सट्ट। बाजार-एक्जिट पोल: सब तरफ चर्चाओं का ढोल

bihar electionचुनाव स्पेशल। बिहार में पांच चरणों के चुनाव के बाद सूबे की जनता ने तो अपना फैसला दे दिया है। अब बस उनके फैसले के लिए 8 नवंबर तक का इंतजार करना होगा। उधर, बिहार में मतदान खत्म हुआ और इधर तमाम खबरिया चैनलों पर एक्जिट पोल का बाजार गरम हो गया। चुनाव के बाद एक तरफ एक्जिट पोल अपन-अपने तर्क दे रहा है तो वहीं दूसरी ओर सट्टïा बाजार भी पूरे उफान पर है। बताया जा रहा है कि करीब 25 हजार करोड़ का सट्टïा लगा है कि बिहार में किसकी सरकार बनेगी।
बिहार के चुनावों में मुल्क के लोकतंत्र ने खोया और क्या पाया? हाल-फिलहाल में यह याद नहीं कि किसी सूबे के विधानसभा चुनाव में वैसी गहमागहमी रही हो। जैसी की अबके बिहार में दिखी। अबके बिहार का चुनाव तो कई बार हाई-वोल्टेज पॉलिटिकल ड्रामा में तब्दील होता नजर आया। यों तो इसमें कई किरदार चरित्र भूमिका में रहे। पर दो अहम किरदारों ने मुल्क ही नहीं। दुनियाभर के लोगों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा। तो कभी भरपूर मनोरंजन करते नजर आये। इन दो अहम किरदारों में एक मुल्क के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे। तो दूसरे किरदार थे राजद सुप्रीमो लालू यादव। बेशक, नायक की भूमिका में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार हों। पर मंच के असली लुटेरे तो मोदीजी और लालूजी ही रहे। दोनों को लेकर कई बार यह शकहोता नजर आया कि यह नेता हैं या अभिनेता। चुनाव में दोनों बढ़-चढ़कर लगे थे। तो शायद इसलिए कि कहीं न कहीं दोनों की सियासत दांव पर लगी है। जैसा कि मोदीजी चुनाव प्रचार के दौरान जनता को भी यह समझाने की कोशिश कई बार करते दिखाई पड़े कि यदि अबके बिहार में उनकी पार्टी की हार होगी। तो विपक्ष की ओर से केन्द्र में उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की जाएगी। अब भला विपक्ष क्या खाकर मोदीजी की बहुमत की सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करेगा? यह फिलहाल तो अपनी समझ से बाहर है। पर इस बात का अंदेशा तो जरूर है कि यदि अबके खुदा न खास्ता बिहार में भाजपा की सरकार नहीं बन सकी। तो मोदीजी को अंदरूनी तौर पर तमाम चुनौतियां झेलनी होगी। जो उनके लिए कहीं अधिक परेशानी का सबब बनेगा। फिर, मोदीजी के लिए मुल्क में बढ़ती असहिष्णुता के सवाल पर तेजी से उठ रही आवाज भी आज बड़ा संकट है। इस सवाल पर मोदीजी आज तलक चुप हैं। पर बिहार चुनाव के नतीजे यदि उनके हक में आए। तो कहीं अधिक सख्ती से वे इस विरोध का सामना कर पायें। जहां तक लालू का सवाल है। तो उनका समूचा सियासी भविष्य बिहार के चुनावी नतीजों पर टिका है। लोकसभा चुनावों के दौरान उनने जो अपना सियासी जनाधार खोया था। नीतिश के साथ गठबंधन के बाद उन्हें वह आधार पाने लेने की उम्मीद थी। यही वह उम्मीद भी है। जिसके आधार पर लालूजी अपने दोनों बेटों के सियासी भविष्य का सपना देखने लगे हैं। यदि अबके बिहार में महागठबंधन हारा। तो लालूजी की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। यह तो अब 8 तारीख को पता चलेगा कि किसके उम्मीदों का दीया जलेगा। और किसके उम्मीदों पर पानी फिरेगा? पर असल सवाल तो लोकतंत्र का है। आखिर लोकतंत्र ने बिहार के इस सियासी घमासान में क्या खोया और क्या पाया? अब नतीजे जो भी हों। पर अबके चुनावी मुद्दों और चुनाव प्रचार के लहजे का तकाजा तो यही कहता है कि बिहार में लोकतंत्र को कुछ खास हाथ नहीं लग सका। बेशक, बिहार में चुनावी प्रचार का आगाज विकास के मुद्दे को लेकर हुआ। पर चुनाव शुरु होने से पहले ही विकास का सवाल न जाने कहां गुम सा हो गया। मुद्दे रह गए तो वही जाति के, संप्रदाय के, बीफ के और गाय के। चुनावी भाषा का स्तर भी कई बार इस कदर गिरता नजर आया। गोकि जो न कभी देखा गया न सुना गया। शैतान, नरभक्षी, ब्रह्म पिशाच, औरतखोर.. न जाने कैसे शब्द दूसरे के खिलाफ उछाले गए। दो दशक के बाद एक बार फिर बिहार के चुनाव की लड़ाई जाति के सवाल पर चली गई। शायद भाजपा के बीफ और गाय के मुद्दे की काट लालूजी और नीतिशजी को फिर एक मंडल की ही सियासत में दिखी। शायद लालू को इस बात का अंदाजा था कि भाजपा आखिरकार ध्रुवीकरण की ओर सूबे की सियासत को मोड़ेगी। लिहाजा उनने अपने चुनावी अभियान के शुरु में ही इस चुनाव को बैकवर्ड-फॉरवर्ड की लड़ाई बताया था। संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान लालू यादव की इस बैकवर्ड-फॉरवर्ड राजनीति के लिए वरदान साबित हो गया। भागवत ने आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग कर दी थी। आरएसएस की छवि कभी भी एक आरक्षण समर्थक संगठन की नहीं रही है। यही कारण है कि जब भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने की मांग की। तो लालू यादव ने उसका अर्थ आरक्षण समाप्त करने से लगा लिया। उसका पूरा प्रचार किया गया और आरक्षण समर्थक लोगों को लालू की बात पर विश्वास भी होने लगा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत आरक्षण की व्यवस्था सुरक्षित नहीं है। बिहार की आबादी का 85 फीसदी आरक्षण समर्थक है। लिहाजा मोदीजी को आधिकारिक तौर पर कहना पड़ा कि आरक्षण के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। बहरहाल, चुनाव खत्म होने के बाद हाल-फिलहाल में शायद ही यह मुद्दे फिर से उठें। फिलहाल तो अपन को 8 तारीख का बेसब्री से इंतजार है। जब ईवीएम के बक्से खुलेंगे और जनता का फैसला सामने आयेगा। ओर खींचा। तो कभी भरपूर मनोरंजन करते नजर आये। इन दो अहम किरदारों में एक मुल्क के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे। तो दूसरे किरदार थे राजद सुप्रीमो लालू यादव। बेशक, नायक की भूमिका में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार हों। पर मंच के असली लुटेरे तो मोदीजी और लालूजी ही रहे। दोनों को लेकर कई बार यह शक होता नजर आया कि यह नेता हैं या अभिनेता। चुनाव में दोनों बढ़-चढ़कर लगे थे। तो शायद इसलिए कि कहीं न कहीं दोनों की सियासत दांव पर लगी है। जैसा कि मोदीजी चुनाव प्रचार के दौरान जनता को भी यह समझाने की कोशिश कई बार करते दिखाई पड़े कि यदि अबके बिहार में उनकी पार्टी की हार होगी। तो विपक्ष की ओर से केन्द्र में उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की जाएगी। अब भला विपक्ष क्या खाकर मोदीजी की बहुमत की सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करेगा? यह फिलहाल तो अपनी समझ से बाहर है। पर इस बात का अंदेशा तो जरूर है कि यदि अबके खुदा न खास्ता बिहार में भाजपा की सरकार नहीं बन सकी। तो मोदीजी को अंदरूनी तौर पर तमाम चुनौतियां झेलनी होगी। जो उनके लिए कहीं अधिक परेशानी का सबब बनेगा। फिर, मोदीजी के लिए मुल्क में बढ़ती असहिष्णुता के सवाल पर तेजी से उठ रही आवाज भी आज बड़ा संकट है। इस सवाल पर मोदीजी आज तलक चुप हैं। पर बिहार चुनाव के नतीजे यदि उनके हक में आए। तो कहीं अधिक सख्ती से वे इस विरोध का सामना कर पायें। जहां तक लालू का सवाल है। तो उनका समूचा सियासी भविष्य बिहार के चुनावी नतीजों पर टिका है। लोकसभा चुनावों के दौरान उनने जो अपना सियासी जनाधार खोया था। नीतिश के साथ गठबंधन के बाद उन्हें वह आधार पाने लेने की उम्मीद थी। यही वह उम्मीद भी है। जिसके आधार पर लालूजी अपने दोनों बेटों के सियासी भविष्य का सपना देखने लगे हैं। यदि अबके बिहार में महागठबंधन हारा। तो लालूजी की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर सकता है। यह तो अब 8 तारीख को पता चलेगा कि किसके उम्मीदों का दीया जलेगा। और किसके उम्मीदों पर पानी फिरेगा? पर असल सवाल तो लोकतंत्र का है। आखिर लोकतंत्र ने बिहार के इस सियासी घमासान में क्या खोया और क्या पाया? अब नतीजे जो भी हों। पर अबके चुनावी मुद्दों और चुनाव प्रचार के लहजे का तकाजा तो यही कहता है कि बिहार में लोकतंत्र को कुछ खास हाथ नहीं लग सका। बेशक, बिहार में चुनावी प्रचार का आगाज विकास के मुद्दे को लेकर हुआ। पर चुनाव शुरु होने से पहले ही विकास का सवाल न जाने कहां गुम सा हो गया। मुद्दे रह गए तो वही जाति के, संप्रदाय के, बीफ के और गाय के। चुनावी भाषा का स्तर भी कई बार इस कदर गिरता नजर आया। गोकि जो न कभी देखा गया न सुना गया। शैतान, नरभक्षी, ब्रह्म पिशाच, औरतखोर.. न जाने कैसे शब्द दूसरे के खिलाफ उछाले गए। दो दशक के बाद एक बार फिर बिहार के चुनाव की लड़ाई जाति के सवाल पर चली गई। शायद भाजपा के बीफ और गाय के मुद्दे की काट लालूजी और नीतिशजी को फिर एक मंडल की ही सियासत में दिखी। शायद लालू को इस बात का अंदाजा था कि भाजपा आखिरकार ध्रुवीकरण की ओर सूबे की सियासत को मोड़ेगी। लिहाजा उनने अपने चुनावी अभियान के शुरु में ही इस चुनाव को बैकवर्ड-फॉरवर्ड की लड़ाई बताया था। संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान लालू यादव की इस बैकवर्ड-फॉरवर्ड राजनीति के लिए वरदान साबित हो गया। भागवत ने आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग कर दी थी। आरएसएस की छवि कभी भी एक आरक्षण समर्थक संगठन की नहीं रही है। यही कारण है कि जब भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने की मांग की। तो लालू यादव ने उसका अर्थ आरक्षण समाप्त करने से लगा लिया। उसका पूरा प्रचार किया गया और आरक्षण समर्थक लोगों को लालू की बात पर विश्वास भी होने लगा कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत आरक्षण की व्यवस्था सुरक्षित नहीं है। बिहार की आबादी का 85 फीसदी आरक्षण समर्थक है। लिहाजा मोदीजी को आधिकारिक तौर पर कहना पड़ा कि आरक्षण के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। बहरहाल, चुनाव खत्म होने के बाद हाल-फिलहाल में शायद ही यह मुद्दे फिर से उठें। फिलहाल तो अपन को 8 तारीख का बेसब्री से इंतजार है। जब ईवीएम के बक्से खुलेंगे और जनता का फैसला सामने आयेगा।