संस्कृति के नाम पर बौद्धिक सेंसरशिप

vishwanath_sachdevविश्वनाथ सचदेव। संस्कृति की बात हम अकसर करते हैं। अपनी संस्कृति को दूसरों की संस्कृति से बेहतर मानना तो जैसे किसी का भी स्वयंसिद्ध अधिकार है। पर ऐसा करने वालों से जब संस्कृति का अर्थ पूछा जाता है तो जवाब अकसर गोल-मोल होता है। और अकसर यह बात कोई नहीं समझना चाहता कि संस्कृति किसी भी समाज के जीने का ढंग है, जो परंपरा की परतों से निथरता हुआ समय के साथ नये रूपाकार में प्रकट होता है। जीने का यह ढंग अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों से जुड़ा है-अतीत से यह ऊर्जा लेता है, वर्तमान इसे आकार देता है और भविष्य इसे उन प्रेरणाओं से जोड़ता है जो सपने ही नहीं दिखातीं, सपनों को पूरा होने का आश्वासन भी देती हैं। स्पष्ट है, संस्कृति कोई जड़ वस्तु नहीं है, संस्कृति किसी भी समाज का एक जीवंत आख्यान है। एक नदी की तरह बढ़ती है संस्कृति, जिसे न तो रूढिय़ों के किनारों में बांधा जा सकता है, और न ही प्राचीन-पुरातन की कथित पवित्रता से जोड़ा जा सकता है। यह नदी किनारों से बहुत कुछ लेकर और बहुत कुछ किनारों पर छोड़ती हुई आगे बढ़ती है।
ऐसे में जब देश का संस्कृति मंत्री लड़कियों के रात में घर से बाहर निकलने को भारतीय संस्कृति के विरुद्ध घोषित करता है तो यह संदेह होना स्वाभाविक है कि शायद संस्कृति के बारे में सामान्य सोच गलत है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह संदेह गलत है और सच्चाई यह भी है कि या तो हमारे मंत्री महोदय संस्कृति का अर्थ नहीं जानते या फिर संस्कृति के नाम पर एक पोंगापंथी, पुरातन सोच इस देश पर थोपना चाहते हैं। यह दोनों ही बातें खतरनाक हैं: संस्कृति मंत्री को संस्कृति का ज्ञान न होना और एक पिछड़ी मानसिकता वाली सोच को किसी मंत्री द्वारा प्रश्रय देना एक ऐसे खतरे की चेतावनी है, जिसके बारे में देश के प्रबुद्ध समाज को स्वयं भी सावधान होना चाहिए और देश को भी सावधान करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि उन्होंने कुछ दिन पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को मुसलमान होते हुए भी राष्ट्रवादी बताया था और फिर अशोक वाटिका में हनुमानजी की सीताजी से भेंट को विज्ञान-सिद्ध तथ्य घोषित किया था। उचित तो यह था कि संस्कृति मंत्री एक सामाजिक सोच वाले समाज की रचना की बात करते; धर्म और जाति के साथ जुड़ी राजनीति के सांस्कृतिक खतरों से देश को आगाह करते; विवेक और तर्क के आधार पर कुछ कहने-करने की सलाह देते; कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या करने वाली बीमार सोच की भर्त्सना करते, अपराधियों को दंड दिये जाने का आश्वासन देते; पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्हें बलात्कारियों को निरुत्साहित करने का सबसे फलदायी तरीका यह लगता है कि लड़कियां रात को घर से बाहर न निकलें। उन्होंने यह सुझाव ही नहीं दिया, इसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा भी बता दिया।
स्त्री-विमर्श के इस युग में जब जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी क्षमता का परिचय दे रही हैं, पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर जीवन और समाज को आगे ले जा रही हैं, हमारे संस्कृति मंत्री महिलाओं को रात में घर से बाहर न निकलने की सलाह देकर आखिर जताना क्या चाहते हैं? उन्होंने गीता और रामायण की भी दुहाई दी है। क्या उन्हें पता है कि आदिकवि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में सीता को एक स्वाभिमानी, स्वतंत्र चेतना वाली नारी के रूप में चित्रित किया है? क्या उन्हें पता है कि भवभूति के उत्तररामचरित में ऐत्रेयी और वासंती नाम की दो नवयुवतियों को उच्च शिक्षा पाने के लिए दक्षिण में जाने की सलाह उनके गुरु वाल्मीकि देते हैं? दो युवतियों का उत्तर भारत से दक्षिण भारत जाना क्या यह नहीं दर्शाता कि कम से कम आठवीं सदी में, जब भवभूति ने इस ग्रंथ की रचना की थी, महिलाओं का अकेले लम्बी यात्राओं पर जाना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध नहीं माना जाता था? यही नहीं, सातवीं सदी ईसा-पूर्व के उपनिषदों में गार्गी की कथा आती है। याज्ञवल्क्य को अपनी विद्वता और तर्कों से निरुत्तर करने वाली गार्गी सारे देश में शास्त्रार्थ के लिए जाती थी। क्या उसका इस तरह देश भर में भ्रमण करना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध था?
सन् 2015 में भारत के संस्कृति मंत्री महिलाओं को रात्रि में घर से बाहर न निकलने की सलाह देकर किस भारतीय संस्कृति की गाथा सुना रहे हैं? सच तो यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के नाम पर इक्कीसवीं सदी के भारतीय समाज को गुमराह करने वाली एक सोच पिछले एक अर्से से लगातार इस देश में पनप रही है। हमारी संस्कृति महान थी, यह कहने से बात नहीं बनेगी। अपनी संस्कृति के सकारात्मक पक्षों पर गर्व करने का अधिकार सबको है। भवभूति की ऐत्रेयी और वासंती हमारी संस्कृति का एक उजला पृष्ठ ही उजागर करती हैं। गार्गी के चरित्र पर कोई भी समुन्नत समाज गर्व कर सकता है। लेकिन यह कौन-सी संस्कृति है जो रात्रि में महिलाओं को घर से बाहर न निकलने का उपदेश देती है? किसी भी सुशासन का कर्तव्य बनता है कि वह अपने नागरिकों को निर्भय होकर जीने की स्थितियों वाला समाज दे। वस्तुत: यह कसौटी है सुशासन की। इस दृष्टि से देखें तो हमारे संस्कृति मंत्री ने अपने शासन की असफलता ही घोषित की है।
प्रश्न सरकार के कर्तव्य का ही नहीं है, समाज में कई स्तरों पर संस्कृति की रक्षा के नाम पर पोंगापंथी को बढ़ावा देने की गतिविधियां चल रही हैं। धर्म के नाम पर कुप्रथाओं और अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली ताकतें जब-तब अपना सर उठा रही हैं। आवश्यकता विवेक आधारित सामाजिक चेतना के विकास की है। विवेक का यह आधार भारतीय संस्कृति की बुनियाद रहा है। वह बदलते समय की आवश्यकताओं के अनुरूप स्वयं को सहेजती-संवारती रही है। लेकिन जब संस्कृति को राजनीतिक उपयोग का साधन बनाया जाता है अथवा संस्कृति के नाम पर कथित धर्म की रक्षा की दुहाई दी जाती है तो इसे एक दुरभि संधि के रूप में ही समझा जाना चाहिए।
धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर जिस तरह की गतिविधियां पिछले एक अर्से से हमारे यहां चल रही हैं, और जिस तरह संस्कृति के नाम पर राजनीति हो रही है, वह किसी भी जागरूक समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। संस्कृति के नाम पर एक बौद्धिक सेंसरशिप का जो वातावरण देश में बनाया जा रहा है, विवेकशील समाज में उसका खुलकर विरोध होना चाहिए। इस तरह की प्रतिगामी शक्तियों को किसी भी तरह का बढ़ावा मिलना समाज को उन अंधेरों की ओर ले जाना है, जिनसे उबरकर मनुष्यता आगे बढ़ी है। स्वार्थ चाहे वैयक्तिक हो या राजनीतिक, उसके लिए समाज और देश के सामूहिक हितों की बलि देना किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। इसलिए ज़रूरी है ऐसी प्रतिगामी ताकतों को और पीछे ले जाने वाली सोच को असफल बनाया जाये। यह काम हर स्तर पर और लगातार होते रहना चाहिए। इसके लिए हर विवेकशील नागरिक को संस्कृति के नाम पर भ्रम फैलाने वालों से मुकाबला करना होगा। यही उसकी जागरूकता का प्रमाण है।