संतुलन साधने की कोशिश में मोदी

modi-at-redfortएस. निहाल सिंह। एक पुरानी कहावत है-जनता को सपनों के झुनझुने से बहलाया जा सकता है। इस आधुनिक समय में देश के लोगों को जुमलों से बहलाया जा रहा है और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो नए-नए सपने गढऩे में माहिर हैं। अच्छे दिन आएंगे के अलावा बेहतर समय आने वाला है, स्वच्छ भारत से लेकर मेक-इन-इंडिया तक के नारों की पूरी एक शृंखला प्रचारित की जा चुकी है।
दरअसल अब मोदी सरकार की कमियां लोगों के सामने आने लगी हैं। जैसे कि उनके मंत्री नितिन गडकरी ने स्वीकारोक्ति में माना है कि अच्छे दिनों का जुमला अब गले की हड्डी बन गया है, शायद उन्हें यह कहने को इसलिए भी बाध्य होना पड़ा जब एक हास्य कलाकार ने मुंबई नगरपालिका के कर्मियों द्वारा कर-निर्धारण मामले में रिश्वत मांगे जाने से क्षुब्ध होकर ट्वीट कर सीधे प्रधानमंत्री पर तंज कसा था कि क्या यही हैं अच्छे दिन। गडकरी ने अच्छे दिन लाने के लिए अपनी सरकार की जिम्मेवारी को हल्का करने के इरादे से कहा कि यह तो असल में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शब्द थे, जिन्होंने इसे पहले-पहल गढ़ा था और मोदी ने तो केवल इन्हें अपनाकर दोहराया भर है। क्या यह अपनाने की प्रक्रिया ठीक वैसी नहीं है जैसी कि मोदी सरकार ने स्वतंत्रता आंदोलन और 1947 के बाद वाले सालों में कांग्रेस सरकार के अच्छे कामों को अपनाया है। शायद यही वह एहसास है जिसके चलते कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उच्चतम न्यायालय में दायर की गई अपनी याचिका में बदलाव लाते हुए अब मन बनाया है कि भिवंडी की अदालत में उन पर जो मुकदमा दायर किया है वह उसका सामना करेंगे। यह केस राहुल द्वारा संघ से जुड़े लोगों की महात्मा गांधी के वध में भूमिका बताये जाने पर दायर किया गया है। देर से ही सही लेकिन कांग्रेस ने यह महसूस किया है कि स्वतंत्रता आंदोलन से पहले वाले इतिहास की जितनी बातें जनता को मालूम होंगी, उतना ही लोगों का ध्यान कांग्रेस पर केंद्रित होगा और तब उन्हें मालूम होगा कि भारत की आजादी की लड़ाई में संघ परिवार का योगदान कितना नगण्य है।
महात्मा गांधी के नाम पर योजनाएं चलाकर और स्वतंत्रता उपरांत कांग्रेस सरकारों में उपप्रधानमंत्री रहे सरदार वल्लभभाई पटेल को अपनाकर मोदी सरकार ने इन्हें भाजपा का नायक बना दिया है। इसमें जरा भी हैरानी नहीं कि आधुनिक भारत गणराज्य के निर्माता कहे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू को इस बाबत एकदम अलग रखा गया है।
मूल समस्या एकदम सरल है। अपने बहुमत के बूते पर भाजपा सरकार पहली बार देश का राजकाज चला रही है और इसके मार्गदर्शक संघ को जल्दी लगी है कि देश का निजाम इसके अपने बनाए राम-राज्य के सिद्धांत पर चलाया जाए। लेकिन विविधता भरे इस विशाल देश को हिंदुत्व राष्ट्र बनाना एक बहुत मुश्किल काम है। मोदी का काम है देश का प्रशासन चलाना और इसके लिए वे अपना दृष्टिकोण उतना संकुचित नहीं रख सकते। विश्वभर में होने वाली उनकी अनवरत यात्राओं ने भी उनके नजरिए को एक हद तक अवश्य ही बृहद बनाया होगा, ठीक उसी तरह जैसा कि एक दशक से ज्यादा गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उनका दृष्टिकोण व्यापक बन गया था।
प्रधानमंत्री अभी भी वह फार्मूला तलाश रहे हैं जिसके जरिए अल्पसंख्यकों के मन में भय पैदा किए बिना संघ की व्यग्रता को शांत किया जा सके जो कि न सिर्फ उनकी पार्टी भाजपा के सिद्धांत तय करने में बल्कि चुनाव के वक्त अपने स्वयंसेवक मुहैया करवाने की महत्वपूर्ण कड़ी भी है। जैसा कि कश्मीर में हाल ही में हुई वार्ता में भाग लेने वालों ने कहा है कि घाटी की समस्या को सुलझाने की प्रक्रिया में बाकी देश में घट रही घटनाओं का असर पड़ता है।
जैसे कि उपरोक्त कारक बताते हैं, एक तरफ तनाव का गुब्बारा फूल रहा है तो दूसरी ओर मोदी इनका हल अभी भी ढूंढ़ रहे हैं और भाजपा की मौजूदा योजना से लगता है कि राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण आगामी विधानसभा चुनावों में भी प्रधानमंत्री मोदी ही चुनाव प्रचार की अगुवाई करेंगे। जिसका हश्र एक बार फिर यह होगा कि वे देश को जोड़कर रखने वाले एक राष्ट्रीय राजनेता की बजाय एक पक्षपाती योद्धा बनकर रह जाते हैं जो अपनी विरोधी पार्टियों पर विष बुझे तीर चलाता है। जबकि इससे पहले यह स्वस्थ परंपरा रही है कि देश के राष्ट्रीय स्तर के नेतागण विधानसभा चुनावों में प्रतीकात्मक प्रचार करने के अलावा अग्रणी भूमिका निभाने से गुरेज करते रहे हैं।
यह सर्वविदित है कि मोदी बने-बनाए नियमों-कायदों की परवाह नहीं करते और इस जल्दी में हैं कि राज्यसभा में भी उनकी पार्टी का बहुमत बन जाए। लेकिन जो एक सवाल यहां पूछा जाना चाहिए वह है कि क्या भारत का राजकाज तमाम दूसरी विचारधाराओं को नकार कर चलाया जा सकता है?
तर्क बताता है कि यह एक असंभव कार्य है और पिछले ढाई साल का लेखाजोखा गवाही देता है कि हिंदुत्वयुक्त भारत बनाने का प्रयास लाखों विरोधी भावनाओं को जन्म देता है। सवाल यह भी है कि किस हद पर जाकर मोदी और उनकी पार्टी का विवेक जागेगा और वे हिंदुत्व की ओर उठ रहे अपने तेज कदमों को वापिस खींच लेंगे। अगर ऐसा होता है तो इस सिलसिले में जिन पक्षों को मनाना पड़ेगा, उनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है संघ जो कि मोदी का मार्गदर्शक भी है, इसके अलावा होंगे उनकी काबीना के ज्यादातर मंत्री। हालांकि गडकरी ने अकसर दिए जाने वाले अपने बयानों से दिखा दिया है कि कैसे कोई व्यक्ति संघ का अनुनायी होने के बावजूद व्यावहारिक बना रह सकता है और यहां तक कि मोदी ने भी गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए संघ परिवार को एक दूरी पर रखा था लेकिन केंद्र में प्रधानमंत्री बनने के बाद वे अपने इस कृत्य का दोहराव करने में नाकामयाब रहे हैं।
हम लोग आज एक मुश्किल समय में रह रहे हैं, जिसमें सत्तारूढ़ दल बेशक अपने सिद्धांतों को लेकर आश्वस्त है लेकिन वह ऐसे रास्ते तलाश रहा है जो उसे देश की एकता और अखंडता को ध्वस्त किए बिना हिंदुत्व के ध्येय तक पहुंचाए। अगर ऐसी कोई जादू की छड़ी मिल चुकी है तो यह राज संघ से ज्यादा कोई नहीं जानता।
स्वतंत्रता आंदोलन से तपकर आये सही सोच रखने वाले लोग और दशकों तक चले कांग्रेस राज की वजह से जो मानसिकता देश के लोगों की बनी है, उसे बदलने का यह अनोखा काम संघ की उम्मीद से कहीं ज्यादा मुश्किल सिद्ध हुआ है। यहां पर यह नोट करना जरूरी है कि कैसे संघ के दबाव में प्रधानमंत्री को 24 घंटे के भीतर ही नकली गोरक्षकों के प्रति सुधार करते हुए इन्हें केवल चंद लोग बताना पड़ा था, जबकि अपने पहले वाले भाषण में मोदी ने ऐसे तत्वों का अनुपात 70 से 80 प्रतिशत बताया था।
आमतौर पर हालांकि संघ सार्वजनिक रूप से मोदी की किश्ती को हिचकोले नहीं देता बल्कि बिचौलियों और सीधे संवाद के जरिए अपना काम करवाता है। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर ऐसा कौन-सा बिंदु है जब मोदी के सब्र का पैमाना छलक जाएगा।