70 वर्ष : भारतीय सुरक्षा का रिपोर्ट कार्ड

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वी. पी. मलिक। पिछले सत्तर साल का भारत का सुरक्षा संबंधी रिपोर्ट कार्ड अच्छे अंकों वाला ज्यादा है। लेकिन इसका श्रेय हमारी नीतियों को दिए जाने की बनिस्पत ठोस धरातल पर बनाई गई सामरिक योजनाओं और इनको क्रियान्वित करने वालों को दिया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया का सूत्रपात आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था।
चीन के साथ हुई 1962 की लड़ाई वाला कटु अध्याय छोड़ दिया जाए तो बाकी के सभी युद्धों में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा अक्षुण्ण रही है लेकिन बहुत बलिदानों और मुश्किल से प्राप्त इन उपलब्धियों को हम दीर्घकालीन राजनीतिक-सामाजिक सफलताओं में बदलने में असफल रहे हैं। आज इस मुकाम पर इस कमी का आकलन किए जाने की जरूरत है। दूरंदेशी नजरिये से देखा जाए तो ये कमियां हमारी कमजोर सामरिक दृष्टि, नेतृत्व, दिशाहीनता और सिविल एवं मिलिटेरी नेतृत्व के बीच परस्पर समन्वय की कमी पर भी परिलक्षित होती हैं। विडंबना है कि सुरक्षा संबंधी महत्वपूर्ण मामलों पर देश के राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत से ज्यादा निर्भरता प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठी अफसरशाही, विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्री, आईबी और रॉ पर ही रही है। सैन्य दिशा-निर्देश के लिए उच्चतम स्तर के निपुण सलाहकारों की ओर से दी गईं हिदायतों को अनदेखा किया जाता रहा है। यह बात आजादी के सत्तर सालों बाद आज भी हमारी सबसे बड़ी कमी है। देश के बाहर की स्थिति यह है कि हमारे दोनों पड़ोसियों चीन और पाकिस्तान के बीच मजबूत आपसी सामरिक गठजोड़ बना हुआ है। अंदरूनी परिदृश्य में हालांकि सुरक्षा संबंधी खतरे पहले के मुकाबले कम हुए हैं लेकिन इनके होने की संभावना बनी हुई है। ऐसा समाज के ध्रुवीकरण, हिंसा, जातिवादी राजनीति और संवैधानिक नियमों को धता बताने की प्रवृत्ति जारी रहने की वजह से है।
उभरते राष्ट्रवाद और अनिश्चितता भरे इस नए दौर में कोई भी दावे से यह नहीं कह सकता कि आगे परमाणु और उच्चस्तरीय पारंपरिक युद्ध नहीं होंगे। अलबत्ता हाल का चलन बताता है कि लघु-पारंपरिक और सीमित स्तर वाले सीमा-पारीय सैन्य अभियान होने की प्रबल आशंका है। सूचना-तकनीक ने लड़ाई के परिदृश्य को विस्तृत, ज्यादा सम्मिलित और तीव्र गति वाला बना दिया है। समूचा कमांड और संचालन तंत्र उपग्रह प्रणाली पर निर्भर होगा। सिविलियन आधारभूत ढांचे पर साइबर हमले का असर सैन्य प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचाए जाने से कहीं ज्यादा घातक सिद्ध होगा।
आज कार्यनीतिक, क्रियान्वयन आधारित और सामरिक स्तर की लड़ाई के बीच का फर्क खत्म हो गया है। एक छोटी सैन्य कार्रवाई भी उच्चतम स्तर पर विचार करने और निर्णय लेने योग्य विषय बन गई है। कई बार स्थिति ऐसी बन जाती है जहां एक छोटे स्तर के सैनिक अफसर को राजनीतिक नेतृत्व की मजबूरियां समझने की और राजनेताओं को सैन्य कार्रवाई के क्रियान्वयन और सामरिक लिहाज से सेना को दरपेश मुश्किलों का ज्ञान होना चाहिए। अतएव सुरक्षा प्रबंधन की खातिर बृहद सोच, राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु परोक्ष राजनीतिक-सैन्य दखलअंदाजी, सुरक्षा नीति की योजना, बजटीय आर्थिकी, आम कार्मिक और सामरिक जरूरतों का नियोजन जरूरी है। इसके लिए रक्षा मंत्रालय और उच्च रक्षा नियंत्रण प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किए जाने की जरूरत है।
हम न तो आज तक सेना के तीनों अंगों के एक संयुक्त रक्षा विभाग प्रमुख (चीफ ऑफ स्टाफ) और न ही बहुत सी विभागीय समस्याओं का हल ढूंढ पाए हैं। संयुक्त विभाग प्रमुख के पद पर कोई नियुक्ति न होने की वजह से प्रधानमंत्री या रक्षा मंत्री को सम्मिलित सलाह देने की बात तो दूर की कौड़ी है, यह कमी सम्मिलित और संयुक्त दिशा निर्देश देने में असफलता का कारण बनी हुई है। आज भी रक्षा मंत्रालय में तैनात सिविलियन नौकरशाहों को दिए गए काम का जिम्मा, उनकी जवाबदेही और कार्यवाही पर सवाल उठाने या उनके दंभ भरे आचरण वाली व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ है। सेना के तीनों अंगों में अंतर सैन्य सहयोग इसकी वजह से कमजोर बना हुआ है। राजनीतिक कार्यवाही और सैन्य नेतृत्व के बीच दीवार बन कर खड़ी इस अफसरशाही ने ‘सिविलियन-राजनीतिक नियंत्रणÓ के सिद्धांत को ‘सिविल-अफसरशाही नियंत्रणÓ में बदलकर रख दिया है। इसलिए एक संयुक्त सैन्य विभाग प्रमुख की नियुक्ति अपरिहार्य बन गई है। कारगिल के युद्ध में हुए निजी अनुभव ने मुझे आयुध और शस्त्र निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की जरूरत का महत्व अच्छी तरह समझा दिया था। इस लड़ाई के दौरान हथियारों की पूर्ति हेतु जिन भी मुल्कों से संपर्क साधा गया, उन सबने या तो इन्हें देने से इनकार कर दिया था या फिर अपने पुराने हथियार, उपकरण और आयुध इत्यादि भारी कीमतों पर बेचकर हमारी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश की थी। जबकि हम विश्वभर में सबसे ज्यादा हथियार आपूर्ति करने वाले मुल्क का दर्जा रखते हैं, आज की स्थिति भी कोई अलग नहीं है। तथापि परोक्ष विदेशी निवेश की शर्तों में किए गए नवीनतम बदलावों और प्रधानमंत्री की मेक-इन-इंडिया जैसी महत्वाकांक्षी योजना के बावजूद हमें अपनी हथियारों और उपकरणों की कमी को पूरा करने में 20-25 साल और लग जाएंगे।
हमारी रणनीति में निम्नलिखित का समावेश होना जरूरी है : घरेलू सुरक्षा संबंधी औद्योगिक घरानों को अपने हाईटेक आधार को जल्द-से-जल्द विस्तार देना होगा, निपुण कामगारों की संख्या में इजाफा करना, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्योग को एक समान अवसर मुहैया करवाना, एक स्पष्ट रक्षा उत्पाद नीति बनाना और सबसे महत्वपूर्ण है नकदी देकर खरीदी जाने वाली वस्तुओं की खातिर बजट में समुचित प्रावधान करना।
पिछले 70 सालों में सरकार की नीतियों की वजह से सैनिकों के आर्थिक हालात और रुतबे में लगातार कमी होती आई है और इसके चलते सिविल समाज में भी उनकी हैसियत कम हुई है। यही वजह है कि देश में सबसे भरोसेमंद रोजगार प्रदाता होने के बावजूद सैन्य पदों और नफरी में गुणवत्ता और संख्या के हिसाब से भरती होने वालों की रुचि घटती चली गई है। सेना में भरती होना अब युवाओं की पहली पसंद नहीं रह गया। आगे चलकर यह स्थिति सैनिकों के मनोबल और लडऩे के माद्दे पर असर डालेगी। हमारे राजनीतिक नेतृत्व को इस बारे में जल्द से जल्द सुधार लाना होगा।
राष्ट्रीय सुरक्षा और युद्ध के दौरान उच्चस्तर पर तुरत-फुरत निर्णय लेने के लिए शीघ्रातिशीघ्र बहुआयामी और बहुस्तरीय मशविरे करने, त्वरित फैसले लेने की विशेषता की जरूरत होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र, प्रणाली और पद्धति में हमें बहुत से बदलाव लाने की सख्त जरूरत है ताकि इन्हें ज्यादा सक्षम, कार्यकुशल, लचीला और त्वरित प्रतिक्रियाशील बनाया जा सके।
उम्मीद है कि हम अपनी सामरिक नीतियों, उच्च सुरक्षा नियंत्रण संस्थान की स्थापना, सेना का आधुनिकीकरण, सामर्थ्य और सैन्य मनोबल को बढ़ाने की दिशा में गंभीरता से ध्यान देंगे। इतना कुछ करने के बाद ही हम खुद को अंदरूनी और बाहरी खतरों से महफूज कर पाएंगे।