नयी सोच देगी भरपूर बिजली

electric bulbजयश्री सेनगुप्त। भारत के इतिहास में वह लम्हा बहुत शानदार होगा जब इसके सभी 6 लाख गांवों में शाम ढले बिजली की जगमग से उजियाला हुआ करेगा। दुर्भाग्य की बात है कि आज की तारीख तक यह दृश्य संभव नहीं हो पाया है। गांवों में बसने वाली लगभग 30 करोड़ आबादी अभी भी बिजली की सुविधा से महरूम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में अपने स्वतंत्रता-दिवस भाषण में ग्रामीण भारत के विद्युतीकरण की बात कही है। उन्होंने देशभर में चौबीसो घंटे-सातों दिन बिजली मुहैया करवाने का यह दुरूह और महत्वाकांक्षी मनसूबा 2019 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा है।
अगर गांवों में बिजली उपलब्ध होगी तो वहां ज्यादा संख्या में लघु और कुटीर उद्योग स्थापित हो पाएंगे जो आगे स्थानीय निवासियों को रोजगार का अवसर प्रदान करेंगे, इससे शहरों और गांवों के बीच विकास की जो खाई आज है, वह कम हो सकेगी। हालांकि कागजों में देश के 97 फीसदी ग्रामीण इलाके में बिजली पहुंच चुकी है। निर्बाध बिजली के बिना भारत की तरक्की तेजी से नहीं हो सकती।
दरअसल गांवों का बिजलीकरण होने की परिभाषा अस्पष्ट है। सरकारी पैमाने के मुताबिक यदि किसी गांव के सार्वजनिक जगहों पर प्रकाश की व्यवस्था और कुल घरों की संख्या में अगर 10 प्रतिशत में भी बिजली की तार पहुंच गई है तब उस ग्राम का विद्युतीकरण हुआ गिना जाता है। इसी पैमाने का सहारा लेकर राजग सरकार ने गांवों के विद्युतीकरण के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 96.7 फीसदी गांवों तक बिजली की तारें पहुंच चुकी हैं लेकिन 33 फीसदी निवासी यानी कुल 24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में 8 करोड़ आज भी बिजली की सुविधा से वंचित हैं।
ग्रामीण विद्युतीकरण की रफ्तार आखिर इतनी सुस्त क्यों है, इसका एक मुख्य कारण यह है कि बिजली वितरण का अधिकांश काम राज्यों की सरकारी बिजली वितरण कंपनियों या डिस्कॉम (पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी) के हाथों में है, जिनकी कारगुजारी में सुधार लाना बहुत मुश्किल काम है। हालांकि ईंधन की सप्लाई, अन्य संभरण अवयवों की आपूर्ति, बिजली का उत्पादन करना केंद्र सरकार का काम है।
एनटीपीसी जैसे सरकारी अदारों द्वारा काफी मात्रा में बिजली पैदा की जाती है। वर्ष 2015-16 में बिजली उत्पादन में 5.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। साथ ही तेल और कोयले की कीमतों में भारी गिरावट की वजह से थर्मल पावर प्लांटों के उत्पादन में 11 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आज की तारीख में बिजली घरों की कुल उत्पादन समर्था का इस्तेमाल और कुल संयंत्र गुणांक का जो अनुपात 2013-14 में 65.6 प्रतिशत था वह 2015-16 में घटकर 62.3 रह गया है।
बड़े शहरों जैसे कि दिल्ली में बिजली वितरण का काम निजी कंपनियां सार्वजनिक-निजी भागीदारी उपक्रम के जरिए कर रही हैं। लेकिन आमतौर पर बिजली क्षेत्र में घाटे में चल रहे राज्यों के बिजली बोर्डों की वजह से आर्थिक बोझ बढ़ता ही जा रहा है। इसके पीछे मुख्य कारण हैं: बिजली की सरेआम चोरी, बिजली दर निर्धारण में राजनेताओं की दखलअंदाजी, मुफ्त में दी जाने वाली बिजली, भ्रष्टाचार और अक्षमता।
लगभग सभी राज्यों की बिजली वितरण कंपनियां आर्थिक संकट में फंसी हुई हैं और ज्यादा बिजली खरीदकर वे अपना कर्ज बढ़ाना नहीं चाहतीं। अतएव जब वे अपनी बिजली मांग को कम देते हैं तो उन राज्यों में सप्लाई लाइन के आखिरी छोर पर बसे ग्रामीण इलाकों को बिजली की काफी किल्लत झेलनी पड़ती है। राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों का तकनीकी और व्यापारिक घाटा (टी एंड सी) बहुत ज्यादा है जो कि लगभग 25 प्रतिशत है। पुन: नामकरण करने बाद जिस स्कीम को हम अब दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के नाम से जानते हैं, उसका उद्देश्य है वित्तीय घाटे को कम करना, लाइनों पर लगने वाले कुंडी कनेक्शनों को कम करना और उन खराब बिजली-मीटरों को बदलना जो वास्तविक खपत कम दिखाते हैं। इस वजह से कंपनी को मिलने वाले राजस्व में भारी घाटा होता है।
राज्य बिजली वितरण कंपनियों के लिए जरूरी है कि वे बिजली की दरें लगातार ऐसी बनाए रखें जो उनकी वास्तविक लागत से मेल खाती हों। राजनेताओं द्वारा मुफ्त बिजली की रेवडिय़ां बांटना भी एक कारण है और इससे बिजली कंपनियों को भारी घाटा झेलना पड़ता है। इस वक्त देश की बिजली कंपनियों का सम्मिलित कुल घाटा 3 लाख करोड़ के आसपास है।
विद्युतीकरण का लक्ष्य प्राप्त करने की खातिर पहले राज्य बिजली बोर्डों की आर्थिक सेहत सुधारनी आवश्यक है। इसी तरह जो एक स्कीम पहले भी यूपीए सरकार के वक्त थी लेकिन अब जिसका नाम बदलकर उदय Ó(उज्ज्वल डिस्कॉम ऐशोरेयंस योजना) कर दिया गया है, उसे राज्य बिजली वितरण कंपनियों के घाटे को हस्तांतरित करके, उसे प्रतिभूति में बदलकर धन पैदा करने का काम सौंपा गया है। इस क्रियान्वयन में उदयÓ योजना राज्य बिजली बोर्डों का पुनर्गठन करके उनके कुल घाटे का 75 प्रतिशत हिस्सा अपने सिर पर ले लेगी और खुद आगे इसकी पूर्ति के लिए वांछित धन बैकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को प्रतिभूति (बोंड्स) जारी करके पैदा करेगी। घाटे का शेष 25 प्रतिशत हिस्सा राज्य बिजली वितरण कंपनियों को इस संबंध में लिए गए कर्ज के रूप में होगा, जिसकी अधिकतम ब्याज की दर एक हद से आगे नहीं बढ़ेगी।
लेकिन इसके बदले में राज्यों की सरकारी बिजली कंपनियों को अपनी कार्यप्रणाली में सुधारवादी उपाय लागू करने होंगे, जैसे कि स्मार्ट मीटर लगाना, अपने बिजली प्रेषण तंत्र को उन्नत करना और समय-समय पर बिजली दरों में बढ़ोतरी करना। राज्यों की बिजली कंपनियों को इस योजना में भागीदारी करने हेतु आकर्षित करने के लिए कई तरह के प्रोत्साहन रखे गए हैं जैसे कि अतिरिक्त कोयला और धन मुहैया करवाना। 18 राज्यों की बिजली वितरण कंपनियां इस मुहिम का हिस्सा बन चुकी हैं। इस तरह इन कंपनियों की आर्थिक सेहत में सुधार होने से जब राज्य और अधिक बिजली खरीद सकेंगे और इसकी मांग को बढ़ावा देंगे तो इसे पैदा करने वाली कंपनियों की उत्पादन क्षमता का भी भरपूर इस्तेमाल हो पाएगा।
बिजली उत्पादन प्लांटों से वितरण करने वाली कंपनियों तक इसे पंहुचाने के लिए पारेषण (ट्रांसमिशन) ग्रिड का विस्तार और सक्षमता बढ़ाने का काम बड़े स्तर पर करना होगा। ग्रिड-कनेक्टिविटी के अभाव में राज्यों को अपने क्षेत्र में स्थित उन जनरेटरों से मंहगी बिजली खरीदनी पड़ती है जो उनकी सप्लाई से जुड़े हैं।
ट्रांसमिशन सेक्टर में ज्यादा निवेश होने से देश से सबसे बड़े बिजली वितरण उपक्रम यानी ग्रिड पॉवर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया को फायदा होगा।
दूरदराज के गांवों में चौबीसों घंटे-सातों दिन बिजली सुनिश्चित करना मुश्किल काम होगा क्योंकि अभी तक तो शहरों और कस्बों में भी यह करना संभव नहीं हो पाया है। एक अनुमान के मुताबिक देश के लगभग 1 करोड़ परिवार बिजली कमी पर यूपीएस का इस्तेमाल करते हैं। इन सेटों की बैटरियों को आयात करने में भारी रकम लगती है। इसी तरह डीजल जनरेटर सेट को चलाना काफी महंगा पड़ता है। अगर बिजली की सप्लाई निर्बाध होगी तो परिवारों, व्यापारियों, शैक्षिक संस्थानों, सेवा-क्षेत्र, कृषि, विदेशी निवेश वाली कंपनियों, व्यावसायिक और स्वास्थ्य संस्थाओं का काफी पैसा बचेगा जो उन्हें अब वैकल्पिक स्रोतों पर खर्च करना पड़ता है।