सैल्फी युग का सैल्फिश रोग

selfie-शमीम शर्मा।
आजकल एक नई कहावत प्रचलन में है कि सैल्फी लेने में दो सैकिंड लगते हैं पर इमेज बनाने में सालों लग जाते हैं। सवाल है कि इमेज की चिन्ता ही किसे है? आज की युवा पीढ़ी को क्या चाहिये? उनके लिये दो वक्त की रोटी से भी ज़्यादा ज़रूरी दो वक्त की सैल्फी हो गई है। वे दिन सभी को याद होंगे जब स्कूलों में मास्टरों के हाथ में एक छड़ी हुआ करती थी जो शरारतियों की धुनाई की ड्यूटी निभाया करती। अब छड़ी का रूप बदल गया है और यह मास्टरों के हाथ से होकर मनचलों के हाथों में आ गई है, जिसे हम कहते हैं सैल्फी स्टिक। इस स्टिक पर मोबाइल टांगकर इतराना हमें आ गया है। हम गर्व से कह सकते हैं कि फूटी कोड़ी हमारे पास हो न हो पर मोबाइल ज़रूर है।
अपनी ही मौत के हम फोटो खींचेंगे यह किसी ने नहीं सोचा था। जाम में फंसे होने पर, समारोहों में, हस्पतालों में, शव यात्राओं में, और तो और चिता को अग्नि देते समय की भी लोग सैल्फी ले रहे हैं। सैल्फी का क्रेज मंत्री और अफसरों से लेकर आम आदमी तक सभी को है। उफनती हुई नदी के किनारे, सागर की लहरों पर, आग की लपटों पर लोग अपनी फोटो उतार रहे हैं और इस जहान से विदाई ले रहे हैं। इसे कहते हैं अपने ही हाथों जान से हाथ धो बैठना। टिंगे-बिंगे मुंह बनाकर सब खींचने में लगे हुए हैं। आतंकवादी अपनी मिसाइलों के साथ बैठकर या बम हाथ में पकड़े सैल्फी ले रहे हैं। आजकल हम और कुछ ले न लें पर सैल्फी खूब ले रहे हैं। यह और बात है कि सौ सैल्फी लेकर फिर 99 डिलीट कर देते हैं। एक आशिक ने अपनी प्रेमिका को नसीहत दी-यूं चिपक-चिपक कर सैल्फी ना ले, ब्रेकअप हो गया तो फोटो की कांटछांट भी नहीं कर पायेगी। लड़कियों को रोटी बनानी आये न आये पर सैल्फी में मुंह बनाना सबको आता है।
आज से दो-चार साल पहले जब हम कहीं घूमने जाते थे तो फोटोग्राफी करते समय पास में खड़ा एकाध अनजान व्यक्ति सज्जनतावश कह ही दिया करता-लाओ जी मैं खींच देता हूं आप सबकी फोटो, आप भी शामिल हो जाओ। अब सैल्फी युग में वह बेचारा टुकुर-टुकुर देख रहा है और हम सैल्फी स्टिक के सहारे फोटुओं की नैया पार करने में जुटे हैं।