टूटे संकीर्ण सोच के खिलाफ चुप्पी

s.nihal singhएस. निहाल सिंह।
बेशक सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने दलित-विरोधी ज्यादतियों का आविष्कार नहीं किया है लेकिन गुजरात के ऊना में जो कुछ हुआ, उसके लिए वह दो वजहों से उत्तरदायी है। पहली, नई किस्म की राजनीतिक भाषणबाजी और नारे, जिनमें न केवल इतिहास को संकीर्ण और पक्षपाती दृष्टि से देखने की वकालत की जा रही है बल्कि यह भी बताया जा रहा है कि असल में भारत है क्या। दूसरा कारण है हिंदुत्व का प्रचार, इसके तहत पार्टी के तथाकथित जिम्मेवार पदाधिकारी तक इस तरह के अनर्गल बयान देते हैं जो ऐसे फतवों के लिए माहौल बनाने में मुफीद होते हैं, जिसमें यह हिदायतें दी जाती हैं कि लोगों की जीवनशैली किस प्रकार की हो।
ऊना कांड इसलिए भी लोगों के जहन पर छा गया क्योंकि जिस तरीके से दलितों की सरेआम पिटाई की गई है, वह बहुत व्यथित करने वाली है। इस तरह की प्रवृत्ति अतिवादी सिद्धांतों से बनती है जिन्हें आमतौर पर रोजमर्रा प्रचारित किया जाता है। ये लंबे समय तक व्यवहार में रही समतामूलक सोच के विरुद्ध है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर सोशल साइट ट्विटर पर अलग-अलग विषयों पर तुरत-फुरत अपनी टिप्पणियां डाल दिया करते हैं, परंतु अब ऊना के इस संगीन प्रकरण पर कुल मिलाकर वे चुप्पी साधे हुए हैं। उनके बचावकर्ताओं का कहना है कि उनकी यह ‘नीतिगत चुप्पीÓ इसलिए है ताकि इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण को और ज्यादा तूल न मिले, किंतु इस दलील से कम ही लोग इत्तफाक रखते हैं।
मोदी की चुप्पी के पीछे दरअसल दर्शन और सिद्धांतों को लेकर बनी दुविधा है क्योंकि संघ की एक मूल आस्था के मुताबिक वे खुद भी गऊ को पवित्र मानते हैं और साथ ही संघ के इस विचार का भी प्रतिपादन करते हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग मूलत: हिंदू हैं। हालांकि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी इन मान्यताओं को एक तरफ रखा था, चूंकि मोदी आरएसएस के कंधों पर चढ़कर दिल्ली के तख्त पर बैठ सके हैं। इसलिए वे सरसंघचालक मोहन भागवत के खिलाफ नहीं जा सकते।
व्यावहारिक धरातल पर भाजपा का मुख्य समर्थक वर्ग खासकर ग्रामीण अंचल से आने वाले ऐसे लोग हैं जो ज्यादातर हिंदुओं में प्रचलित पुरानी सोच और पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं। मोदी सरकार की एक समस्या यह भी है कि इसके ज्यादातर नेता ऐसे परिवेश से हैं जो न सिर्फ आधुनिक व्यवहार से अनजान हैं बल्कि अपने विचार ठेठ गंवई भाषा में देकर राजनीतिक भाषणों को निम्नतम स्तर पर ले जाते हैं। देशभर में किए जा रहे प्रदर्शनों के जरिए जो दलित गुस्सा आज हम महसूस कर रहे हैं, वह सदियों से दबे-कुचलों में अपने अधिकारों के प्रति आई नई जागरूकता का परिणाम है और यह स्थिति मायावती की बहुजन समाज पार्टी को फायदेमंद तो भाजपा को महंगी पडऩे वाली है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने जो धर्म-निरपेक्षता की प्रवृत्ति अपनाई थी और इसे आगे प्रोत्साहित किया था, मौजूदा सत्तारूढ़ दल खासतौर पर उससे दुराग्रह रखता आया है। यह भी सच है कि मोदी ने विगत के बड़े प्रतीकों महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल को अपनाने में जरा देर नहीं की और हाल ही में उन्होंने दलितों के सबसे कद्दावर प्रतीक डॉ. भीमराव अंबेडकर को भी अपनाने की कोशिश की है। लेकिन ये नए अधिग्रहण संकीर्ण सोच के कारनामों की वजह से मजाक बनकर रह गए हैं, जिसकी नवीनतम कड़ी में मध्य प्रदेश में दो मुस्लिम औरतों को कथित तौर पर गो-मांस ले जाने के आरोप में मारा-पीटा गया है।
एक तरह से देखा जाए तो ऊना-कांड इतिहास में एक मोड़ की तरह बनकर उभरा है। इस कांड की बनाई गई फिल्म में दलित युवकों की सरेआम पिटाई लंबे अर्से तक लोगों के जहन में ताजा रहेगी।
देश को चलाने में मोदी सरकार और संघ परिवार ऊना-कांड के नतीजों से कैसे निपटेंगे? साफ कहें तो मोदी और भागवत को अपनी दुविधाओं से पार पाने के लिए आपस में बैठकर गहन विचार-विमर्श करने की जरूरत है। इस तरह की घटनाओं में मूकदर्शक बने रहने पर पुलिस की भर्त्सना करना बेमानी है क्योंकि वह खुद भी उन सिद्धांतों से विस्मित है, जिनका प्रचार इसके नए राजनीतिक आका कर रहे हैं।
समस्याओं पर मिल-बैठकर राष्ट्रीय स्तर पर खुली बहस करने की संभावना आज की तारीख में दिखाई नहीं देती क्योंकि मोदी जल्दी-जल्दी होने वाले हरेक विधानसभा चुनावों के प्रचार में स्वयं कूद पड़ते हैं जहां वे अपने विरोधियों के खिलाफ सतही भाषा के इस्तेमाल से राजनीतिक वातावरण को और ज्यादा गंदला कर देते हैं। इस फेर में वह अपने राष्ट्रीय नेता होने की छवि को धूमिल कर देते हैं। विचार-विमर्श की बात करें तो निजी समाचार चैनलों पर होने वाली रात्रि-बहस अकसर चीखने-चिल्लाने की प्रतियोगिता बनकर रह जाती है।
मोदी काफी जल्दबाजी में हैं क्योंकि वे राज्यसभा में भी अपने दल का बहुमत कम-से-कम समय में पाना चाहते हैं। राज्यों के चुनाव प्रचार में निभाई जाने वाली इस विरोधाभासी भूमिका के चलते ही मोदी शायद उस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ करवाने की मांग की जा रही है। उधर, कांग्रेस ने एकदम साफ कर दिया है कि भाजपा द्वारा उसकी भर्त्सना करना और संसद के दोनों सदनों में समर्थन पाने की चाहत एकसाथ नहीं चल सकते।
दलितों के उत्पीडऩ के कृत्यों से उत्पन्न हुई लोक सहानुभूति ने अब उनके अंदर साहस की भावना भर दी है। दलितों की नई पीढ़ी उस बेइज्जती को सहने के लिए कतई तैयार नहीं है जो उनके पुरखों को सहनी पड़ती थी।
अंबेडकर ने अपने लोगों का आक्रोश नाटकीय रूप से प्रतीकात्मक बनाते हुए उन्हें सामूहिक रूप से बौद्ध धर्म अपनाने को कहा था। तथ्य तो यह है कि अगर अंबेडकर का पोता भी आज की तारीख में ठीक वैसा ही आह्वान करता नजर आ रहा है तो यह संकेत है कि कैसे कट्टरपंथी सोच वंचितों पर अपना शिकंजा अभी भी कायम रखने पर बजिद है।