बढ़ती वायु प्रदूषण की प्रवृत्ति

air-pollutionविचार डेस्क। उत्तर भारत में अचानक और बढ़ गये वायु प्रदूषण और आसमान में छायी धुंध के मद्देनजर किसानों द्वारा फसलों के अवशेष जलाये जाने पर रोक और जुर्माना जहां जन स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की प्रतिबद्धता का प्रमाण है, वहीं राज्य सरकारों और वहां के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की काहिली को बेनकाब करने वाला भी है। खासकर उत्तर भारतीय राज्यों में धान आदि फसलों के अवशेष खेतों में जला देने की खतरनाक प्रवृत्ति नयी नहीं है। हर साल ही इसके चलते धुंध और वायु प्रदूषण की समस्या पैदा होती है, जो श्वांस आदि बीमारियों के मरीजों तथा बच्चों और बुजुर्गों की मुश्किलें और भी बढ़ा देती है, लेकिन न तो राज्य प्रदूषण बोर्ड कुछ करते हैं और न ही सरकारें। अगर राज्य स्तर पर सजगता और सक्रियता होती तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका की नौबत ही नहीं आती। याचिका पर सुनवाई करते हुए ही एनजीटी ने फसलों के अवशेष जलाने पर तत्काल रोक लगाते हुए जुर्माने का भी प्रावधान कर दिया है। एनजीटी ने राज्य सरकार को इन फसलों के अवशेष नष्ट करने वाली मशीनें भी किसानों को उपलब्ध कराने के निर्देश दिये हैं। दो हेक्टेयर तक जमीन के मालिकों को ये मशीनें मुफ्त उपलब्ध करवायी जायेंगी, जबकि उससे बड़े किसानों से शुल्क वसूला जायेगा।
जाहिर है, देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में छायी धुंध और बढ़े वायु प्रदूषण के चलते दाखिल याचिका पर एनजीटी के इस आदेश का असर भी राज्यों के सरकारी तंत्र की कारगुजारी पर निर्भर करेगा। फसलों के अवशेष जलाने से उत्पन्न खतरों के प्रति किसानों में जागरूकता अभियान चलाने के लिए जिलाधिकारियों को एनजीटी के निर्देश से स्पष्ट है कि बिगड़ते पर्यावरण और बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के प्रति हमारा सरकारी तंत्र आपराधिक हद तक उदासीन है। पंजाब में तो फसलों के अवशेष जलाने पर जुर्माने के साथ-साथ फौजदारी मामला दर्ज करने का भी प्रावधान है, लेकिन समस्या के खतरनाक स्तर पर पहुंच जाने के बावजूद एक भी मामला दर्ज होना बताता है कि कानून कागज से जमीन पर नहीं उतरते। राज्य में ऑक्सीजन 21 प्रतिशत तक कम हो जाने के बाद भी पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की यह सफाई कि किसानों के विरुद्ध कार्रवाई करने का अधिकार तो जिलाधिकारियों के पास है, इन बोर्डों के साथ ही शासन शैली पर भी सवालिया निशान लगा देता है। निर्दोष नागरिकों के स्वास्थ्य ही नहीं, जीवन को भी जोखिम में डालने वाले प्रदूषण के प्रति आपराधिक उदासीनता बरतने वाले इन बोर्डों और संबंधित जिलाधिकारियों के विरुद्ध भी कड़ी कार्रवाई जरूरी है, ताकि भविष्य में वे अपने कर्तव्य निर्वाह के प्रति ऐसी उदासीनता न बरतें। दरअसल जरूरत तो इस बात की है कि फसल अवशेष ही नहीं, प्रदूषण बढ़ाने वाली गतिविधि के प्रति जागरूकता और सख्ती का समन्वित अभियान चलाया जाये।