दिन-प्रतिदिन बदल रहा बिहार का राजनीतिक समीकरण

bihar electionसी.लाल। बिहार के सामाजिक समीकरण में अतिपिछड़े वर्ग की आबादी कुल जनसंख्या की एक तिहाई से अधिक है जो बिहार में राजनीतिक परिवर्तन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। पिछले तीन चुनावों के परिणामों को देखा जाय तो 2-2.5 प्रतिशत मतों में उलट फेर से सरकार बनती रही है। बिहार में अतिपिछड़े वर्ग की 37 प्रतिशत के करीब आबादी है जिसमें 94 जातियां शामिल है और इन 94 जातियों में 24 जातियां-मल्लाह, केवट, बिन्द, बेलदार, चाई, तीयर, गोढ़ी, सोरहिया, कापर, कापरी, कैवर्त, खुलवड़, मुडिय़ारी, बनपर आदि निषाद मल्लाह की उप जातियां है जिनकी संख्या अत्यन्त पिछड़ों में एक तिहासी से अधिक यानी 14 प्रतिशत से अधिक है। उत्तरी बिहार के पश्चिमी चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, अररिया, किसनगंज, पूर्णिया, कटिहार, सुपौल में मुस्लिम व निषाद जातियों की संख्या अलग-अलग लगभग 30-40 प्रतिशत तक है। इसके साथ भागलपुर व दरभंगा, सारण में भी निषाद व मुस्लिम मतदाताओं की संख्या काफी अधिक है।
बिहार में जिस तरह राजनैतिक दलों की गतिविधियां इस चुनाव में गरम है ऐसा पूर्व में कभी नहीं रहा। आये दिन बिहार के सियासी हालात में परिवर्तन के साथ-साथ दिन प्रतिदिन बिहार का राजनीतिक समीकरण बदल रहा है। भाजपा गठबंधन, महागठबंधन के साथ-साथ समाजवादी गठबंधन, बसपा व 6 कम्यूनिस्ट पार्टियों का गठबंधन चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहें हैं लेकिन मुख्य संघर्ष राजग व महागठबंधन के बीच है। यूपी से सटे भभुआ (कैमूर), सासाराम, रोहतास, बक्सर, आरा, भोजपुर, सारण (छपरा) के अधिकांश विधान सभा क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी की भी संघर्ष में है। वोटों के बिखराव के चलते इस बार हो सकता है कि सपा एक दर्जन से अधिक सीटें जीत सकती है। मध्य व पूर्वी बिहार में भी सपा कई क्षेत्रों में पप्पू यादव की पार्टी से गठबंधन के कारण संघर्ष में है। लेकिन सपा के लिए एक उल्टी हवा यह हो गयी है कि तरारी से उसने रणबीर सेना के प्रमुख ब्रम्हेश्वर मुखिया के बेटे इन्द्रेव सिंह को उम्मीदवार बनाने से पिछड़े -अतिपिछड़े व दलित वर्ग नाराज हो गये हैं, कारण की 1998 में भोजपुर का जो चर्चित बाथेपुर हत्याकाण्ड हुआ था इसमें अधिकांश निषाद, मल्लाह, यादव, मुशहर महादलित ही मारे गये थे। लालू प्रसाद यादव द्वारा यह बयान देने कि मांस खाने वाले असभ्य होते हैं और हिन्दू भी गौ मांस खाते है, से अधिकांश मुसलमान, आदिवासी, दलित महादलित व मछुआरा जातियां राजद से नाराज हो गयी है जो आरएसएस सर संघ चालक मोहन भागवत के आरक्षण समीक्षा सम्बन्धी बयान से महा गठबंधन के साथ धु्रवीकृत होती दिख रही थी। इसी बीच महागठबंधन के सहयोगी कांग्रेस के प्रवक्ता मनीश तिवारी व पूर्व केन्द्रीय मंत्री जतिन प्रसाद द्वारा आरक्षण की समीक्षा का मुद्दा उठाकर भागवत के समर्थन के कारण ही महागठबंधन से पिछड़े, अतिपिछड़े व दलित नाराज हो गये।
भाजपा नेताओं द्वारा दबी जुबान से बिहार में किसी पिछड़े, अतिपिछड़े को मुख्यमंत्री बनाने की बात तो की जा रही है परन्तु उसका खुलासा न होने से उक्त वर्ग भाजपा को संशय की दृष्टि से देख रहें हैं क्योंकि महाराष्ट्र, हरियाणा में पिछड़े व झारखण्ड में आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का मुद्दा उठाया जायेगा परन्तु सरकार बनाते समय इन वर्गों को नकार दिया गया। इस मुद्दे पर अतिपिछड़े सामाजिक न्याय चिन्तक लौटन राम निषाद ने कहा कि अगर भाजपा की नीयत किसी पिछड़े अतिपिछड़े को बनाने की होती तो उसके नाम का खुलासा कर उसको चेहरा के रूप में प्रस्तुत कर चुनाव लड़ती परन्तु भाजपा का असल मकसद कुछ और ही है।
बिहार के सामाजिक समीकरण में यादव, कुर्मी, कोयरी, बनिया आदि पिछड़ी जातियों की संख्या लगभग 19 प्रतिशत, मुस्लिम-14.60 प्रतिशत, ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ आदि 15 प्रतिशत से 16 प्रतिशत, दलित, महादलित व आदिवासी 16-17 प्रतिशत तथा अत्यन्त पिछड़ी जातियां 34-36 प्रतिशत हैं। सामाजिक चिन्तक लौटन राम निषाद ने बिहार चुनाव के संदर्भ में कहा कि अतिपिछड़ी जातियां ही सत्ता परिवर्तन की कारण बनेगी जिसमें निषाद, मछुआरा समाज की सबसे खास भूमिका रहेगी क्योंकि इनकी आबादी 14 प्रतिशत से अधिक तथा 134-135 विधान सभा क्षेत्रों में इनकी संख्या 40 से 80 हजार के बीच है। वैसे महागठबंधन, राजग, सामाजिक गठबंधन समीकरण बनाने बिगाडऩे में लगे है। जो ओवैसी सीमांचल की दो दर्जन से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ाने की बात कर रहें थे, वे मात्र 6 उम्मीदवार ही खड़ा किये है। नोएडा के दादरी काण्ड की हवा का असर बिहार की राजनीति पर भी पड़ता दिख रहा है। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक ध्रवीकरण कराने के लिए भी हाथ पैर मार रहें हैं। अब देखना है कि 2 नवम्बर के बाद बिहार की राजनीति किस करवट लेती है और किस गठबंधन की सरकार बनती है।