मोहभंग की वजह भी तलाशिये

chama sharmaक्षमा शर्मा। हाल ही में दिल्ली के प्रगति मैदान में नौ दिन चला पुस्तक मेला समाप्त हुआ। इस बार इसका थीम स्त्री लेखन पर केंद्रित था। इसे नाम दिया गया था-मानुषी। बताया गया कि नोटबंदी और ठंड के बावजूद मेले में पुस्तक प्रेमी बड़ी संख्या में आए। किताबें बिकीं भी खूब। अखबारों की खबरों में यह भी कहा गया कि इस बार किताबों की बिक्री से प्रकाशक बहुत खुश हैं।
लेकिन प्रकाशकों के जिस वक्तव्य पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, वह यह था कि इस बार लोग कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास की जगह अन्य किताबें मांग रहे थे। इनमें अपनी शिक्षा, व्यवसाय तथा विभिन्न अन्य विषयों से जुड़ी किताबें थीं। आखिर ऐसा क्यों हुआ होगा। पाठकों की रुचि साहित्य में क्यों कम हो रही है। इसके कारण क्या हैं। पहले तो साहित्य बहुत से अखबारों के पन्नों से गायब हुआ, देखते-देखते कई मशहूर साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो गईं। एक तरफ हिन्दी की तेज गति से लगातार बढ़त की बातें हुईं, दूसरी तरफ उसके प्रचार-प्रसार के लिए जो पत्रिकाएं प्रतिबद्ध थीं, वे क्यों बंद हुईं, इस पर शायद ही कोई पड़ताल की गई।
अखबारों से साहित्य को हटाए जाने पर जरूर यह कहा गया था कि अब कविता-कहानी पढऩे में लोगों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही है। इसका एक कारण तो यह भी है कि पढ़ी गई या सुनी गई कहानी के बदले देखी गई कहानी अधिक असर डालती है। और तकनीक के इस युग में कहानी दिखाने के विविध साधन मौजूद हैं। टीवी है, कम्प्यूटर है, मोबाइल है, जिन पर प्रेमकथाओं से लेकर जासूसी, एडवेंचर, विज्ञान और भारी मात्रा में अपराध कथाएं मौजूद हैं। फिल्में तो परिदृश्य पर बहुत पहले से मौजूद हैं ही। इसके अलावा कई बार साहित्य सरकारी योजनाओं का प्रवक्ता और पिछलग्गू बना भी दिखाई देता है।
उदाहरण के तौर पर अगर सरकार ने कहा कि पेड़ बचाओ, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसीज ने भी यही कहा तो आप पाएंगे कि पेड़ बचाने सम्बंधी कहानियों-कविताओं की भरमार हो गई। सरकार और संयुक्त राष्ट्र ने कहा-पर्यावरण बचाओ तो बेशुमार रचनाएं इन विषयों पर नजर आने लगीं। साहित्य प्रेमचंद की उस वाक्यावली को बार-बार दोहराता रहता है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होता है मगर कई बार यह मशाल अनजाने ही सरकारी योजनाओं और नारों की पिछलग्गू बनी दिखाई देती है।
इसके अलावा साहित्य बहुत प्रकार के स्टीरियो टाइप्स भी बनाता है, जिन्हें तोडऩे की कोशिश अगर कोई सम्भावना सम्पन्न रचनाकार करने की कोशिश भी करे तो अकसर साहित्य की फतवा परंपरा उन्हें किसी न किसी का विरोधी साबित कर देती है। जैसे कि स्त्री विरोधी, दलित विरोधी, पर्यावरण विरोधी, मनुष्य विरोधी, देश विरोधी आदि-आदि। बहुत से फ्रेम बना दिए गए हैं जो साहित्य की तुलाओं पर वर्षों से मौजूद हैं। जैसे कि अगर आप किसी मजदूर के जीवन पर कहानी लिख रहे हैं, तो आवश्यक तौर पर मालिक और मजदूर की लड़ाई में जीत मजदूर की ही होगी। मजदूर सौ में से सौ बार ईमानदार और मालिक बेईमान होगा। ट्रेड यूनियन्स का संघर्ष अंतत: विजयी ही होगा।
अगर आप पति-पत्नी पर कोई कहानी लिखना चाहें तो आपको पति को स्त्री विरोधी, पत्नी पर अत्याचार करने वाला, दूसरी औरतों से सम्बंध रखने वाला, दहेज लोलुप, स्त्री के काम करने का विरोधी दिखाना होगा। यही हाल सवर्ण और दलित की कहानी लिखने में जहां सवर्ण हमेशा दलित विरोधी होगा, जमींदार किसान को सताने वाला होगा।
हिन्दी एक साम्राज्यवादी भाषा है जो कि अन्य भाषाओं पर अपनी ताकत के अभिमान से राज करना चाहती है और खुद को उन पर थोपना चाहती है। यानी कि साहित्यकार को उन खांचों में फिट कर दिया गया है जो किसी और ने बनाए हैं। राजनीति और नेता भी इन खांचों को बनाने में पीछे नहीं हैं। ईमानदारी और बेइमानी के भी नए मानक तय कर दिए गए हैं। इन्हें जाति, धर्म, लिंग , व्यवसाय आदि से भी जोड़ दिया गया है। अब सोचिए कि पाठक भला इन एक जैसी और इकतरफा रचनाओं को क्यों पढ़े।
अगर किसी रचना में नयापन नहीं तो पाठक उन्हें क्यों पसंद करे। कहीं साहित्य से विमुख होने का कारण यह भी तो नहीं कि अब तक साहित्यकार खुद को समझता रहा है कि उसे जनता को जागरूक करना है। लोगों को ज्ञान देना है, लेकिन सच यह है कि अकसर रचनाएं अपने निजी दुख और विलाप से दूर नहीं हो पातीं। फिर ज्ञान पाने के अब इतने चैनल्स और नजरिए मौजूद हैं कि कई बार साहित्यकार से पहले पाठक वहां पहुंच चुके होते हैं। फिर जीवन में पहले से इतने दुख मौजूद हैं। आखिर मेले में प्रचुर मात्रा में कहानी, कविताएं उपन्यास आदि उपलब्ध थे, फिर भी वे अन्य पुस्तकों के मुकाबले पाठकों को अपनी ओर क्यों कम खींच सके। और साहित्यिक पुस्तकों की कम बिक्री की बात प्रकाशकों ने ही कही, किसी और ने नहीं।