भाजपा के लिए आत्ममंथन का वक्त

s.nihal singhएस. निहाल सिंह।
भारत के राजनेताओं के वक्तव्यों में जो मतभेद देखने को मिल रहा है वह परेशान करने वाला है। इसके मूल में भाजपा के दो अलग वर्ग हैं, जिनमें एक की सोच है कि आम जनता से जुड़े वे मुद्दे जो जनता के बीच अपील रखने की जोरदार संभावना रखते हैं, केवल उनको ही पार्टी की नीतियों में सम्मानजनक स्थान दिया जाना चाहिए जबकि दूसरी तरफ भाजपा और इसके मार्गदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वे लोग हैं जो इस बात में यकीन करते हैं कि सतही-से मामले जैसे कि कथित गो-रक्षा, भारत माता की जय और अन्य दकियानूसी सिद्धांतों का प्रतिपादन करवाना मूल रूप से उस भारत की परिकल्पना है, जिसका निर्माण वे करना चाहते हैं।
गनीमत है कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में इस बात को लेकर चेताया है कि सार्वजनिक तौर पर लोगों को उस तरह से भारत माता की जय का नारा लगाने पर बाध्य नहीं किया जाना चाहिए जैसा कि पिछले दिनों महाराष्ट्र विधानसभा में देखने को मिला जब एक विधायक को अध्यक्ष ने इस कारण निलंबित कर दिया था कि उसने यह नारा लगाने से मना कर दिया था। इसी तरह दिल्ली के एक मदरसे में पढऩे वाले एक बालक का हाथ इसलिए तोड़ दिया गया था कि उसने भी भारत माता की जय कहने में आनाकानी की थी। परंतु जब दिल्ली में हाल ही में संपन्न हुए भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में आधिकारिक तौर पर इस बात की पुष्टि हो गई कि इसमें एक प्रस्ताव पारित हुआ है कि भारत माता की जयघोष करना पार्टी की राष्ट्रवाद की परिभाषा का ही एक हिस्सा है तो इसके बाद बजरंग दल के नेतृत्व में आरएसएस के वे दबंग तत्व सक्रिय हो उठे हैं जो हिंदुत्व विचारधारा को विशुद्ध रूप में लागू करवाने की खातिर कानून को अपने हाथ में लेने से गुरेज नहीं करते।
जो सवाल इस वक्त किया जाना उचित होगा वह यह है कि यह सब देश को किस दिशा में ले जाएगा? अपनी विचारधारा को दूसरों पर थोपने में मिली आत्मतुष्टि की एवज में क्या भाजपा और आरएसएस देश की आर्थिक उन्नति और जनकल्याण की बलि चढ़ा देंगे? जिस तरह समाज को धर्म-जाति के नाम पर बांटा जा रहा है, क्या वह मोदी के उन भाषणों के अनुरूप है जो आम चुनाव के प्रचार के दौरान हर स्तर पर नरेंद्र मोदी ने किए थे और जिसमें देश का चहुंमुखी विकास करवाने जैसे अनेक वादे किए गए थे, क्या ये सब उस खुशनुमा राजनीतिक माहौल का अवशेष बनकर रह जाएंगे?
ये सब नागरिकों के मन में लगातार बढ़ रही उस भावना का प्रतीक हैं, जिन्होंने सालों तक चले कांग्रेस के ढीले-ढाले राज से तंग आकर मोदी के उद्भव का स्वागत किया था। लेकिन यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है कि चुनाव उपरांत एक नई पार्टी नए सिरे से राजकाज संभाले और बन चुके मकडज़़ाल को खत्म करे। कम शब्दों में कहें तो मोदी सरकार के दो साल के राज में लोगों के मन में यह घबराहट भर गई है कि उनकी सरकार का मुख्य ध्येय असल में है क्या? और क्या भाजपा और आरएसएस देश की आर्थिक उन्नति के स्थान पर अपने विचारों को लागू करवाने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। साधारण बुद्धि वाला इनसान भी यह जानता है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में कोई भी ऐसा काम जो सांप्रदायिक या जातीय फूट को बढ़ावा देता हो, वह देश की एकता के ताने-बाने में छेद करने जैसा है।
अवलोकन की शुरुआत यदि सरकार से करें तो खुद मोदी समेत अधिकांश मंत्री आरएसएस की मिथकों भरी पौधशाला में पले-बढ़े एक बूटे हैं। कुछ मामलों में, जैसे कि भारत माता की जय वाले प्रकरण में, आरएसएस ने राजनेताओं की लगाम भी कसी है। लेकिन सरकार में किसी की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह आरएसएस के सिद्धांतों पर किंतु-परंतु कर सके।
मोदी की नवीनतम विदेश यात्रा के बाद यह समय उपयुक्त होगा कि भाजपा और आरएसएस यह चिंतन करें कि सरकार की कारगुजारी वास्तव में अब तक क्या रही है? राज्यसभा में अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने के फेर में केंद्र सरकार को जल्दबाजी में ऐसे राजनीतिक निर्णय नहीं लेने चाहिए जैसा कि उत्तराखंड के ताजा प्रकरण में देखने को मिला है।
सच तो यह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की लंबी आयु इस बात पर निर्भर करती है कि अपनी गलतियों पर वह कितना आत्मविश्लेषण करता है। सरकार को अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं को हर हालत में अनुशासित करते हुए उन्हें ऐसा माहौल बनाने से रोकना होगा जिसमें पशुधन ले जाने वाले तथाकथित संदिग्धों को पीट-पीटकर मार दिया जा रहा है। अपनी विचारधारा से असहमति रखने वालों को गद्दार ठहराया जा रहा है और गोमांस खाने वालों को पाकिस्तान में धकेलने की धमकी दी जा रही है।
यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन सभी घटनाओं की भर्त्सना विशेषकर नहीं कर सकते, जिसमें तोडफ़ोड़ या हत्या हुई हो लेकिन सभाओं के दौरान असहिष्णुता के मुद्दे पर वे कोई टिप्पणी करने से बचते नजर आते हैं, इससे जनता के बीच क्या संदेश जाता है? इसके दो मायने हो सकते हैं। एक तो, जो कुछ भी उनकी पार्टी और मंत्रिमंडल के सदस्य कर रहे हैं, उसकी मूल भावना में मोदी खुद भी यकीन रखते हैं और दूसरा यह कि इस बाबत आरएसएस से आए निर्देशों के चलते ऐसे तत्वों के खिलाफ कुछ भी कार्रवाई करने की शक्ति उनके हाथ में नहीं है। यह सरकार की साख के लिए ठीक नहीं होगा।
केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के जो कयास लगाए जा रहे हैं, हो सकता है उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं, परंतु नीति निर्धारण और सिद्धांत संबंधी मामलों में यदि वे किसी तरह की देरी करते हैं तो यह देश के भविष्य के लिए घातक होगा। एक वक्त बीत जाने के बाद जनता विकास, मेक-इन-इंडिया, स्वच्छ भारत जैसे खोखले नारों से तंग आ जाती है।
एक तरह से देखा जाए तो भाजपा के बनिस्पत आरएसएस की जिम्मेवारी ज्यादा बनती है क्योंकि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत वर्ण व्यवस्था, आरक्षण और उन तमाम समस्याओं पर जिन्हें भाजपा-नीत सरकार हल नहीं कर सकती, सही सोच रखते हैं।
मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल के दौरान राम-राज्य बनाने का विचार रखने की बजाय मोहन भागवत को चाहिए कि वे दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य पर ध्यान दें। उनका यह वक्तव्य कि भारत माता की जय बोलने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जाना चाहिए, एक उत्साहवर्धक संकेत है, लेकिन भाजपा अभी भी अपने रुख पर कायम है और वह भारत माता की जय को राष्ट्रवाद का पर्याय बताते हुए और तिरंगा ओढ़कर कई राज्यों में होनेे वाले विधानसभा चुनावों में फायदा उठाना चाहती है। वैसे कालांतर में भी अपने-अपने हितों को लेकर भाजपा और आरएसएस में मतभेद रहा है। अगले कुछ हफ्तों में नहीं तो महीनों में हमें यह पता चल जाएगा कि क्या भाजपा और इसके गुरु ने अक्लमंदी की कोई आवाज सुनी भी है या नहीं?