई का अभाव है। उपरोक्त राज्यों की स्थति शेष अठारह राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों से बिल्कुल भिन्न है जहां गांव की स्वच्छता व्यवस्था शहरों की अपेक्षा बेहतर है। इस मामले में गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों में है शहरी व ग्रामीण अंतर अधिक है। गौरतलब है कि इस रिपोर्ट में खुले में शौच को लेकर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं जिससे सरकारी दावों का तुलनात्मक अध्ययन हो पाए। खुले मे शौच पर एक दूसरे रिपोर्ट की माने तो देश की लगभग 26 प्रतिशत आबादी अभी भी खुले मे शौच करती है। सरकार के खुले मे शौच मुक्ति के दावों से अलग रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर कम्पैशनेट इकोनॉमिक्स (राइस) का एक सर्वे बताता है कि 2019 में बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 44 फीसदी ग्रामीण आबादी बाहर में शौच के लिए मजबूर थी। हालांकि इसके आंकड़े इन चार राज्यों में तेजी से खुले में शौच मुक्ति की ओर अग्रसर होने के भी संकेत देती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इन चार राज्यों में खुले मे शौच का मामला 2014 के 70 प्रतिशत से गिरकर 2018 में 44 प्रतिशत रह गया था। इस मामले में हुए सुधार को यूनाइटेड नेशन ऑफ़ चिल्ड्रेन फंड (यूनिसेफ) के आंकड़े भी इंगित करते हैं। इसके अनुसार वर्ष 2000 से 2017 के दरम्यान खुले में शौच 47 प्रतिशत कमी है। इसके अनुसार 2014 में जहां भारत की लगभग पचास करोड़ यानी देश की लगभग आधी आबादी शौचालय के अभाव में खुले में शौच को मजबूर थी वहीं स्वच्छ भारत मिशन जैसे प्रभावी कदम का परिणाम है कि 2014 के मुकाबले पिछले छह सालों में खुले मे शौच करने वालों की संख्या पचास करोड़ से घटकर पांच करोड़ रह गई है। हालांकि आंकड़ों मे सुधार के दावों के बीच भी बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, महाराष्ट्र व गुजरात के कुछ हिस्सों में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
अब यदि देश में सुरक्षित स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता की बात करें तो ‘वॉटर ऐड’ (पानी की वैश्विक स्थिति पर नजर रखने वाली समूह ) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में भारत की लगभग 16 करोड़ आबादी सुरक्षित पेयजल की अनुपलब्धता से जूझ रही थी। यूनिसेफ के हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत की लगभग आधी आबादी अभी भी सुरक्षित स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता से वंचित है। इसके अनुसार देश के लगभग बीस लाख घरों पेयजल में रासायनिक खासकर फ्लोराइड व आर्सेनिक की अनियमितता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जहां पानी में फ्लोराइड की अधिकता से देश भर के लाखों लोग प्रभावित हैं वहीं अकेले पश्चिम बंगाल में डेढ़ करोड़ लोग आर्सेनिक की कमी से जूझ रहे हैं। यूनिसेफ का एक अन्य रिपोर्ट बताता है कि बाढ़ व सुखार से उत्पन्न स्वच्छ पेयजल के अभाव में उत्पन्न जलजनित तमाम रोगों से लडऩे मे भारत की बहुत बड़ी आबादी का हर साल लगभग 60 करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च होता है। रिपोर्ट का यह भी मानना है कि सूखाग्रस्त इलाकों में स्वच्छ पेयजल प्रबंधन हेतु कई बच्चों को बीच मे ही विद्यालय छोडऩा पड़ता। इसके अलावा कई महिलाओं को घंटो इंतजार करने की वजह हर साल लगभग 27 दिनों के मेहनताने का नुक़सान उठाना पड़ता।
ऐसे मे देश में व्याप्त स्वच्छ पेयजल के इस संकट के बीच बाईस राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के सर्वे पर आधारित एनएफएचएस 5 की रिपोर्ट थोड़ी राहत भरी है। इसके आंकड़े बताते हैं कि बीते पांच सालों में सिक्कम को छोडक़र बाकी सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में स्वच्छ पेयजल स्रोतों तक लोगों की पहुंच बढ़ी है। मणिपुर, मेघालय व नागालैंड जैसे राज्यों मे इस दौरान उल्लेखनीय सुधार हुआ है। अन्य प्रदेशों की तुलना में बिहार की स्थिति सर्वाधिक बेहतर है जहां लगभग सभी (99त्न) लोगों तक स्वच्छ पेयजल की उपलब्ध है। हालांकि सिक्किम में एनएफएचएस 4 के रिपोर्ट की तुलना में इस बार पांच प्रतिशत लोगों तक स्वच्छ पेयजल की पहुंच घटी है। इस रिपोर्ट के अनुसार मणिपुर, मेघालय, असम, त्रिपुरा व लद्दाख को छोड़ कर बाकी सभी सर्वेक्षित सत्तरह राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में 90त्न लोगों तक सार्वजनिक नल, नलकूप, संरक्षित कुआं, संरक्षित वर्षा जल तथा बोतलबंद आदि जैसे बेहतर स्वच्छ पेयजल स्रोतों की उपलब्धता है। हालांकि इन स्रोतों की उपलब्धता गांव व शहरों में एक समान नहीं है। सर्वेक्षित अधिकांश राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों मे शहरों के मुकाबले गांवों में इन स्रोतों की संख्या कम जबकि मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा और महाराष्ट्र में शहरी प्रदेशों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पहुंच अधिक है। इन तमाम विभिन्न आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि बीते कुछ सालों में जल शक्ति अभियान, जल जीवन अभियान तथा नल जल व स्वजल योजनाओं जैसी केंद्र व राज्य सरकारों की कुछ ईमानदार पहलों का सकारात्मक असर स्थिति की बेहतरी के रूप में अवश्य दिखा है मगर अभी भी स्थिति में काफी सुधार की आवश्यकता है। जिस तरह भारत विश्व का सर्वाधिक भूजल खपत करने वाला राष्ट्र है जहां हर साल औसतन 230 क्यूबिक किलोमीटर भूजल उपयोग में लाया जाता। ऐसे में यदि देश के सभी अलग अलग हिस्सों में कृत्रिम रूप से भूमिगत जल के संवर्धन के लिए तत्काल व्यवस्था नहीं की गई तो बढ़ती आबादी के बीच आने वाले दिनों में भारत के लिए राहें लगातार कठिन होती चली जाएगी।

छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू