आफत बन गई राहत की बरसात

mumbai rainपंकज चतुर्वेदी।
जहां अभी कल तक सूखे का दर्द था, आज बरसात कहर बन गई है। जिसने खेत जोते व बोये, उसे बीज नष्ट होने का डर सता रहा है। याद हो कि मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश के लगभग 14 जिलों में फैले बुंदेलखंड के सैकड़ों गांव बीते आठ महीने से पानी की कमी के चलते वीरान हो गए थे। लेकिन इस बार आषाढ़ के पहले ही पक्ष में दो दिन ऐसा पानी बरसा कि बाढ़ के हालात बन गए, जो प्रशासन अभी तक सूखा राहत का गणित लगा रहा था, अब नाव, रस्सी व बाढ़ से उबरने की जुगत में लग गया है। बारिश से उपजी तबाही में प्रकृति का असामयिक तेवर तो है ही, इंसान ने आफत को खुद बुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आमतौर पर शांत कही जाने वाली छोटी-सी नदी केन अचानक क्यों उफन गई? वास्तव में यह इस नदी के जल ग्रहण क्षेत्र के पर्यावरण के साथ किए जा रहे छेड़छाड़ का ही नतीजा है।
केन बांदा में खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। पन्ना जिले में कई गांव इसकी चपेट में आकर पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। केन नदी जबलपुर के मुवार गांव से निकलती है। पन्ना की तरफ 40 कि.मी. आकर यह कैमूर पर्वतमालाओं के ढलान पर उत्तर दिशा में आती है। तिगरा के पास इसमें सोनार नदी मिलती है। पन्ना जिले के अमानगंज से 17 किमी दूर पंडवा नामक स्थान पर छह नदियों—मिठासन, बंधने, फलने, ब्यारमा आदि का मिलन केन में होता है और यहीं से केन का विस्तार हो जाता है। यहां से नदी छतरपुर जिले की पूर्वी सीमा को छूती हुई बहती है।
छतरपुर जिले की गौरीहार तहसील को छूती हुई यह नदी बांदा (उ.प्र.) जिले में प्रवेश करती है। रास्ते में इसमें बन्ने, कुटनी, कुसियार, लुहारी आदि इसकी सहायक नदियां हैं। बांदा जिले में इसके बाएं तट पर चंद्रावल नदी और दाएं तट पर मिरासन नाला आ जुड़ता है। कोई 30 हजार वर्ग किमी जल-ग्रहण क्षमता वाली इस नदी को 1906 में सबसे पहले बांधा गया। खजुराहो से कुछ ही किलोमीटर दूरी पर स्थित सन् 1915 में बना गंगउ बांध इतना जर्जर हो चुका है कि किसी भी समय उसमें जमा अथाह जल-निधि दीवारें तोड़कर बाहर आ सकती हैं। सनद रहे कि मध्यप्रदेश के छतरपुर की सीमा में पांच ऐसे बांध है जिनका मालिकाना हक उ.प्र. का है। लिहाजा इनमें जमा पानी तो उ.प्र. लेता है, लेकिन इनसे उपजे संकटों जैसे सीलन, दलदल, बाढ़ आदि को म.प्र. झेलता है।
म.प्र. में केन और सिमरी नदी के मिलन स्थल पर बना गंगउ बांध गत कई सालों से बेकार घोषित हो चुका है। ऐसा नहीं है कि गंगउ की जर्जर हालत के बारे में उ.प्र. सरकार को जानकारी नहीं है। चूंकि बांध के मुख्य हिस्से संरक्षित वन क्षेत्र ‘पन्ना राष्ट्रीय वनÓ में आते हैं, सो सुप्रीम कोर्ट से इसकी मरम्म्त की अनुमति ली गई थी। कहा जाता है कि राज्य सरकार के पास बजट की कमी थी और मरम्मत का काम कामचलाऊ किया गया।
बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘केनÓ है। बुंदेलखंड सदैव से बाढ़ सुरक्षित माना जाता रहा है। गत डेढ़ दशक से केन अप्रत्याशित ढंग से उफन रही है, और पन्ना, छतरपुर और बांदा जिले में जबरदस्त नुकसान कर रही है। केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है। उधर, केन और उसके सहायक नालों पर हर साल सैकड़ों ‘स्टाप-डेमÓ बनाए जा रहे हैं, जो इतने घटिया हैं कि थोड़ा ही जल संग्रहण होने पर टूट जाते है। केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘स्टाप-डेमोंÓ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है। पन्ना जिले में इटवांखास गांव के पास निर्माणाधीन सिरस्वाहा बांध और बिलखुर बांध पहली ही बरसात में कच्ची मिट्टी के घरौंदों की तरह ढह गए हैं। फिर इस बार बरसात का जल रोकने के नाम पर गांव-गांव में खूब चैक डेब बना दिए गए, न तो उसकी डिजाइन का ध्यान रखा गया और न ही गुणवत्ता का। जो पहली बरसात हुई, ये संरचनाएं बह गई व इससे नदियों में पानी का वेग तेज हो गया। बेतरतीब रेत निकालने और पत्थर निकाल कर स्टोन क्रशर में डालने, नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वनस्पति कम होने और नंगे पहाड़ों से जम कर मिट्टी बहने के चलते इलाके की नदियां पहले ही उथली हो गई हैं।
यह भी तथ्य है कि साथ ही केन की राह पर स्थित पुराने ‘ओवर-एजÓ हो गए बांधों में भी टूट-फूट होती है। यानी केन क्षमता से अधिक पानी लेकर यमुना की और लपलपाती है। वहां का जल स्तर इतना ऊंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है। रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे धकेलती है। इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं बढ़कर गांवों-सड़कों-खेतों तक पहुंच जाती हैं।
ऐसे हालातों से निपटने के लिए इलाके के पारंपरिक तालाबों को गहरा कर उनके जल ग्रहण क्षेत्र को कब्जों से मुक्त करना, केन व उसकी सहायक नदियों की गहराई पर ध्यान देना, मुख्य नदी को तालाबों से जोडऩा आदि ऐसे उपाय है जो कि बुंदेलखंड को प्राकृतिक आपदाओं की दोहरी मार से बचा सकते हैं।