वयोश्री योजना: वाहवाही लूटने का माध्यम न बने

old ageललित गर्ग। वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि इस समय की बुजुर्ग पीढ़ी घोर उपेक्षित है। ऐसे बेसहारा एवं उपेक्षित वृद्ध व्यक्तियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय ‘वयोश्री योजना शुरू  है, यह स्वागतयोग्य है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार अपने देश के वृद्ध लोगों के लिये कल्याण के लिये कुछ अलग और अनूठा करना चाह रही है, जिससे एक सम्पूर्ण पीढ़ी का जीवन स्तर उन्नत हो सके और इसी से नया भारत भी बन सकेगा।
चिन्तनीय है कि आखिर ऐसे क्या कारण रहे हैं जो सरकार को वृद्धों के लिये कुछ करने की सोचना पड़ा। इसका कारण है हमारी आधुनिक सोच और स्वार्थपूर्ण जीवन शैली। पिछली जनगणना के मुताबिक देश में करीब साढ़े दस करोड़ वृद्ध हैं। इनमें 5.2 फीसद बुजुर्गों की स्थिति शारीरिक रूप से काफी दयनीय है, क्योंकि वे कई तरह की अवस्थाजन्य कमजोरियों के शिकार हैं। कोई चलने में असमर्थ है तो कोई सुनने में। किसी की दृष्टि कमजोर हो गई है तो कोई विकलांग है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने इस योजना का विस्तृत विवरण तैयार किया था, जिस पर मंत्रिमंडल की मुहर लग चुकी है। मंत्रालय ने पिछले दिसंबर में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर लाभार्थियों की पहचान करने और उनकी सूची तैयार करने के लिए भी कहा था। मंत्रालय की ओर से कहा गया कि फिलहाल यह योजना गरीबी रेखा से नीचे के बुजुर्गों के लिए लागू की जाएगी। निश्चित ही इससे समाज में व्यापक बदलाव आयेगा।
विशेषत: इस योजना का मकसद वृद्धों के लिये स्वास्थ्य से जुड़े उपकरण मुहैया कराना है। इसमें आरामदायक जूते, बैसाखी, कृत्रिम दांत, व्हीलचेयर, श्रवणयंत्र, चश्मा आदि सहायक यंत्र जरूरतमंदों को मुफ्त दिए जाएंगे। निस्संदेह यह योजना कई कारणों से बहुत जरूरी थी। जिस तरह देश में बुजुर्गों की दुर्दशा बढ़ रही है और वे परिवारों में भी उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, उसमें सरकार का आगे बढ़ कर मदद करना जरूरी हो जाता है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों में तो वृद्धों की बदहाली है ही, कई बार तो संपन्न घरों में भी वे अपने ही बाल-बच्चों की तरफ से उपेक्षा और तिरस्कार के शिकार होते हैं। दादा-दादी, नाना-नानी की यह पीढ़ी एक जमाने में भारतीय परंपरा और परिवेश में अतिरिक्त सम्मान की अधिकारी हुआ करती थी और उसकी छत्रछाया में संपूर्ण पारिवारिक परिवेश निश्चिंत और भरापूरा महसूस करता था। न केवल परिवार में बल्कि समाज में भी इस पीढ़ी का रुतबा था, शान थी। आखिर यह शान क्यों लुप्त होती जा रही है? क्यों वृद्ध पीढ़ी उपेक्षित होती जा रही है? क्यों वृद्धों को निरर्थक और अनुपयोगी समझा जा रहा है? वृद्धों की उपेक्षा से परिवार तो कमजोर हो ही रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा नई पीढ़ी प्रभावित हो रही है। क्या हम वृद्ध पीढ़ी को परिवार एवं समाज की मूलधारा में नहीं ला सकते? ऐसे कौन से कारण और हालात हैं जिनके चलते वृद्धजन इतने उपेक्षित होते जा रहे हैं? यह इतनी बड़ी समस्या कि किसी सरकारी योजना से इसे रास्ता नहीं मिल सकता। इस समस्या का समाधान पाने के लिए जन-जन की चेतना को जागना होगा। क्योंकि देश में ऐसे वृद्ध लोगों की संख्या बहुत बड़ी है, जिनके पास पेंशन या किसी अन्य किस्म की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, खासकर किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की लाचारी किसी से छिपी नहीं है। परिवारों में गरीबी की मार सबसे ज्यादा बूढ़ों पर ही पड़ती है। उनका इलाज कराना हो या उनके लिए कुछ खरीद-फरोख्त करना हो तो मान लिया जाता है कि उनकी प्राथमिकताएं और जरूरतें बेमानी हैं।
हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ वृद्ध लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया की आबादी में उच्च जन्म दर एवं उच्च मृत्यु दर के स्थान पर अब निम्न जन्म दर एवं निम्न मृत्यु दर की प्रवृत्ति देखी जा रही है जिसका परिणाम वृद्धजनों की संख्या और अनुपात में बहुत वृद्धि के रूप में सामने आया है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार सभ्यता के इतिहास में ऐसी तीव्र, विशाल और सर्वव्यापी वृद्धि पहले कभी नहीं देखी गई। अत: इस बढ़ती वृद्ध पीढ़ी को संवारना, उपयोगी बनाना और उसे परिवार की मूलधारा में लाना एक महत्वपूर्ण उपक्रम है। इसके लिए हमारे प्रबल पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्प की जरूरत है। जरूरी है कि हम बुजुर्ग पीढ़ी को उसकी उम्र के अंतिम पड़ाव में मानसिक स्वस्थता का माहौल दें, आधि, व्याधि और उपाधियों को भोग चुकने के बाद वे अपना अंतिम समय समाधि के साथ गुजार सकें ऐसी स्थितियों को निर्मित करें। क्योंकि उनके साथ ऐसे व्यवहार किया जाता है, जैसे वे परिवार के लिए बोझ हों। ऐसी स्थिति में अगर सरकार ने उनके लिए कल्याण केे बारे में सोचा है, उनके सहयोग के लिये आगे आयी है, उनके उपेक्षा के दंश को मिटाने का बीड़ा उठाया है, तो यह सराहनीय है। लेकिन यह योजना भी अगर अन्य सरकारी योजनाओं की तरह कोरी कागजी कार्रवाही है, या वाह-वाही लूटने का माध्यम है तो इस बुजुर्ग पीढ़ी को अपने हाल में ही छोड़ देना चाहिए, सहयोग एवं सहायता के नाम पर उसे एक और दंश मत दीजिये। क्योंकि सामाजिक कल्याण एवं अधिकारिता मंत्रालय के अनुसार हर राज्य के दो जिलों में ही इस योजना का लाभ पहुंचाने के लिये शिविर लगाए जाएंगे और हर शिविर में सिर्फ दो हजार लोगों को उपकरण बांटे जाएंगे। इसका मतलब है कि हर राज्य में सिर्फ चार हजार लोगों को लाभार्थी माना जाएगा। अगर इस योजना की कुल गहमागहमी का इतना भर ही नतीजा है तो यह एक प्रतीकात्मक एवं आयोजनात्मक कार्यक्रम भर है। सरकार ने अगर नेक काम में कदम बढ़ाया है तो फिर कृपणता क्यों! विडंबना यह है कि श्रेय लेने की उतावली और विज्ञापनबाजी में सरकार को पैसा फूंकना हो, तो उसके लिए पैसे की कोई तंगी नहीं होती, मगर कल्याणकारी कार्यक्रमों की बाबत अक्सर पैसे का टोटा हो जाता है!
प्रधानमंत्री ने नया भारत का नारा दिया है, इसमें वृद्ध पीढ़ी को उपयोगी बनाना होगा। सरकार को कुछ ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे इस पीढ़ी का उपयोग हो और उनका जीवन भी अभिशाप नहीं वरदान सिद्ध हो। एक अध्ययन के मुताबिक, विकासशील देशों की प्रगति में वरिष्ठ नागरिकों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई है। उदाहरण के तौर पर स्पेन में प्रतिदिन देखभाल की अवधि इस बात की ओर इशारा करती है। 65 से 74 वर्ष आयु वर्ग के बुजुर्ग 201 मिनट और 75 से 84 आयु वर्ग के 318 मिनट खर्च करते हैं। वहीं, 30 से 49 साल के लोग केवल 50 मिनट खर्च करते हैं। इसलिये हमें इस बुजुर्ग पीढ़ी को काम में लगाना चाहिए न कि उनके आराम के बारे में सोचना चाहिए। वे जितना काम और जितने लम्बे समय तक काम करेंगे, स्वस्थ रहेंगे, जीवंत रहेंगे और उपेक्षित नहीं होगे। हाल ही में आई एक रिपोर्ट बताती है कि देश के दो-तिहाई बुजुर्ग तिरस्कृत जीवन जीने को विवश हैं, फिर ऐसा नहीं होगा।

आज बुजुर्गों की समस्याएं अकल्पनीय है। उनका जीवनयापन बहुत ही कठिन होता जा रहा है। कोई चलने में असमर्थ है तो कोई अपाहिज सदृश बेड को ही अपनी नियति मानकर जीवन निर्वाह कर रहे हैं। यदि वे उच्च वर्गीय हैं तो उनकी संतान ने नर्स या अटेंडेंट की व्यवस्था कर दिया है। उन लोगों का जीवन भौतिक सुख- सुविधा से परिपूर्ण हो, फिर भी समय किस तरह व्यतीत करें इसकी समस्या उन्हें आहत करती है। समस्या यह है लोग इन बुजुर्गों के पास बैठना या बातें करना समय की बर्बादी समझते हैं। उन्हें यह समझ नहीं आती की जीवन जीने की कला, कितनी महत्वपूर्ण बातें जो बुजुर्गों से सीखी जा सकती है, वे उन से वंचित रह जाते हैं। सरकार एवं संस्थाओं ने वृद्धाश्रम जगह-जगह खोल तो रखा है लेकिन पर्याप्त नहीं है। इन वृद्धाश्रम को नयी शक्ल देने की जरूरत है ताकि वे इन स्थानों में रहते हुए शर्म महसूस न करे। इन्हें वृद्धाश्रम नहीं बल्कि जीवन-प्रयोगशाला का नाम दिया जाना चाहिए, जहां ये वृद्ध नये भारत के लिये अपने ज्ञान, अनुभव एवं विशेषज्ञता का उपयोग करते हुए कुछ नया निर्माण करें, अपने भीतर समाये ज्ञान और अनुभव को बांट कर जाये।
सामाजिक कल्याण एवं अधिकारिता मंत्रालय को कुछ रचनात्मक कार्यक्रम भी शुरु करने चाहिए जिससे समाज में ऐसी जागृति आए कि हर कोई प्रण लें कि माता-पिता या किसी भी वृद्ध का दिल नहीं दुखायेंगे उन्हें उचित सम्मान देंगे। हरेक मानव का जन्म ही एक न एक दिन बुजुर्ग होने के लिए हुआ है। किसी पर आश्रित होना ही है। अत: यह एहसास नहीं होने देना है कि वे वृद्ध हो गए हैं बल्कि उनके मनोबल को ऊँचा उठाना है। वृद्धों के कल्याण के लिए इस प्रकार के भी कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए, जो उनमें जीवन के प्रति उत्साह उत्पन्न करे। मेरी राय तो यह है कि जहाँ बुजुर्ग पूजित होते हैं वहाँ देवता का निवास होता है। यदि सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को आसन्न संकटों एवं विकृतियों से बचाना है तथा सुंदर व बेहतर भारत बनाना है, तो इन पर मंथन करने का वक्त आ गया है।