जरूरत है सक्षम एवं सफल राजनीतिक नेतृत्व की

modiललित गर्ग। नये वर्ष की शुरूआत के साथ ही राजनीति के लिये शुभ और मंगलकारी होने की ज्यादा जरूरत है। इसके लिये एक ऐसे राजनीतिक उभार एवं प्रभावी राजनीति नेतृत्व की जरूरत तीव्रता से महसूस की जा रही है। क्योंकि राजनीति की दूषित हवाओं ने स्वार्थों की धमाचैकड़ी मचा रखी है। एक ईमानदार और सक्षम नेतृत्व की तलाश जारी है। यह तलाश राजनीति के लिये ही नहीं धर्म, अर्थ, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सभी क्षेत्रों के लिये अपेक्षित है। वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आगमन से सकारात्मकता का वातावरण बना। उन्होंने बीजेपी के साथ-साथ देश की राजनीति को एक नई दिशा दी है। लेकिन एक मोदी से देश के सफल और सक्षम नेतृत्व की पूर्ति संभव नहीं है। वर्ष 2016 में चार-पांच महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने हंै, और इन चुनावों में प्रभावी एवं सक्षम राजनीति नेतृत्व उभरना जरूरी है। इस साल पूर्वोत्तर के असम के बाद पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु-पांडिचेरी और फिर केरल और उसके बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी गिनी जाने वाली कांग्रेस ने काफी कुछ खो दिया है। वाम दल काफी पिछड़ चुके हैं। समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाजवादी पार्टी पर नजरें टिकी है। बिहार में महागठबंधन की सफलता के बाद नीतीश कुमार और ममता बनर्जी भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। लेकिन इस कथित या संभावित तीसरे मोर्चे की राजनीति को भी इस वर्ष के चुनावों में गंभीर किस्म की परीक्षा से गुजरना होगा। लेकिन प्रश्न है कि क्या इस वर्ष के चुनाव देश को कोई सक्षम एवं सफल राजनीतिक नेतृत्व दे पायेंगा?
यह सवाल से हमें बार-बार झकझोरता है और इस वर्ष भी एक चुनौती बन कर खड़ा है। सभी कहते हैं देश में इतनी गड़बड़ी है, राजनीति दूषित होती जा रही है, बढ़ती महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, प्रदूषण और आर्थिक अनियमितताओं जैसे मुद्दों पर तो हमेशा ही सत्ता का और प्रजा का संघर्ष चलता रहा है। मगर हम यह भूल गए कि हमारे बीच करोड़ों ऐसे दिमाग है और करोड़ों ऐसे हाथ हैं जिनमें देश को नई दिशा देने की क्षमता है, मौलिक चिन्तन है, पुरुषार्थी संकल्प है। ऐसे लोगों में नीतियों एवं निर्णयों को सार्थक बनाने की क्षमता है। बस, उन्हें राजनीतिक उभार की जरूरत है। यह कहकर कि अब बड़े लीडर नहीं या सक्षम राजनीति नेतृत्व नहीं रहा, हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाने की पलायनवादी मानसिकता को ही दर्शाता है। हमारा देश या प्रदेश तरक्की नहीं कर रहा, क्योंकि लीडरशिप खराब है। देश को चलाने वालों में लीडरशिप की क्वॉलिटी नहीं है। घर में अव्यवस्था है, क्योंकि उसका मुखिया काबिल नहीं है। एक ठीक-सा आदमी इन सब गड़बडिय़ों को दूर कर सकता है। जरूरत उस आदमी को आगे लाने की है और संभवत: इस वर्ष के चुनावों में यह प्रयत्न होना ही चाहिए।
हमारी सोच ही कुंद हो गयी है तभी तो हम किसी ऐसे अवतारी पुरुष से उम्मीद लगाए रहते हैं जो भ्रष्टाचार और ऐसी ही विसंगतियों से हमें निजात दिलाए। कांग्रेस के लोग अपने युवराज से चमत्कार की उम्मीद करते हैं तो कुछ लोग अखिलेश में नई उम्मीदें खोज रहे हंै। किसी को जयललिता में तो किसी को ममता बनर्जी में देश का भावी नेतृत्व दिखाई दे रहा है। अगर हाशिए पर लगने के बावजूद वामदल और एयूडीएफ, एजीपी, डीएमके, एआईएडीएमके, टीएमसी जैसे दल ज्यादा ताकतवर होकर उभरे तो तीसरे मोर्चे के मजबूत होते जाने और कांग्रेस के मजबूर होकर उसकी चाकरी करने वाली स्थिति आएगी। इन्हीं दृष्टियों से हम भटक रहे हैं। देश भौतिक समृद्धि बटोरकर भी न जाने कितनी रिक्तताओं की पीड़ा सह रहा है। गरीब अभाव से तड़प रहा है, तो अमीर अतृप्ति से। कहीं अतिभाव, कहीं अभाव। जीवन-वैषम्य कहां बांट पाया अपनों के बीच अपनापन। अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, बस्तियां बस रही हैं मगर आदमी उजड़ता जा रहा है। पूरे देश में मानवीय मूल्यों का हृास, राजनीति अपराध, भ्रष्टाचार, कालेधन की गर्मी, लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन, अन्याय, शोषण, संग्रह, झूठ, चोरी जैसे-अनैतिक अपराध पनपे हैं। धर्म, जाति, राजनीति-सत्ता और प्रांत के नाम पर नए संदर्भों में समस्याओं ने पंख फैलाये हैं। हर साल आप, हम सभी अपने आपको जीवन से जुड़ी अंतहीन समस्याओं के कटघरे में खड़ा पाते हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस अदालत में कहां, कौन दोषी है? पर यह चिंतनीय प्रश्न अवश्य है हम इतने उदासीन एवं लापरवाह कैसे हो गये कि राजनीति को इतना आपराधिक होने दिया? जब आपके द्वार की सीढिय़ां मैली हैं तो अपने पड़ौसी की छत पर गन्दगी का उलाहना मत दीजिए। कोई भी अच्छी शुरूआत सबसे पहले स्वयं से ही की जानी जरूरी है। राजनीतिक नेतृत्व के मुद्दें पर हमें गंभीर होना ही होगा।
सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढती हैं। समस्याओं से लडऩे के लिये हमारी तैयारी पूरे मन से होनी चाहिए। सरदार पटेल का एक मार्मिक कथन है कि यह सच है कि पानी में तैरने वाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहने वाले नहीं। मगर ऐसे लोग तैरना भी नहीं सीखते। ठीक इसी भांति स्वस्थ राजनीति निर्माण करने में वे ही लोग सफल होते हैं जो कठिनाइयों एवं विपरीत परिस्थितियों का पूरे साहस, निस्वार्थभाव एवं आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करते हंै।
हमारे भीतर नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है। नीतियां सिर्फ शब्दों में हो और निष्ठा पर संदेह की परतें पडऩे लगें तो भला उपलब्धियों का आंकड़ा वजनदार कैसे होगा? बिना जागती आंखों के सुरक्षा की साक्षी भी कैसी! एक वफादार चैकीदार अच्छा सपना देखने पर भी इसलिए मालिक द्वारा तत्काल हटा दिया जाता है कि पहरेदारी में सपनों का खयाल चोरी को खुला आमंत्रण है।
लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का मौजूदा आचरण स्वीकार्य नहीं। पूरा राजनीतिक वातावरण ही हास्यास्पद हो चुका है। यदि हालात नहीं सुधरे तो राजनीतिक दलों की दुर्गति तय है। बदलती राजनीतिक सोच एवं व्यवस्था के मंच पर बिखरते मानवीय मूल्यों के बीच अपने आदर्शों को, उद्देश्यों को, सिद्धांतों को, परम्पराओं को और जीवनशैली को हम कोई ऐसा रंग न दे दें कि उससे उभरने वाली आकृतियां हमारी भावी पीढ़ी को सही रास्ता न दिखा सकें।
राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है। कई राजनीतिक दल तो पारिवारिक उत्थान और उन्नयन के लिये व्यावसायिक संगठन बन चुके हैं। सामाजिक एकता की बात कौन करता है। आज देश में भारतीय कोई नहीं नजर आ रहा क्योंकि उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्रीयन, पंजाबी, तमिल की पहचान भारतीयता पर हावी हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति ने सामाजिक व्यवस्था को क्षत-विक्षत करके रख दिया है। ऐसा लगता है कि सब चोर एक साथ शोर मचा रहे हैं और देश की जनता बोर हो चुकी हैं। कौन दिलायेगा इन विषम स्थितियों से छूटकारा? मसीहा के इंतजार में बैठे रहने का वक्त बीत गया। अगर आप देश और समाज की बेहतरी की उम्मीद करते हैं, तो मौजूदा नेतृत्व पर ऐसा सिस्टम लागू करने के लिए दबाव बनाएं, जो तटस्थ होकर अपना काम करता जाए। हम सचमुच भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहते हैं और जवाबदेही और खुलेपन की नीतियां लागू करवाने के पक्षधर है तो वैसी मानसिकता को विकसित करना होगा। अपनी पसंद से कोई ईमानदार नहीं होना चाहेगा, बेईमानी से लडऩे की दीवानागी कहीं नहीं मिलेगी, यहां तक कि वोट की दावेदारी के लिए अच्छे उम्मीदवार भी हमें नहीं मिलेंगे। हम सिर्फ अपनी आवाज बुलन्द कर सकते हैं, जिसके जबाव में यही नेता कुछ नए कायदे लाएंगे और अनचाहे अपनी राह सुधारने को मजबूर होंगे। कोई देश या पार्टी अगर सक्षम नेता की कमी से मुरझा रही है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि नए नेता के बिना काम नहीं चलता, बल्कि यह है कि उसने अपने भीतर नेतृत्व का माहौल तैयार ही नहीं किया या ऐसी मानसिकता को जगह ही नहीं दी।
हमें अतीत की भूलों को सुधारना और भविष्य के निर्माण में सावधानी से आगे कदमों को बढ़ाना होगा। वर्तमान के हाथों में जीवन की संपूर्ण जिम्मेदारियां थमी हुई हैं। हो सकता है कि हम परिस्थितियों को न बदल सकें पर उनके प्रति अपना रूख बदलकर नया रास्ता तो अवश्य खोज सकते हैं। आने वाले चुनावों का सबसे बड़ा संकल्प यही हो कि राष्ट्रहित में स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करेंगे। राष्ट्र सर्वोपरि है और राष्ट्र सर्वोपरि रहेगा। व्यक्ति का क्या मूल और क्या विसात। विरोध नीतिगत होना चाहिए व्यक्तिगत नहीं। एक उन्नत एवं विकासशील भारत का निर्माण करने के लिये हमें व्यक्ति नहीं, मूल्यों एवं सिद्धान्तों को शक्तिशाली बनाना होगा।