इंसाफ के मंदिर में दबंग की दबंगई

courtविमलशंकर झा। कहते हैं इंसाफ के मंदिर में देर है अंधेर नहीं है। यह भी कानून का ध्येय वाक्य है कि सौ गुनहगार छूट जाएं,मगर किसी बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए। मगर हकीकत यह है कि न्याय के पूजाघरों में यह आदर्श सूत्र महज किताबों और भाषणों के वाक्य बनकर रह गए हैं। ठीक वैसे ही जैेसे सियासी चकलाघर में राजनीति की रंडियां कर रही हैं। हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था दुुनिया के सामने एक मसखरा और समरथ को नहीं दोष गोंसाईं का पर्याय बन कर रह गई हंै। बालीवुड के दबंग स्टार सलमान खान की दबंगई हिट एंड रन के मामले में आया अदालत का फैसला इसकी ताजातरीन मिसाल है। इस फैसले से देश का चेतनाशील और संवेदशील तबका भौंचक है। छह माह के भीतर दूसरी बार इस सुपर स्टार पर न्याय के पुजारियों की मेहरबानी पर हर कोई शर्मसार है। लोग इसे फिर दबंग की दबंगई के रुप में भी देख रहे हैं। मुंबई उच्च न्यायालय ने सलमान खान को वर्ष 2002 के बहुचर्चित हिट एंड रन मामले में बरी कर दिया। हैरान कर देने वाले इस फैसले से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। बाब भारती और पंच परमेश्वर की भावना के क्षतविक्षत होने और शख्सियत पर न्याय के व्यवस्था के इस तरह नतमस्तक हो जाने की नजीर दर नजीर बनते जाने से इंसाफ पर से देश के आम जनमानस का विश्वास भरभरा जाने का खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। हमेशा विवादों में रहे इस लंपट अभिनेता को हाईकोर्ट ने उनके उस संजीदा गुनाह को पूरी बेबाकी और उतावलेपन से एक ही झटके में खारिज कर दिया जिसके लिए सेशन कोर्ट ने उन्हें पांच बरस की कैद दी थी। तब भी अभियोजन के साथ देश की बहुसंख्य इंसाफ पसंद जनता ने इस सजा को उनके गुनाह के मामले में नकाफी बताया था। अब तो ऊपरी अदालत ने उन्हें पूरी तरह बेगुनाह बताकर हद ही कर दी। सवाल इस बात का है कि क्या सेशन के जज नाकाबिल है। उनका फैसला क्या गलत था ? या फिर उन्होंने हाईफाई प्रोफाईल वाली इस शख्सियत को नजरंदाज कर कानून की मूलभावना पर अपना फैसला सुनाया था। क्या इस देश में दो कानून चल रहे हैं। एक आम आदमी के लिए दूसरा खास आदमी के लिए, यानी बाहुबली सलमान बाहर और सुलेमान अंदर..। क्या कानून के ठेकेदारों का पक्षपाती नजरिया इस लिए है कि सलमान इंडिया में रहते हैं और सुलेमान भारत में रहते हैं। भारत में रहने वाले बेबस,बेकल,मुफलिस,मजलूम, शोषित और दमितों के लिए कानून के मंदिर और इंसाफ की मस्जिदों और व्यवस्था की हर चौखटें बंद हैं। और इंडिया के समर्थ,पूंजीपतियों,शोषकों,बाहुबलियों,सियासतमंदों के लिए व्यवस्था की हर दहलीज पर रेड कार्पेड बिछा है। क्योंकि इंडिया के इन रसूखदार और दबंग सलमानों,संजय दत्तों, जयललिताओं, लालुओं,कनिमोझियों जैसों के पास वह सबकुछ है जो भारत में रहने वाले गरीब गुरबा और आम लोगों के पास नहीं है। आखिर कौन और क्यों कर रहा है यह फर्क ? भिलाई के लंबे मजदूर आंदोलन में प्रसिद्ध मजदूर नेता शंकर गुहानियोगी हत्याकांड मे दुर्ग सेशन कोर्ट ने हत्यारे पल्टन मल्लाह को फांसी और बाकी आरोपी उदयोगपतियों को आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी। मगर जबलपुर उच्च न्यायालय ने सभी आरोपी उद्योगपतियों को बरी को बरी कर दिया था। क्या सेशन कोर्ट के ऐतिहासिक फैसला सुनाने वाले निर्भिक औैर ईमानदार जज टीके झा नाकाबिल थे। या फिर नियोगी की हत्या ही नही हुई। किसने की नियोगी की हत्या ? यह आज तक रहस्य बना हुआ है। एक आरोपी और एक संदिगध उद्योगपति की अब तो मौत भी हो चुकी है।अदालत क्या शासन का नजरिया रसूखदारों के प्रति इससे समझा जा सकता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने तब यह विवादित बयान दिया था कि क्या जरुरत थी नियोगी को खिड़की खोलकर सोने की? सीपीआई एमएल ने नियोगी हत्याकांड के मामले को सुप्रीम कोर्ट में रिओपन कराने का प्रस्ताव भिलाई राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित कर हाईकोर्ट के फैसले पर सवाल उठाया था। ऐसे कितने ही मामले हैं इस देश की उच्च अदालतों में जिनमें गुनहगारों को छोड़ दिया गया। क्या सलमान -संजय लालू, मुलायम जयललिता जैसे हजारों के रसूख और मनी-मसल्स पावर के आगे इस मुल्क की न्याय-कानून व्यवस्था सरेंडर हो चुकी है? है फिर सारे कानून-कायदे नियम धरम आम आदमी के लिए ही हैं। यह कैसा तंजीम और निजाम है कि एक शिक्षा माफिया का बेटा गायब हो जाता है तो प्रदेश की पूरी पुलिस देश भर में उसे ढंूढ़ रही है वहीं उसी शहर के श्रमिक बस्ती से गायब गरीब के बेटे की खबर लेने किसी कांस्टेबल को फुरसत नहीं है। सलमान के हिट एंड रन फैसले से पूरी न्याय व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लग गया है। जब सेशन के उसे पांच साल की सजा सुनाने के साथ हाई कोर्ट में अभियोजन के मुताबिक दुर्घटना के समय चालक की सीट पर सलमान खान बैठे थे,वह शराब के नशे में चूर थे और रविंद्र पाटिल इकलौते चश्मदीद गवाह थे तो फिर हाईकोर्ट के काबिल जज को यह सब दिखाई नहीं दिया। शकोशुबहा के आधार पर उन्होंने बरी करने के पहले यह क्यों नहीं सोचा कि फुटपाथ पर सोने वाले बेघर गरीबों पर दौलत और शोहरत और शराब के नशे में चूर बिगड़ैल यूथ के लोकप्रिय इस लंपट कलाकार को कुचलने की बीमारी है। हाईकोर्ट के जज कह रहे हैं कि यह साबित नहीं हो पाया कि सलमान कार चला रहे थे, उन्होंने शराब पी रखी थी। जज को तो गवाह की सत्यता में भी खामी नजर आ रही है। इतनी ही नहीं विद्वान जज मीडिया पर भी सवाल उठाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं कि मीडिया के बनाए बनाए माहौल पर कोर्ट फैसला नहीं करता है। यह कैसा दुर्योग है कि सारी बातें गुनहगार के पक्ष में जा रही हैं और मजलूम की बेचारगी के हिस्से में कुछ कुछ नहीं आ रहा है। क्या महाराष्ट्र सरकार सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट जाकर मृतक नुरुल्लाह के मजलूम परिजनों को इंसाफ दिलाने का साहस और सदाशयता दिखाएगी। बाकी गवाह के बारे में अदालतमौन रहेगी या आदतन सही पैरवी नहीं करने वाली पुलिस पर कार्रवाई की सिफारिश करेगी या फिर हाई कोर्ट का फैसला एक मखौल और मसखरा बन कर रह जाएगा । आखिर ऐसा क्यों होता है कि अदालतों में आने वाले ज्यादातर फैसले रसूखदारों के पक्ष में ही होते हैं। पहले भी सलमान को छह माह पहले मिनटों में जमानत मिल गई थी। जबकि आम आदमी महीनों बेल के लिए घिसटते जेल पहुंच जाता है। पुलिस क्यों रसूखदार दबंगों की केस डायरी कमजोर बनाती है या नब्बे दिन में अदालत में समिट ही नहीं करती। क्या पुलिस भी नाकाबिल है। और यदि सालों से ऐसा हो रहा है तो रोजाना कई गुनहगार छूट रहे होंगे और बेगुनाह जेल जा रहे होंगे या फिर उन्हें इंसाफ ही नहीं पा रहा है। इस विसंगति को पैदा करनेे वालों को सजा कौन देगा। आज इस देश में कानून के साथ इंसाफ के लोगों पर तेजी से उंगली उठाई जा रही है। सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति से लेकर फैसलों तक की जांच करवा रही है। दो राज्यों में पचास जजों के भ्रष्ट आचरण की जांच चल रही है। कई जांच आयोग गठित किए जा चुके हैं। गौरतलब है कि आपातकाल के लिए जब इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट के ईमानदार जज माथुर ने जेल भेजने की सजा सुनाई थी तो उन्हें पच्चीस लाख रिश्वत की पेशकश की शिकायत उन्होंने कोर्ट से की थी। वे प्रधानमंत्री तक से बिके नहीं थे। टीके झा भी नहीं बिके। ऐसे ही लोगों ने न्याय पर थोड़ा बहुत जनता का फैसला बरकरार रखा है। मगर वहीं दूसरी ओर कमजोर न्याय के कर्णधारों की आस्था डगमगाने से लोगो को भरोसा भी डोलने लगता है। इसे बनाए रखने की जवाबदारी आखिर कौन निभाएगा। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीमो बने जज ने विवादित असहिष्णुता के मुद्दे पर नियु्िक्त के एक दिन पूर्व ही ऐसा विवादित बयान दे डाला जिसे केंद्र की भाजपा सरकार छह महीने से रोज दे रही है।उन्होंने कहा कि असिष्णुता सियासी मुद्दा है। यही तो प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी व सहोदर संगठनों के तमाम लोग देश को समझा रहे हैं। अब यही बात सुप्रीम कोर्ट के चीफ को देश के लोगों को समझाने की क्या जरुरत पड़ गई,समझ से परे है। इस मामले में कांग्रेस-भाजपा सहित धर्म,जाति,मजहब,भ्रष्टाचार तमाम तरह के दुराचार करने वाले तमाम सियासी दलों की अड़सठ सालों से मजम्मत करने वाले पुरस्कार लौटाने व असहिष्णता का विरोध करने वाले यह तमाम साहित्यकार,कलाकार, इतिहासकार, वैज्ञानिक देशद्रही, और संाप्रदायिक का कांग्रेस व कम्युनिष्ट हैं? और उन्हें ऐसा ऐसा बताने वाले लोग देशप्रेमी व धर्मनिरपेक्ष हैं। यह बुद्जिीवी तो सालों से वहीं बात अपनी कर्मगाथा में कह रहे हैं जो तमाम धर्म-कर्म ग्रंथों में युगों से लिखा है और महापुरुष और संत,ज्ञानी कहते र हैं। उन्होंने विभाजन में दोनों ही तरह की सांप्रदायिकता के बारे में मुखालफत की । सिख दंगों की निंदा उतनी ही बेबाकी से की जितने साहस से बाबरी व गोधरा की गुजरात दंगों कि की। यही काम तो गांधी, मौलानाऔर उनके पहल तुकाराम, मीरा, कबीर, गालिब, दयानंद सरस्वती प्रेमचंद, परसाई मुक्तिबोध कह चुके हैं। कम से कम न्याय के पुजारियों को पार्टी बनने से परहेज करना का साहस दिखाना चाहिए। तभी न्याय की आत्मा बची रहेगी। और बाबा भारती की परंपरा कायम रह पाएगी।