नेशनल इन्कम टैक्स डे: बिना भारत की आय बढ़ाए बेमानी हैं बड़ी बातें

tax-day
मनीष खेमका। देश में टैक्सपेयर्स का टोटा है। 126 करोड़ स्वाभिमानी हिन्दुस्तानियों में से करीब 3.5 करोड़ ही इनकम टैक्स देते हैं। याने सौ नागरिकों में से सिर्फ तीन। जबकि और देशों में यह आंकड़ा 10-40 से लेकर 75 प्रतिशत तक आधिक है। वास्तव में अपने देश की यह दशा गंभीर चिंता और खेद का विषय है।
बिना भारत की आय बढ़ाए बड़ी-बड़ी बातें बेमानी हैं। पैसा कहां से आएगा विकास और कल्याणकारी योजनाओं के लिए? लेकिन कुछ लोग हैं जो टैक्स की बात सुनते ही त्योरियां चढ़ा लेते हैं। राजनेता जब सत्ता से बाहर होते हैं तो इस मुद्दे पर राजनीति से बाज नहीं आते। जनता को मुफ्तखोरी के लिए उकसाते हैं। राजस्व रोकने के हर हथकड़े अपनाते हैं। ताकि सरकार पर दबाव बना सकें। वे जानते हैं भीड़ को बिजली-पानी के बिलों पर बरगलाना आसान है।
जमाने पहले महात्मा गांधी ने भी कुछ ऐसा ही किया था। लेकिन उनका उद्देश्य पवित्र था। निष्ठा संदेह से परे थी। वर्षो के अनुभव और चिंतन के बाद उन्होने पाया कि नमक पर टैक्स ही एक ऐसा अचूक अस्त्र है जिससे जनता में देशभक्ति का जुनून पैदा कर ब्रिटिश हुकूमत को नेस्तनाबूद किया जा सकता है। नमक पर पहला लेख उन्होंने 14 फरवरी 1871 को ”द वेजीटेरियनÓÓ में लिखा। तब वे बाइस साल के नौजवान थे। 12 मार्च सन 1930 में उन्होंने दांडी यात्रा शुरू की। यह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक अभियान था। एक-एक कदम सोचा समझा और खरा। उन्होंने कहा ”मैं किसी भी कीमत पर गिरफ्तार होना चाहता हूं। मेरा लक्ष्य है नमक पर टैक्स को खत्म करना।ÓÓ वे अपने साथ महिलाओं को नहीं ले गए। ताकि अंग्रेज भीड़ पर सख्ती करने से हिचके नहीं। उन्होंने रास्ते में पडऩे वाले हर-एक गांव की बारीक जानकारियां जुटा रक्खी थी। वहां की जाति, आबादी, महिलाएं, पुरूष यहां तक की जानवरों की संख्या भी। आज की परिस्थितियों के अनुसार कहें तो तब का नमक आंदोलन भी ”जुमलाÓÓ ही था गांधी जी का। जिससे उन्होंने पूरे देश को एक जुट करने में सफलता पाई। लेकिन मजे की बात मुख्य मुद्दा तो छूट ही गया। ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता साक्ष्य है कि अंग्रेजो ने भारतवासियों को सिवाय झुनझुने के कुछ नहीं दिया। देने भी कैसे, क्योंकि तब के कुल अस्सी करोड़ राजस्व में से ढाई करोड़ अकेले नमक से आता था। नमक पर टैक्स बदस्तूर आजादी तक जारी रहा। वास्तव में नमक भारत ही नहीं प्राचीन विश्व में राजस्व जुटाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है। क्या ब्रिटेन-क्या जापान, कम ही देश होंगे जिन्होंने नमक पर कर न लगाया हो। कभी चीन की आधी आय नमक के कर से आती थी। चीन की महान दीवार उसी टैक्स की देन है।
संयुक्त राष्ट् की दोहा घोषणा के मुताबिक सदी में गरीबी उन्मूलन और विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए विकासशील देशों को जीडीपी का कम से कम 20 प्रतिशत राजस्व प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में हासिल करना ही होगा। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक भारत में यह सिर्फ 10 प्रतिशत है। जबकि यही अनुपात वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, सिंगापुर और श्रीलंका जैसे देशों में करीब 15 प्रतिशत या अधिक है। विकसित देशों में यह 40 प्रतिशत के करीब है।
न केवल जीडीपी और राजस्व अनुपात बल्कि टैक्सपेयर्स की संख्या के लिहाज से भी भारत में सुधार की जबरदस्त संभावनाएं हैं। पौने तीन करोड़ की आबादी वाले नेपाल और दो करोड़ की आबादी वाले श्रीलंका जैसे देश इस मामले में हमे पीछे छोडऩे के प्रयास में लगे हैं। रूस, चीन और ब्राजील हमसे दो गुने से भी आगे हैं। जबकि टैक्सपेयर्स की यही संख्या सिंगापुर में 39 प्रतिशत, अमेरिका में 53 प्रतिशत और न्यूजीलैंड में 75 प्रतिशत तक अधिक है। माना की हमारी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां औरों से भिन्न हैं। लेकिन इस आंकड़े पर कौन भरोसा करेगा कि भारत में एक करोड़ से ज्यादा कमाई करने वाले सिर्फ 42800 महानुभव ही मौजूद हैं। यह हास्यास्पद ही है। हम ज्यादा नहीं तो देश में टैक्सपेयर्स का आधार दो गुना या 10 प्रतिशत तक तो कर ही सकते हैं। लेकिन यह होगा कैसे ? पिछले दिनों शीर्ष आयकर अधिकारियों की एक बैठक में वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने निर्देश दिए कि हर माह 25 लाख नए करदाता जोड़े जाएं। याने साल में 3 करोड़। आजादी के बाद से 3.5 करोड़ करदाता तक पहुंचने में हमने 68 साल लगा दिए। किसी इनोवेटिव व प्रभावी कार्य योजना के अभाव में जानकार इस अति महत्वाकांक्षी घोषणा को ज्यादा तरजीह देने को तैयार नहीं। उनके अविश्वास के प्रभावी कारण भी हैं। दशकों से पुराने ढर्रे पर चली आ रही हमारी शासन व्यवस्था में नया कुछ भी नहीं। मोदी के प्रयासों के परिणाम आने में अभी वक्त है। जबकि श्रीलंका और एक प्रतिशत से भी कम करदाता वाले बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसे हमारे कमतर पड़ोसी करों की समुचित उगाही के लिए रचनात्मक कार्यों में जुटे हैं। ये सभी अपने कमाऊ पूतों के साथ सम्मान से पेश आ रहे हैं। टैक्स कार्ड जैसे कार्यक्रमों के जरिए अनेक सुविधाएं देकर नए करदाताओं को आकर्षित कर रहे हैं। केनिया, फिलीपींस, साउथ कोरिया, मलेशिया, फिनलैंड और एस्टोनिया के तो कहने ही क्या। वे भी निरन्तर टैक्स इनोवेशन से जनता को राहत और देश की आय बढ़ाने के जुगाड़ में जुटे हुए हैं।
वहीं भारत के आयकर अधिकारी करदाताओं पर अपना भरोसा नहीं बल्कि भय कायम करने में कसर नहीं छोड़ रहे। भारी करों से भयाक्रांत जनता को और भयभीत करने के लिए 2013-14 में आयकर विभाग ने 4503 वारंट भेजे और छापेमारी आदि के बाद 807 करोड़ की सम्पत्तियां जब्त की। 10-20 प्रतिशत कम-ज्यादा के साथ करीब यही रिवाज पिछले एक दशक से हर वर्ष चला आ रहा है। 2014-15 मे विभाग को रू0 6,96,200 करोड़ का आयकर प्राप्त हुआ। जिसकी तुलना में यह जब्तियां नगण्य और अनावश्यक मालूम होती हैं।
कर प्रशासन सुधार आयोग (टीएआरसी) के ताजा सुझावों के मुताबिक देश में करदाताओं का आधार बढ़ाने की सख्त आवश्यकता है। पिछले दस सालों मे प्रत्यक्ष कर 700 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ा है। (रू0 69,198 करोड़ से रू0 5,58,965 करोड़) लेकिन करदाताओं की संख्या मे सिर्फ 35 प्रतिशत का ही इजाफा हुआ। स्वाभाविक है देश की जिम्मेदारियों का बोझ पुराने करदाताओं के कंधों पर और बढ़ा है। जबकि पैनकार्ड धारकों की संख्या 17 करोड़ है। ऐसा कब तक चलेगा?
संभवत: ”सूट-बूटÓÓ के आरोपों से सहमी सरकार आम जनता की गाढ़ी कमाई वसूलने को तो लालायित है लेकिन उन्हें न्यायोचित सुविधाएं देने से कतरा रही है। भारत में वह सभी संसाधन मौजूद हैं जिनके बलबूत हम पुन: विश्व के रिसमौर बन सकते हैं। लेकिन यह बदलाव लाठी के बूते लाना संभव नहीं। सोने की चिडिय़ा को सम्मान तेा चाहिए ही साहब।