शिवराज सरकार के दस साल पर झाबुआ हार का मलाल

shyam yadavश्याम यादव। तीसरी पारी में अपने सुशासन के 10 साल पूरे करने की मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सफलता को उनके पार्टी बड़े ही जोश और उत्साह के साथ मनाती अगर बीजेपी रतलाम झाबुआ संसदीय सीट को जीतने में कामयाब हो जाती। 29 नवम्बर को शिवराज सरकार के दस साल पूरे हो रहे है, लेकिन अब इस दिन इस हार की समीक्षा होनी है। अमूमन ये माना जाता है कि विधान सभा या लोकसभा या कोई भी उपचुनाव वहां की सत्तारुढ पार्टी अवश्य ही जीत जाती है क्योंकि सरकार का पूरा अमला उसे जीतने के लिए कमर कस लेता है।
बिहार में बीजेपी की हार के बाद मध्यप्रदेश में पार्टी की एक लोकसभा सीट की हार को राज्य और केन्द्रीय पार्टी को पचाने में बड़ी तकलीफ हो रही है। सवाल केवल रतलाम झाबुआ सीट का होता तो पार्टी को इतना रंज नही होता क्योंकि हार जीत पार्टी के साथ प्रत्याशी पर भी निर्भर करती है साथ उस समय मतदाता की मानसिकता या पार्टी की लहर भी काम करती है। मगर बिहार चुनाव के तत्काल बाद प्रदेश में हुए इस संसदीय चुनाव में बीजेपी की हार से जहां स्वयं मुख्यमंत्री के माथे के बल बढ़ गए वहीं इस हार को ले कर केन्द्रीय पार्टी को जवाब देना भी शिवराज को भारी साबित हो सकता है कारण साफ है दो बार लगातार मुख्यमंत्री की सफल पारी खेलने के बाद ,खुद इस उप चुनाव में 15 मंत्रियों के साथ दिन रात एक करने के बाद नतीजे का अनुकूल न आना पार्टी के साथ उनके कामकाज को भी रेखांकित कर गया।
शिवराज सरकार भले ही संसदीय चुनाव की इस हार को ,इसी के साथ हुए विधानसभा चुनाव की जीत को सामने रख कर अपना गम कम कर ले लेकिन उनके विरोधी इस हार को ले कर केन्द्रीय पार्टी के कान भरने से नही चुकेंगे।
बिहार के बाद मध्यप्रदेश की ये हार ऐसे इलाके में हुई है जो अदिवासी बाहुल है। शहरी इलाकों में भले ही बीजेपी को बढत मिली है मगर पड़ोसी राज्य गुजरात और राजस्थान से सटे इस ग्रामीण इलाके में हुई पार्टी की हार की ये गंध उन राज्यों न फैल जाय इस बात का भय नेताओं को जरुर सता रहा है । हालांकि प्रदेश प्रभारी होने के साथ उपाध्यक्ष पद का दायित्व संभाल रहे विनय सहस्त्रबुद्धे ने इस हार पर ट्वीट कर कहा कि हार को बढ़ा-चढ़ाकर देखने के बजाए इससे सबक सीखने को जरूरत हैं। सहस्त्रबुद्धे ने भी इस लोकसभा सीट और देवास विधानसभा सीट पर प्रचार किया था। गौरतलब है कि प्रदेश संगठन प्रभारी बनने के बाद से ही सहस्त्रबुद्धे संगठन के कई निर्णयों से सहमत होते नहीं दिख रहे हैं।
पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान ने भी पत्रकारों से चर्चा के दौरान कहा था कि झाबुआ का वोटर केवल पंजे को जानता है। इसलिए यह संसदीय सीट कांग्रेस का गढ़ रही है। कांग्रेस के कांतिलाल भुरिया के सामने निर्मला भूरिया कमजोर प्रत्याशी थी। बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष ने यह भी स्वीकार कि 2014 के चुनाव में पार्टी के पास दिलीप सिंह भूरिया जैसा कद्दावर नेता था और तब मोदी लहर भी थी। शिवराज सरकार के अनेक मंत्री जिनमें अनुसूचित जाति वर्ग से आने वाले मंत्रियों अंतर सिंह आर्य, लाल सिंह आर्य के साथ पूर्व मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के सहयोगी रमेश मैन्दौला को भी बागडोर सौंपे थी जो काम न आ पाई। गौरतलब है की रमेश मैन्दौला कथा प्रवचन और भोजन भंडारे कराने के लिए प्रसिद्ध है यदि ये चुनाव जीत जाते तो मेदौला को भी सरकारी लाल बत्ती भी मिल जाती। बहरहाल इस हार पर प्रदेश के साथ केंद्र सरकार भी मंथन कर रही है ,मतलब साफ है कि प्रदेश में बीजेपी सरकार के रहते चुनाव का हार जाना क्या वास्तव में पार्टी विरोधी लहर है। बिहार जैसे हिन्दी प्रदेश के विरोध की लहर मध्यप्रदेश से गुजरात और राजस्थान के बहाने उत्तरप्रदेश में घुसने की तैयारी तो नही कर रही। निष्कर्ष जो भी हो मगर इस हार से पार्टी में शिवराज के विरोधी धुरो को जोर आजमाईश का मौका अवश्य मिल गया है उन्हें अस्थिर करने का। शिवराज सरकार से बीजेपी के केन्द्रीय संघठन में शामिल किये गए कैलाश विजयवर्गीय मालवा निमाड़ में अपनी पकड़ की दुहाई दे कर प्रदेश में वापसी भी कर सकते है।