यूपी में नई शुरुआत

pressउत्तर प्रदेश में सारे किंतु-परंतु को पीछे छोड़कर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का एक साथ आना राज्य में एक नई राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत है। इस गठबंधन को कितनी चुनावी सफलता मिलती है, यह तो समय बताएगा मगर इसमें प्रदेश की सियासी जड़ता तोडऩे की कोशिश जरूर झलकती है। पिछले कई दशकों से राज्य की राजनीति जातियों-समुदायों की एक बनी-बनाई धुरी पर नाच रही थी। नब्बे के दशक में बीजेपी ने हिंदुत्व के नारे के तहत अगड़ी जातियों की धुरी बनाकर अपना जनाधार तैयार किया था, जिसके बरक्स मुलायम सिंह यादव ने समाजवाद के नाम पर यादव-मुस्लिम का जवाबी गठजोड़ बनाया था।
तीसरे धड़े के रूप में मायावती दलितों के साथ अति पिछड़ों को जोड़कर और जब-तब अगड़ी जातियों की प्रतिक्रिया का फायदा उठाकर सत्ता तक पहुंचती रहीं। कुल मिलाकर जातियों के हेरफेर से ही विजयी रसायन तैयार होता रहा। इसी के सहारे पिछले दस वर्षों में पूर्ण बहुमत वाली दो सरकारें भी आईं मगर सरकारी चुस्ती से लेकर विकास तक के सारे जरूरी मुद्दे हाशिए पर ही रहे। प्राय: सभी दलों ने जातियों की गोलबंदी के लिए जाति विशेष के आपराधिक तत्वों को खुलेआम बढ़ावा दिया, जिससे धीरे-धीरे राज्य की छवि ऐसी बनती गई कि यहां कुछ हो ही नहीं सकता। एक समय देश में अग्रणी समझा जाने वाला यह राज्य जातीय संघर्ष और संगठित अपराध के लिए जाना जाने लगा। इधर अखिलेश यादव यह बताने में सफल रहे हैं कि अपने परिवार में विरोध का झंडा उन्होंने सिर्फ इसलिए नहीं उठाया कि वह पार्टी की कमान चाहते थे, बल्कि इसलिए कि वह राजनीति का मुहावरा बदलना चाहते हैं।
उन्होंने महसूस कर लिया है कि अभी के समय में समुदायों का परंपरागत विभाजन टिकाऊ नहीं रह गया है। नई पीढ़ी की अपेक्षाएं बदल रही हैं। उसे पुराने मुहावरों से भरमाना आसान नहीं रह गया है। अखिलेश की रणनीति अपने परंपरागत यादव-मुस्लिम आधार में नए समुदायों, खासकर युवाओं और महिलाओं को शामिल करने का है। और ये तबके किसी भी पार्टी के साथ तभी जाएंगे, जब उसकी छवि अच्छी हो। उसे बाहुबलियों की पार्टी की तरह नहीं, बल्कि चुपचाप अपना काम करने वाली आम लोगों की पार्टी के तौर पर जाना जाए। अखिलेश ने मुख्यमंत्री रहते हुए राज्य के लिए कुछ कारगर विकास योजनाएं भी शुरू की हैं, जिनका लोगों में अच्छा संदेश गया है।
इस क्रम में समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव के नेतृत्व में सेक्युलरिज्म के साथ विकास का एक बड़ा फलक लेकर इलेक्शन में उतरना चाहती है। इस दृष्टि से अभी की कांग्रेस को उसकी समानधर्मा पार्टी माना जा सकता है। दोनों का वैचारिक आधार और वोट बैंक कमोबेश एक-सा ही है। अखिलेश इस संबंध को विधानसभा चुनाव से आगे तक ले जाना चाहते हैं। शायद इसीलिए एसपी के पुराने नेता इस गठजोड़ के खिलाफ हैं। दोनों पार्टियां एक-दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर करा पाने में सफल रहीं तो बीजेपी की परेशानी बढ़ जाएगी। लेकिन अगर वे राज्य का पॉलिटिकल अजेंडा बदल सकीं तो यह पूरे देश के लिए राहत की बात होगी।