अफगानिस्तान में भारत की बड़ी भूमिका

narendra-modi5अशोक के.मेहता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान में दिसंबर 2015 को काबुल में और जून 2016 को हेरात में दिए अपने भाषणों में जब यह प्रतिबद्धता दोहराई थी कि हालात कितने भी विपरीत क्यों न हों, भारत फिर भी अफगानिस्तान के साथ खड़ा रहेगाÓ तो उनके इस कथन ने अफगान लोगों का दिल जीत लिया था। मगर हेरात की परियोजनाओं और वहां काम रहे भारतीयों की सुरक्षा की खातिर अपने सैनिक तैनात करने की संभावना को भारत ने सिरे से खारिज कर दिया था। इस्लामाबाद में दिसंबर 2015 में आयोजित हुई हार्ट-ऑफ-एशिया कांफ्रेंसÓ में बोलते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि भारत अफगान राष्ट्रीय सेना को सुदृढ़ करने के काम में मदद करेगा। इसके मद्देनजर अफगानी सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षण और गैर-घातक उपकरण भी मुहैया करवाए गए थे। आगे चलकर अफगान सरकार के जोर देने पर भारत ने उसे उपयोगी सैन्य उपकरण और अटैक हेलीकॉप्टर भी प्रदान किए हैं। अफगानिस्तान की आर्थिक मदद करने के अलावा उसके संस्थागत और क्षमतावर्धक कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर भारत अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा लोकप्रिय देश है। लेकिन अफसोस की बात है कि भारत इस दोस्ताना माहौल को वहां अपने राजनीतिक प्रभाव में बदलने में नाकामयाब रहा है। हालांकि वह भारत ही था, जिसके साथ वर्ष 2011 में अफगान सरकार ने अपनी सबसे पहली सामरिक सहयोग संधि की थी।
अफगान लोग पूछते हैं कि उसकी सुरक्षा के लिए भारत कितनी दूर तक जाने को तैयार है। अभी तक उसने जितनी मात्रा में सैन्य सहयोग की मांग हमसे की है, उसका अंशमात्र ही हम मुहैया करवा पाए हैं। सच तो यह है कि भारत चाहता है कि अमेरिका और नाटो संधि के सदस्य देश अफगानिस्तान को दी जाने वाली सैन्य मदद को बरकरार रखें। लेकिन क्या भारत के लिए संभव है कि वह आर्थिक सहायता और विकास परियोजनाओं में मदद से परे जाकर किसी आपात स्थिति में अफगानिस्तान की धरती पर अपने सैनिक तैनात करने जैसी कार्रवाई करने के लिए भी तैयार होगा? विगत में अमेरिका ने भारत से अनुरोध किया था कि वह इराक में अपने सैनिक भेजे और अफगानिस्तान के संदर्भ में भी वह अकसर ऐसा कहता आया है। लगता है अब समय आ गया है कि भारत अफगानिस्तान में कोई पहल करे क्योंकि हमारे और अमेरिका के हित अब एक समान होते जा रहे हैं। अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह-सफाई करवाने की खातिर पाकिस्तान-समर्थित वार्ता-प्रक्रिया की बैठक हुई लेकिन यह बेनतीजा रही और इसके तुरंत बाद हुए अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान नेता मुल्ला अख्तर मंसूर क्वेटा में मारा गया। अफगान-पाक सीमा को लेकर तैनात किए गए विशेष अमेरिकी दूत रिचर्ड ऑलसन ने अपने देश की विदेश मामलों की संसदीय समिति के सदस्यों को बताया है कि वार्ता भंग करने की एवज में तालिबान को नतीजे भुगतने ही होंगे। इसी तरह राष्ट्रपति ओबामा ने भी मंसूर को शांति स्थापना में एक बड़ी बाधा बताया था। अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान से इस बात को लेकर खफा है कि वह तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई न करके पिछले एक दशक से ज्यादा समय से अपना स्वार्थ साध रहा है। अमेरिका ने पाकिस्तान को दिए जाने वाले एफ-16 लड़ाकू हवाई जहाजों की बिक्री पर रोक लगाकर उसे दी जाने वाली सैन्य सहायता पर फिलहाल रोक लगा दी है।
पिछले दिनों सीमा पर पाकिस्तानी फौज से हुई अफगान सेना की झड़पें, काबुल में विस्फोटक भरे ट्रक से किए धमाके और नेपाली और अफगानी सुरक्षा सैनिकों को निशाना बनाकर किए आत्मघाती बम-हमलों की वजह से अफगान लोग पाकिस्तान से खासे नाराज हैं। अफगानिस्तान के उप-विदेश मंत्री हिकमत करजई ने कहा है कि उनका देश इस सिलसिले में पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में घसीटने पर विचार कर रहा है। उधर संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि महमूद सैकल ने पिछले महीने पाकिस्तान पर यह आरोप लगाया था कि वह इस क्षेत्र में सक्रिय आतंकी संगठनों की भरपूर मदद कर रहा है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को एटमी करार करने और एफ-16 जहाजों को हासिल करने में जोर लगाने की बजाय इन गुटों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए।
आज पाक अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा अलोकप्रिय देश है। शांति वार्ता और नेतृत्व के मसले को लेकर तालिबान में भी आपसी फूट पड़ गई है। पूर्व में तालिबान शासन के दौरान मुख्य न्यायाधीश रहे और धार्मिक उलेमा मौलवी हैबतुल्लाह अखूनजादा को तालिबान का नेता स्थापित किए जाने का विरोध करने वाले मुल्ला रसूल का भी तालिबान में खासा आधार है। उसके वफादार देश के दक्षिण हिस्से में सशस्त्र संघर्ष पर आमादा हैं। पहले ही संबोधन में मौलवी हैबतुल्लाह ने विदेशी सैनिकों को अफगानिस्तान छोड़कर चले जाने की चेतावनी जारी कर दी है।
इन गर्मियों में तालिबान द्वारा चलाये गये ऑपरेशन उमरी का मकसद क्षेत्रीय सरकारी मुख्यालय समेत देश के ज्यादा से ज्यादा हिस्से को अपने नियंत्रण में लेने का था ताकि शांति-वार्ता में मोल-भाव करने में आसानी रहे। अफगान राष्ट्रीय सेना पर रोजाना लगभग दो या तीन हमले किए जा रहे हैं और हर हफ्ते में इस बल के औसतन 30 से 40 जवान जख्मी हो रहे हैं। अफगानिस्तान के 38 जिलों पर तालिबान का लगभग पूर्ण नियंत्रण है और 43 अन्य के लिए यह जी-जान से लगा हुआ है और 2001 के बाद से लेकर जितना इलाका आज इसके कब्जे में है, वह सबसे ज्यादा है। अमेरिकी सैन्य कमांडरों ने यह स्वीकार किया है कि अफगान सेना को दी जाने वाली हवाई सुरक्षा छतरी को हटाने के अलावा तालिबान का पीछा करने के लिए सैनिकों की उपलब्धतता बढ़ाने की खातिर राजमार्गों पर स्थापित जांच चौकियां हटाकर उन्होंने भारी गलती की है। अब अमेरिकी प्रशासन ने तालिबान के विरुद्ध हवाई हमले करने की इजाजत दे दी है।
पिछले महीने विशेष दूत ऑलसन ने वाशिंगटन में कहा कि अकसर तालिबान एक कहावत बोलते हैं-अमेरिकी फौजियों के पास घडिय़ां हैं लेकिन आने वाला समय हमारा ही है और अब उन्हें इसमें तबदीली कर लेनी चाहिए। ऑलसन ने आगे कहा कि तालिबान को यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि अमेरिका अफगानिस्तान को उनके रहमोकरम पर छोड़कर चला जाएगा। जैसा कि पहले विचार था कि 2016 के अंत तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की गिनती 9,800 से घटाकर 5,500 कर दी जाएगी, अब यह निर्णय त्याग दिया गया है। अमेरिका और उसके सहयोगी अपने उस निर्णय पर कायम हैं, जिसमें 2020 तक अफगानिस्तान राष्ट्रीय सेना को सालाना 3 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता देना तय हुआ था।
ऑलसन ने यह भी कहा कि भारत और ईरान दो ऐसे देश हैं, जिनके हित अफगानिस्तान से जुड़े हुए हैं और जब भी जहां भी शांति वार्ता शुरू होगी, इन दोनों को इसमें शामिल किए जाने की संभावना है। अफगानिस्तान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए भारत को अफगान फौज को सैन्य प्रशिक्षण देने, सैन्य सहायता देने के काम में बढ़ोतरी करनी होगी।
अब चूंकि साफ हो चुका है कि अमेरिका अफगानिस्तान को एकदम से छोड़कर नहीं जाने वाला और भारत उसके साथ खड़ा है, इससे तालिबान और उसका पालन-पोषण कर रही पाकिस्तानी सेना को सपष्ट संकेत मिल जाएगा। ऐसी स्थिति में तालिबान शांति वार्ता की मेज पर आने के लिए तैयार होंगे। यह भी साफ है कि अमेरिकी प्रशासन वार्ता के लिए पाकिस्तान पर निर्भरता से परे की संभावनाओं को तलाश रहा है। शांति प्रक्रिया को बंधक बनाने की पाकिस्तान की समर्था को पलीता लगाने के लिए दोनों देशों को संयुक्त रूप से अफगान राष्ट्रीय सेना को सुदृढ़ करना होगा। वांछित आतंकियों पर कहर बरपाने वाले ड्रोन-हमलों ने यह दिखा दिया है कि भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों की इबारत नया रूप लेती जा रही है।