व्यापम घोटाले से जुड़े लोगों की मौतों का सिलसिला कैसे थमेगा

 

vayapam

आखिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर व्यापम घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपने का फैसला हो गया। यह और बात है कि मध्यप्रदेश सरकार ने शीर्ष अदालत के रुख को भांपते हुए पहले ही इसकी तैयारी दिखा दी थी। मुख्यमंत्री के बदले रवैये का एक फायदा मध्यप्रदेश सरकार को यह हुआ कि गुरुवार को उसे सुप्रीम कोर्ट की कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं सुननी पड़ी।
उल्टे, कोर्ट ने उसके इस रुख की तारीफ ही की। मध्यप्रदेश सरकार के कर्ता-धर्ता और सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के नेता-कार्यकर्ता इस तारीफ पर चाहें तो खुश हो लें, मगर असली मसला यह है कि खूनी शक्ल ले चुके इस व्यापम घोटाले से जुड़े लोगों की मौतों का सिलसिला कैसे थमेगा, और इसकी जांच तेजी से सही दिशा में आगे कैसे बढ़ेगी। पिछले कई वर्षों से इस मामले में जांच के नाम पर सिर्फ रायता ही फैलाया जाता रहा है। अब जब यह मामला सीबीआई को सौंपा जा रहा है तो यह सुनिश्चित करना बेहतर होगा कि न केवल इस मामले की ठोस जांच हो बल्कि यह भी देखा जाए कि चार-पांच वर्षों तक जांच के नाम पर टालमटोल कैसे चलती रही।
क्यों यह संभव हुआ कि राज्यपाल के खिलाफ प्राथमिकी दायर होने के बावजूद न तो उन्होंने खुद इस्तीफा देने की जरूरत महसूस की और न ही राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से इस बारे में राय-मशविरा किया कि प्रदेश में उसकी नुमाइंदगी करने वाले शख्स की छवि ठीक नहीं है? हालांकि यह देखना सुखद है कि अब सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दबाव में ही सही, केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसी सुगबुगाहट हो रही है। दरअसल, पिछले कुछ समय से विभिन्न कारणों से अपने देश में आरोपों को अनिवार्य तौर पर साजिश के ही रूप में लेने का चलन बढ़ता जा रहा है। इसकी तार्किक परिणति इस दलील में होती है कि अगर आरोपों में घिरे शख्स ने पद छोड़ दिया तो इसे साजिश रचने वालों की जीत समझा जाएगा।
यह दलील देने वाले लोग इस बात की तरफ ध्यान नहीं देते कि राजनीति की चमक बढ़ाने वाले जो भी दो-चार उदाहरण अपने देश में हैं, चाहे वह लाल बहादुर शास्त्री का मामला हो या माधव राव सिंधिया का या फिर लाल कृष्ण आडवाणी और शरद यादव का- सभी में कुछ न कुछ साजिशें जरूर रही होंगी, लेकिन हर मामले में जीत साजिश करने वालों की नहीं, पद का मोह छोडऩे वालों की हुई।
अग्निपरीक्षा के बाद वे ज्यादा निखर कर सामने आए और अपनी राजनीति को ज्यादा विश्वसनीय बनाया। यह दुखद है कि व्यापम से लेकर ललित मोदी विवाद तक तमाम हालिया मामलों में आरोपों से घिरे नेता तो पद का मोह नहीं ही छोड़ पा रहे, सर्वोच्च नेतृत्व भी उन्हें इसके लिए प्रेरित करता नहीं दिख रहा है। यहां से देखें तो लगता है कि अगर व्यापम घोटाले की सीबीआई जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चलती तो ज्यादा अच्छा होता।