चुनाव प्रक्रिया को कब तक दूषित करेंगे

ललित गर्ग। सत्रहवीं लोकसभा के लिये जारी चुनाव अभियान में चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की बढ़ती घटनाएं एक आदर्श लोकतंत्र को धुंधलाने की कुचेष्टा है। निर्वाचन आयोग की सख्ती के बाद भी बड़बोले नेताओं की बेतुकी, अपमानजनक, अमर्यादित बयानबाजी थमती न दिखना चिंताजनक है। हैरानी यह है कि नेता वैसे ही आपत्तिजनक बयान देने में लगे हुए हैं जैसे बयानों के लिए उन्हें निर्वाचन आयोग द्वारा दंडित करते हुए इस तरह का विवादित चुनाव प्रचार करने से रोका जा चुका है। फिर भी आम चुनाव के प्रचार में इनदिनों विवादित बयानों की बाढ़ आयी है, सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं, गाली-गलौच, अपशब्दों एवं अमर्यादित भाषा का उपयोग कर रहे हैं, जो लोकतंत्र के इस महापर्व में लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात है।
सवाल उठता है कि चुनाव प्रचार के दौरान नित-नयी उभरती विसंगतियां और विरोधाभासों पर कैसे नियंत्रण स्थापित किया जाये? क्योंकि निर्वाचन आयोग की सख्ती के बावजूद आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बढ़ते मामले, मतदाताओं को बांटे जाने वाले पैसे की बरामदगी का कोई ओर-छोर न दिखना और विरोधियों अथवा खास जाति, समुदाय, वर्ग को लेकर दिए जाने वाले बेजा बयानों का बेरोक-टोक सिलसिला यही बताता है कि हमारी चुनाव प्रक्रिया ही नहीं, राजनीति भी बुरी तरह दूषित हो चुकी है। इस आम चुनाव की सारी प्रचार प्रक्रियाओं में, राजनेताओं के व्यवहार में, उनके कथनों में, उनके वोट हासिल करने के उपक्रमों में विरोधाभास ही विरोधाभास है। चुनाव आचार संहिता की शब्दधाराओं को ही नहीं, उसकी भावना को भी महत्व देना होगा, बोलने की आजादी का दुरुपयोग रोकना ही होगा।
चुनाव आयोग के निर्देशों के प्रति कोताही बरतने के यूं तो हर रोज नया उदाहरण सामने आता है, लेकिन ताजा उदाहरण पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू का है। उन्होंने बिहार में एक जनसभा में मुसलमानों को चेताते हुए करीब-करीब वैसा ही बयान दे डाला जैसा बसपा प्रमुख मायावती ने दिया था और जिसके चलते उन्हें दो दिन के लिए चुनाव प्रचार से रोका गया। क्या यह संभव है कि सिद्धू इससे अनजान हों कि निर्वाचन आयोग ने कैसे बयानों के लिए किन-किन नेताओं को चुनाव प्रचार से रोका है? साफ है कि उन्होंने निर्वाचन आयोग की परवाह नहीं की। मुश्किल यह है कि ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो आदर्श आचार संहिता की अनदेखी करने में लगे हुए हैं। इस मामले में किसी एक राजनीतिक दल को दोष नहीं दिया जा सकता। चुनाव महज सत्ता में पहुंचने की तिकड़म बन जाने के मद्देनजर चुनाव प्रक्रिया में आमूल-चूल-परिवर्तन की आवश्यकता है। तथ्य यह भी है कि यह जरूरी नहीं कि निर्वाचन आयोग हर तरह के आपत्तिजनक बयानों और अनुचित तौर-तरीकों का संज्ञान ले पा रहा हो। यह ठीक है कि तमिलनाडु के वेल्लोर लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं को पैसे बांटने के सिलसिले का उसने समय रहते संज्ञान लेकर वहां चुनाव रद्द कर दिया, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह हर उस क्षेत्र में निगाह रख पा रहा होगा जहां मतदाताओं को पैसे बांटकर प्रभावित किया जा रहा होगा। इसी क्रम में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के कलाकार चुनाव प्रचार करने में लगे हुए थे, लेकिन निर्वाचन आयोग को खबर तब हुई जब इसकी शिकायत की गई। विचित्र और हास्यास्पद यह है कि बांग्लादेशी कलाकार तृणमूल कांग्रेस के जिन नेताओं के लिए वोट मांग रहे थे उनकी दलील यह है कि उन्हें तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं। यह दलील और कुछ नहीं निर्वाचन आयोग को धोखा देने की कोशिश ही है, उसकी अवमानना करने का प्रयत्न है। आम भारतीय लोगों में लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संतुष्टि एवं निष्ठा का स्तर दुनिया के तमाम विकसित देशों से ज्यादा है। मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव प्रक्रिया को संचालित करने में राजनेताओं की निष्ठा का गिरता स्तर घोर चिन्तनीय है। सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार के गलत साधनों का उपयोग होरहा है इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। लोकतंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बड़े रूप में देखने को मिला। नेताओं ने जो 5-10 या 15-20 वर्ष पहले कहा, अखबार की उस कटिंग को आज के उनके कथन से मिलाइये, तो विरोधाभास ऊपर तैरता दिखाई देता है। फर्क के कारण पूछने पर कहते हैं कि अब संदर्भ बदल गए हैं। सत्ता के लालच में सत्य को झुठलाना सबसे बड़ा विरोधाभास है।
एक अध्ययन के मुताबिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था से 79 फीसदी भारतीय संतुष्ट हैं। ब्रिटेन में यह 52 प्रतिशत, अमेरिका में 46 प्रतिशत और स्पेन में 25 प्रतिशत है। वहीं, लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकारें चलाने वाले राजनेताओं के प्रति विश्वास के मामले में भारत, रवांडा से नीचे 33वें पायदान पर पहुंच गया है। यह व्यवस्था की खामी हैं या नेताओं का दोष, ऐसा सवाल है, जिस पर व्यापक मंथन जरूरी है। क्योंकि एक बात साफ है कि आजादी के बाद लोकतंत्र में जिस तरह से राजनेताओं की गरिमा बननी चाहिए थी, वह नहीं बन सकी। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन मुख्य वजह राजनेताओं का आम जन के प्रति समर्पित होने की बजाय सत्ता के प्रति समर्पित होना है। व्यवस्था के संचालन की मौलिक जिम्मेदारी राजनेताओं की ही है। इसलिए इसमें खामियों के लिए प्रथम दृष्टया राजनेता ही दोषी हैं। व्यवस्था की खामी तब मानी जाती, जबकि राजनेताओं के समर्पित होने के बाद भी बेहतर परिणाम नहीं मिलते।
लोगों में लोकतंत्र के प्रति विश्वास बढ़ता जा रहा है लेकिन नेताओं के प्रति अविश्वास बढऩा एक विडम्बनापूर्ण स्थिति है। बेशक, लोकतंत्र भारतीय जीवन पद्धति का मूल तत्व है। अगर व्यवस्था चलाने वाले नेताओं की बात करें, तो पिछले कुछ दशकों में नेताओं की विश्वसनीयता तेजी से गिरी है। इसकी वजह, नेताओं द्वारा जिस गति से चुनाव प्रक्रिया को दूषित किया गया, उस गति से चुनाव प्रक्रिया में सुधार नहीं हो पाना है। चुनाव में धनबल और बाहुबल से हुई शुरुआत अब धर्म-जाति के प्रपंच से आगे जाकर तकनीक यानी सोशल मीडिया आदि माध्यमों का दुरुपयोग कर मतदाताओं को भ्रमित एवं गुमराह करने तक जा पहुंची है। इन बुराइयों को रोकने के लिए किये गये उपाय नाकाफी साबित होने के कारण विधायिका में अवांछित सदस्यों की संख्या बढ़ी है। नतीजतन, विधायिका से चुनाव सुधार के उपयुक्त कानून बनाने की उम्मीद भी धूमिल हो रही है। निर्वाचन प्रणाली में धनबल और बाहुबल का बढ़ता प्रभाव एवं प्रयोग जनता को प्रभावी प्रतिनिधित्व चुनने में बाधक बनता है। इसका तात्कालिक प्रभाव जवाबदेही में कमी के रूप में दिखता है। परिणामस्वरूप विधायिका में लोगों के प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता जिस तरह से निखर कर आनी चाहिए, वह नहीं आ पाती है।
क्या यह माना जाये कि देश को एक आदर्श और निर्विवाद चुनाव प्रक्रिया की जरूरत है? जिसकी 70 साल बाद भी अपनी सरकारों के निर्वाचन की उपयुक्त व्यवस्था की तलाश जारी है। चुनाव प्रक्रिया में आयी खामियों के मद्देनजर विशेषज्ञों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के लिए गहन मंथन कर समय-समय पर महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। लेकिन, आम राय कायम नहीं हो पाने के कारण इन्हें अमल में नहीं लाया जा सका है। इस नाकामी के लिए विधायिका के सदस्यों में गुणवत्ता की कमी ही जिम्मेदार है। इस कमी को दूर करना अब नितांत जरूरी है, क्योंकि अगर लोगों का लोकतंत्र से विश्वास उठ गया, तो फिर कुछ नहीं बचेगा।
नि:संदेह इतने बड़े देश में जहां राजनीतिक दलों की भारी भीड़ है वहां चुनाव प्रचार के दौरान आरोप-प्रत्यारोप का जोर पकड़ लेना स्वाभाविक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि नेतागण गाली-गलौज करने अथवा मतदाताओं को धमकाने को अपना अधिकार समझने लगें। विडंबना यह है कि वे केवल यही नहीं कर रहे, बल्कि झूठ और फरेब का भी सहारा ले रहे हैं। यह स्थिति यही बताती है कि भारत दुनिया का बड़ा लोकतंत्र भले हो, लेकिन उसे बेहतर लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी एक लंबा सफर तय करना है। समय के साथ स्थितियां सुधरने की अपेक्षा अधिक त्रासद बनती जा रही है। इस विडम्बना एवं त्रासदी से उबरना तभी संभव है जब राजनीतिक दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की अपनी प्रवृत्ति का परित्याग करते हुए दिखेंगे। फिलहाल वे ऐसा करते नहीं दिख रहे हैं। इसलिये चुनाव आयोग को ही सख्त होना होगा, उसने कुछ प्रत्याशियों और पार्टियों के पंख कतरने की कोशिश की है, लेकिन यह कोशिश शेषन की भांति राजनेताओं को भयभीत करने वाली तेजधार बनानी होगी। जैसे भय के बिना प्रीत नहीं होती, वैसे ही भय के बिना चुनाव सुधार भी नहीं होता। इस चुनाव में सबसे बड़ा हल्ला यह है की कहीं भी चुनाव सुधार का हल्ला नहीं है। चुनाव अभियान में जो मतदाताओं के मुंह से सुना जारहा है, उनके भावों को शब्द दें तो जन-संदेश यह होगा-स्थिरता किसके लिए? नेताओं के लिए या नीतियों के लिए। लोकतंत्र में भय कानून का होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं। तभी लोकतंत्र मजबूत होगा।