जातीय बहस के तीखे प्रश्न 

 pushpendraपुष्पेंद्र कुमार।
रोहिथ वेमुला की दुखद आत्महत्या के बाद देशभर में जातीय पहचान और उसके अधिकारों को लेकर नई बहस शुरू हुई है। इस बहस का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह हमारे साझेपन को बेहतर तरीके से तराशने का काम करेगा। एक छात्र की मौत को एक दलित छात्र की मौत में बताया जाना इस रूप में ठीक है कि उसका आंदोलन, संवेदना व उसकी चेतना उसी जातीय पहचान से निर्मित है, उसकी भुक्तभोगी हैं, लेकिन सियासी दलों के लिए एक दलित छात्र की मौत चुनावतंत्र में वोटबैंक की चिंता से अधिक क्या है? रोहिथ की आत्महत्या को उसके आखिरी पत्र में व्यक्त किए गए भाव और तथ्य पर परखें तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि उनके मन में न कोई विरोध है, न प्रतिशोध बल्कि वे तो अपने खाली होने, एकांत के दुख में प्यार और संवेदना को न हासिल कर पाने को दस्तावेजी साहित्य का आकार दे रहे हैं। यह अपमानजनक होगा यदि रोहिथ के अंतिम पत्र में उनके अच्छे लेखक होने की छाप ढूंढ़ी जाए पर यह अंतिम पत्र समाज और संविधान के दावों व उपलब्धियों को बेपर्दा कर देता है। आखिर रोहिथ ने आत्महत्या क्यों की? रोहिथ के आखिरी पत्र के खुद उनके द्वारा काट-पीट दिए गए हिस्से की फॉरेंसिक जांच के बाद कुछ बातें और स्पष्ट हो जाएंगी लेकिन तथ्य यही है कि रोहिथ वामपंथी छात्र संगठन एसएफआई और अंबेदकर स्टूडेंट एसोसिएशन, दोनों के कामकाज से निराश थे।
वामपंथी पार्टियों और एसएफआई में ब्राह्मणवादी एकाधिकार की मौजूदगी से रोहिथ का दम घुट रहा था तो दूसरी ओर वे ‘एएसए’ को दिशाहीन होता देख रहे थे। या कहें कि दलित चेतना के आंदोलन के लिए कारण, औचित्य और परिणाम को लेकर समाज, सरकार, संगठन और विश्वविद्यालय सभी स्तर पर काबिज असंवेदनशीलता से उन्हें निराशा हुई। परिणाम है कि आंदोलनकारी छात्र दलितों को अब उनकी ‘अनटचेबिलिटी’ को सार्वजनिक तौर पर गर्व के साथ स्वीकार करने और कथित हिंदुत्व से मिले भेदभाव के खिलाफ चुनौती पेश करने को कह रहे हैं, जो सही है। रोहिथ की आत्महत्या निश्चित तौर पर भेदभावपूर्ण समाज व संस्थानों की असंवेदनशीलता का परिणाम है लेकिन उनके द्वारा पेश की गई चुनौतियां क्या हैं, क्यों हैं, इसे समझना महत्वपूर्ण है।
रोहिथ और उसके संगठन का भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी के साथ टकराव ‘याकूब मेनन को फांसी’ पर शुरू हुआ, जिसके अगले दिन ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के दिखाए जाने-न दिखाए जाने को लेकर और बढ़ गया। फेसबुक पर टिप्पणी, मारपीट-माफी, स्थानीय सांसद व एचआरडी मंत्री के पत्रों, एक्जीक्यूटिव काऊंसिल व दो जांच समितियों के निर्णय और अब एक दुर्भाग्यपूर्ण आत्महत्या के बाद निलंबन का रद्द होना, जांच समितियों का गठन आदि बातें टाइमलाइन में दर्ज हैं, लेकिन एक आदर्श स्थिति तो यही है कि किसी भी विश्वविद्यालय परिसर को सभी संभव, स्वीकार्य या अस्वीकार्य, विचारों की अभिव्यक्ति , चर्चा, वाद-विवाद का रंगमंच होना ही चाहिए। किसी को फांसी दिए जाने या न दिए जाने के विधिक व मानवीय पहलुओं पर चर्चा या विरोध प्रदर्शन करने में गलत कुछ नहीं है लेकिन क्या ‘एएसए’ ने दूसरे छात्र संगठनों को इसके लिए आमंत्रित किया? 23 लंबे सालों की न्यायिक प्रक्रिया में दोषसिद्ध एक आरोपी को फांसी दिए जाने का विरोध फांसी के प्रावधान के औचित्य तक ठीक है, लेकिन आतंकी याकूब पर भारत (राष्ट्र) पर हमला करने का दोष साबित है और देश में अधिकांश लोगों के लिए यह भावुक असुरक्षा का मसला भी है। एएसए समर्थकों ने आतंकी याकूब को शहीद बताकर अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ न्याय नहीं करते हैं, वहीं ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ को न दिखाए जाने को लेकर अड़े एबीवीपी के कार्यकर्ताओं को दूसरे छात्र संगठन के साथ मिल- बैठकर वह डॉक्यूमेंटरी देखनी चाहिए थी, न कि उन्हें राष्ट्रविरोधी ठहराना चाहिए था। असल में आतंकी याकूब को फांसी और ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ में महीन सामाजिक व मनोविज्ञानी गुणसूत्रों की प्रतिक्रियावादी बुनावट निहित है।
कथित दलित समाज की हर स्तर पर इतिहास में घोर उपेक्षा हुई है लेकिन हमारे आधुनिक संविधान ने मौलिक अधिकार के तहत उन्हें एकसमान नागरिक साबित करते हुए सामाजिक बराबरी के लक्ष्यों के लिए आरक्षण जैसे संविधानिक उपचार उपलब्ध कराए। हालांकि हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहिथ ने खुद सामान्य वर्ग से दाखिला लिया था लेकिन ऐसे उदाहरणों की भरमार है जिसमें कथित दलितों ने सामाजिक चेतना, बौद्धिक प्रतिस्पर्धा और आर्थिक स्वाबलंबन के क्षेत्र में नए कीर्तिमान रचे हैं। जातीय भेदभाव और छूआछूत से परे सामाजिक मेलजोल के उदाहरण बेशक अब अपवाद से आगे निकल आए हैं लेकिन वे बड़ी प्रवृति तो नहीं हैं। भेदभाव मौजूद है और कई जगहों पर बेहद कठोर भी है। हमें पता है कि किस तरह एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज जानबूझकर दलित छात्रों को साल दर साल फेल कर रही थी। यानी उपेक्षा और भेदभाव झेलने वाला दलित समाज न्यायपूर्ण बराबरी के लिए संविधान प्रदत अधिकारों से जितना हासिल कर पाया है, उससे वह संतुष्ट नहीं है। वे हताश नहीं, निराश हैं और इसलिए अपनी सामाजिक पहचान व हैसियत को आईडिया आॅफ इंडिया के लिए अपरिहार्य साबित करने के लिए चुनौती पेश कर रहे हैं। यह चुनौती याकूब को शहीद बताने और ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के जरिए आई है, जो ‘योग्यता बनाम आरक्षण’ और ‘राष्ट्रवाद बनाम बहुलतावादी भारत के विचार’ के जरिए सामाजिक प्रतिक्रिया के मनोविज्ञान को जाहिर करता है। यह और बात है कि प्रतिक्रिया के इन प्रतीकात्मक गुणसूत्रों में वह सियासी अवसर भी है कि इसे सेकुलरिज्म बनाम हिंदुत्व, दलित बनाम अन्य जैसी बहस बनाया जा सकता है।
यह जाहिर हो चला है कि कथित अगड़ी जातियां संविधान के नीति निर्देशक तत्व को एकमात्र आदर्श अध्याय मानने लगी हैं जो ‘आरक्षण से पीड़ित’ होने और ‘राष्ट्रवाद’ को कमजोर किए जाने के डर से उपजा है। वे नीति निर्देशक तत्वों के हवाले से जातिविहीन समाज और समान नागरिक संहिता की रोमानी दलीलें देते हैं लेकिन यह दोनों ही लक्ष्य समाज में अल्पसंख्यकों, दलितों व पिछड़ों के साथ हर स्तर पर भेदभाव के मौजूद रहते हुए हासिल किया जाना संभव नहीं है। जातिविहीन समाज एक आदर्श स्थिति है, यह यकायक नहीं आ सकता, न ही थोपा जा सकता है। जातीय पहचान से रहित समाज की स्थापना की एकमात्र शर्त यही है कि जातीय  व दूसरे भेदभाव को शिक्षा से लेकर संस्कार तक, व्यापार से लेकर विचार तक समाप्त कर, समान अवसर व यथाउपयुक्त सम्मान देकर ही जातियों की पहचान को लेकर आग्रह कम हो सकता है। जातीय पहचान को खत्म करना लगभग असंभव है लेकिन भेदभाव न होने पर वे पूर्वाग्रही नहीं होंगी। रोहिथ की आत्महत्या को, उसकी गंभीरता को किसी भी प्रकार कमतर न करते हुए यह भी जानना जरूरी है कि 2014 की रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने भारत को दुनिया की ‘आत्महत्या की राजधानी’ बता दिया। हैरान न हों कि इस बात पर कोई सियासत नहीं होती कि आखिर क्यों दुनिया भर में 15-29 साल के युवाओं में आत्महत्या के सबसे अधिक मामले भारत में क्यों पाए जाते हैं?
रोहिथ ने अपने आखिरी पत्र में लिखा कि उसका जन्म एक घातक दुर्घटना थी। जब कोई अपने जन्म को दुर्घटना समझने लगे तो यह हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का तकाजा है कि पड़ताल इस बात की हो कि इस मनस्थिति का कारण क्या है और इसे रोका कैसे जा सकता है। गरीब पृष्ठभूमि से आए किसी भी छात्र के लिए उच्च शिक्षा हासिल करना आज एक मुश्किल चुनौती है, लेकिन ऐसे हालात में विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में जातीय भेदभाव के कारण उपेक्षा, निराशा और हार मिलती है तो जाहिर है कि हम भारत के विचार और सपने के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। समस्या यह भी है कि हम अपने युवाओं के लिए उनकी योग्यता के सापेक्ष रोजगार और अवसर देने में विफल हो चुके हैं।  पर यह जिम्मेदारी का प्रश्न है और हमें उम्मीद नहीं है कि सियासी समुदाय आत्महत्याओं को उनके कारणों से जोड़कर देखने का सामर्थ्य रखते हैं। तो क्या सियासत भी आत्महत्या है?
 राजनीतिक विश्लेषक