त्योहारों में खत्म हो रही हैं भावनाएं

aarti raniआरती रानी प्रजापति। भारत अजीब परिस्थितियों का देश है। एक तरफ देश में दलित, महिला, गरीब, छात्र-विरोधी गतिविधियां चल रही हैं दूसरी ओर समाज में त्यौहारों का माहौल हैं लोग एक जगह से दूसरी जगह आ जा रहे हैं एक दूसरे को उपहार दे रहे हैं। बधाईयों दी जा रही हैं। संक्षेप में कहूं तो खुशियों का आदान-प्रदान हो रहा है। लेकिन यह खुशियां किस समाज की हैं। किस आर्थिक समुदाय का इनसे नाता है? क्या सभी व्यक्ति इससे उतने ही जुड़े हैं या कुछ लोग?
भारतीय समाज में स्त्री को विभिन्न व्रत और त्यौहार में बांध कर रखा जाता है और तो और स्त्री को यह तक नहीं पता कि वह कब इस संस्कृति के नाम पर स्वत: ही बंधती चली जाती है। एक घेरे में घिरती चली जाती है जिससे निकलना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। बचपन से ही लड़की को इस व्रत-त्यौहार की संस्कृति में ढाला जाता है। उसके लिए शिवरात्री के व्रत से लेकर दीवाली की सफाई तक अनिवार्य बना दी गई है। पराये घर के नाम पर उसे इस भारतीय संस्कृति का मूल वाहक बनाने की कोशिश अक्सर उसके मानसिक विकास को अवरुद्ध कर देती है। वह व्रत-त्यौहार से आगे सोच ही नहीं पाती।आजकल में दीवाली का त्यौहार आने वाला है। हिन्दुओं का पर्व, जिसमें लोग अपने घर की साफ-सफाई, सफेदी करवा कर नए-नए कपड़ें पहनते हैं, एक-दूसरे को घर जा कर बधाईयां देते हैं, ढेर सारी आतिश्बाजियां करते हैं इन सभी कामों की जिम्मेदारी घर की औरतों पर लाद दी जाती है।दीवाली पर हर चीज महंगी हो जाती है। एक दिया भी आजकल खरीदना मुशकील हो गया है एक समय था जब दिए सस्ते आते थे तेल सस्ता था तो गरीब भी अपने दरवाजे पर एक दीये की दिवाली मना लेता था पर आज गरीब कुछ नहीं कर सकता तिस पर त्यौहार के नाम पर चीजें और महंगी हो जाती हैं। सक्षम लोग अपने घरों में सफेदी करवाते हैं तरह तरह की सजावटें करवाई जाती हैं, जिनका पूरा उद्देश्य अपने सामथ्र्य को बताना होता है। एक बड़ा तबका ऐसा नहीं करावा पाता जिस कारण समाज में खुद को अलग थलग महसूस करता है क्योंकि आजकल इस त्यौहारी संस्कृति का असर लोगों में भरपूर दिखाई देता है। सभी इसको दम-खम से मनाने में लगे हैं। घर की सफेदी से मरम्मत तक, उसके बाद साफ सफाई। अकेले इस त्यौहार में इस देश का कितना पैसा लग जाता है इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। ऊपर से अन्य लोगों पर त्यौहार न मनाने का दवाब। यह हिन्दू त्यौहार अन्य सभी को बहुत परेशान करते हैं। इस संस्क्तिकरण का इतना असर है कि सभी लोग अपने काम को छोड़ कर इसमें लग जाते हैं इसमें 5 दिन का त्यौहार मनाया जाता है। धनतेरस से शुरुवात की जाती है। व्यापारी वर्ग ने अपने सामन की बिक्री के लिए इस दिन का ईजाद कर लिय। रिवाज है कि इस दिन लोग घर में कुछ खरीद कर लाए, अरे आपकी सभ्यता ने 80फीसदी जनता को किसी हैसियत में ही कहा है जो कुछ खरीदे वह तो नमक, रोटी खरीद ले वह भी काफी है। आपके यह त्यौहार किसी की खुशी तो नहीं बन सकते हां दु:ख की वजह जरुर बनते हैं। महंगाई पर तो बात की ही अभी। खाना भी ऐसे में हानिकारक मिलता है। मुनाफे के चक्कर में व्यापारी लोग हर चीज के दाम बढ़ा देते हैं उसकी क्वालिटी में गिरावट कर देते हैं जिससे लोग बीमार होते हैं। गरीब एक तो किसी त्यौहार को मना नहीं पाता यदि मना भी ले तो मिलावट से बीमार पड़ जाता है। इस 5 दिवसीय त्यौहार में खूब आतिशबाजी भी होती है। जिसमें लोग लाखों का रूपया बरबाद कर देते हैं। गरीब व्यक्ति को यह व्यक्ति कभी सही दाम भी नहीं देते, उसके लिए हज़ार बहाने इनके पास होते हैं पर जलाने के लिए यह खूब खर्च करते हैं। ये लोग गरीब की मजदूरी पूरी नहीं देंगे, उसमें मोल भाव करेंगे पर अपने थोड़े से सुख के लिए खूब खर्च करने में परहेज नहीं करेंगे महंगे पटाखे, सजाने की लडियां सब इतना महंगा। और लोग खर्च कर रहे हैं। दीवाली के नाम पर अपना दिवाला निकालते हैं। देश में ऐसे कई गाँव हैं जहां आज भी बिजली नहीं हैं क्योंकि शहरों में ही इतनी बिजली व्यर्थ में खर्च की जाती है कि उन तक कुछ पहुचता ही नहीं। ऐसे में बाजार भी खूब सजे होते हैं। आम लोग ऐसी दुकानों को दूर से देखते हैं क्योंकि पार जाने पर दुकानदार जेब का हाल पूछ लेता है। देश में जब भी दिवाली होती है कई लोग जल जाते हैं पिछले ही साल कई झुग्गियां जल कर राख हो गई। किसी की मौज ने लोगों को सड़क पर ला खड़ा किया और यह किसी एक दिवाली की बात नहीं है हर बार ऐसा होता है। धन की देवी को पूजने वाले लोग अपने पत्नी को मारते हैं क्योंकि त्यौहार में पिया भी जाता है। हम त्यौहार के विरोध में हैं या नहीं सवाल यह नहीं है सवाल है उस भावना का जिसको हम त्यौहार के चक्कर में खत्म कर रहे हैं और कहते हैं कि इन सभी सांस्कृतिक गतिविधियों से हम पास आते हैं।

लेखिका- जेएनयू की छात्रा हैं