कौडिय़ों के मोल बिका बस्तर का हस्तशिल्प

bustar handicraft

सुधीर जैन,जगदलपुर। बस्तर के हस्तशिल्प कलाकार दशहरे के मेले में अपनी कलाकृतियों के न बिकने पर निराश हैं। इसका कारण यह है कि इन कलाकृतियों के खरीददार इसे कम दाम में ही खरीदना चाहते हैं। यहां लोग जीवन से जुड़ी तमाम वस्तुओं के अलावा दैनिक उपयोग की सामग्रिया ही खूब बिकती है। इसके अलावा ढोल, मृदंग तथा अन्य सजावटी समान भी बाजार की खूब शोभा बढ़ाये हुए हैं। खूबसूरत कौडिय़ों से सुसज्जित टोपी,पटाड़ी, दंतेश्वरी मंदिर के सामने बिक रहे हैं, लेकिन इनका कोई लेवाल नहीं है, और उन्हें वास्तव में कौड़ी का भी लाभ नहीं हो रहा है।
गौरतलब है कि बस्तर का ग्राम जीवन दशहरा उत्सव की प्रतीक्षा में रहता है, तथा इस उत्सव में शामिल होने वह वर्ष भर मेहनत करता है और कुछ ज्यादा मिल सके इस आश में हर वर्ष अपनी बनाई सामग्रियों को कुछ अलग ही स्वरूप देता है। परंतु शहर आकर उसे उतना लाभ नहीं मिल पाता जितने की उम्मीद की जाती है। ईरिकपाल गांव से शहर आई चंदेली, सुंदर भारद्वाज तथा बुधचंद ने हमारे संवाददाता को बताया कि दशहरे दिन से तीन दिनों तक भीतर रैनी और बाहर रैनी तक यहां लगने वाले बाजार में अपने हाथों की बनाई हुई कौड़ी की सजावटी वस्तुओं में गपली, टोपी, पटाड़ी और चोली घाघरा की बिक्री करने आते हैं, परंतु इस वर्ष दो दिन हो गये एक भी सामान की बिक्री नहीं हुई है। इन्होंने बताया कि कौड़ी 400 रू. किलो में बिकने के चलते पहले की अपेक्षा गपली की कीमत 70 या 80 रू तक थी, परंतु अब इसी का दाम बढ़कर 250 रूपये हो गया है। परंतु ग्राहक अभी भी उसे 70 रूपये में ही खरदीना चाहते हैं। इसी तरह कौडिय़ों, कपड़े व आईना के दाम बढऩे के चलते पहले की अपेक्षा इनकी मूल्यों में भारी बढ़ोतरी हुई है। दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष कौड़ी से बनी सजावटी सामान विक्रय कर रही चंदेली ने नवभारत को बताया कि वे दशहरा के अलावा हर रविवार को अपनी सामान विक्रय करने यहां आती है। सजावटी सामान बनाने में वक्त व पैसा बहुत खर्च होता है परंतु मन मुताबिक लाभ नहीं मिल पाता है। महंगाई के चलते इनका कारोबार ठप्प हो गया है।