गरीबों को गुमराह करने का षडय़ंत्र

ललित गर्ग। सत्तर साल से गरीबी एवं गरीबों को मजबूत करने वाली पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने दुनिया की सबसे बड़ी न्यूनतम आय गारंटी योजना से गरीबों के हित की बात करके देश की गरीबी का भद्दा मजाक उडाया है। इस चुनावी घोषणा एवं आश्वासन का चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इस घोषणा ने आर्थिक विशेषज्ञों एवं नीति आयोग की नींद उड़ा दी है। इस योजना को बीजेपी सरकार द्वारा किसानों को सालाना 6000 रुपए देने की घोषणा का जवाब माना जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अनुसार, अगर उनकी सरकार सत्ता में आई तो सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को हर साल 72,000 रुपए दिए जाएंगे। इस सहायता राशि को सीधे गरीबों के खातों में हस्तांतरित किया जाएगा और 5 करोड़ परिवार अथवा करीब 25 करोड़ लोग इससे लाभान्वित होंगे। क्या यह घोषणा सीधे तौर पर पच्चीस करोड़ गरीबों के वोट को हथियाने का षडयंत्र है?
राजनीतिक गलियारों में इस घोषणा पर खलबली तो है ही, अर्थशास्त्री भी मंथन करने में जुट गए हैं। सबके सामने यही सवाल है कि इस योजना के लिए संसाधन कहां से लाए जाएंगे? क्या इस तरह की तथाकथित गरीबों को गुमराह करने एवं ठगने वाली घोषणाओं से गरीबी या गरीबों का कोई वास्ता है? क्या इस तरह की घोषणाओं से गरीबी दूर हो सकती है? मैं इन प्रश्नों से सबसे ज्यादा भयभीत हंू, मुझे आश्चर्य होता है बल्कि डर से थर-थर कांपने लगता हूं जब कोई व्यक्ति, समूह या दल यह कहता है कि उसे गरीबी की चिंता है और वह गरीबी दूर कर देगा। विशेषत: राजनीतिक लोग जब ऐसी बात करते हैं तो अधिक परेशानी होती है। अगर राजनेता ही यह करने को तत्पर होते तो सत्तर साल में गरीबी समाप्त क्यों नहीं हुई? पिछले दिनों बहुतों ने ऐसा कहा। सबने कहा- पाकिस्तान की हरकतों का करारा जबाव देने से ज्यादा जरूरी है महंगाई पर रोक और मुद्रास्फीति पर अंकुश। ऐसा क्यों भला? यह काम हर पार्टी की प्राथमिकता में है ऐसा मैं नेहरू, इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी के जमाने से सुन रहा हूं। पर गरीबी तो मिटती नहीं। कुछ गरीब जरूर मिट जाते हैं। लेकिन ये कमबख्त अधिकतम जनसंख्या के साथ फिर उपस्थित हो जाते हैं और राजनीतिक दलों का काम चलता रहता है।
आजादी के सत्तर सालों में हर दौर में महंगाई से आम जनता त्रस्त रहा है। मगर सरकारों ने पूंजीपतियों के गलत कदमों को कड़ाई से रोकने के लिए कदम नहीं उठाये। बल्कि पूंजीपतियों के प्रति अपना सौहाद्र्र और प्रेम ही अब तक चुनी सरकारों ने व्यक्त किया है। मतलब यह कि वोट किसी का और सरकार किसी की। सरकार कोई भी हो उसे अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का हुनर पंूजीपतियों और अमीरों को खूब आता है। जब स्वाधीन भारत की सरकारें देश की अधिसंख्य गरीब जनता की दुर्दशा को नजर अंदाज कर पूंजीपतियों के प्रति वफादारी में लगी रहती है तो आम जनता की आजादी के मायने बदल जाते हैं। असहाय जनता निराश और कुंठा के भाव के साथ पराधीन राष्ट्र के नागरिक की तरह दुर्घटनाग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त होती है।
वस्तुत: भारत में अमीर वर्ग ही असली स्वाधीन है और लगभग सारा तंत्र, सारी व्यवस्था उसकी मु_ी में है। स्वाधीन देश के नागरिक को जो अधिकार प्राप्त होने चाहिए वे सिद्धांत में तो हैं, मगर व्यवहार में नहीं हैं। ये समस्त अधिकार सिर्फ संपन्न वर्ग की पहुंच में हैं। बल्कि कहना चाहिए कि अघोषित रूप से उन्हीं के लिए आरक्षित हैं। संसाधनों, सुविधाओं और अधिकारों के वितरण में भयानक असमानता है। इस कदर असमानता है कि आम जनता की स्थिति परतंत्र राष्ट्र के नागरिक जैसी है। धनवान लोग आजाद देश के आजाद नागरिकों की तरह विलासिता के साथ जीते हैं। पिछले कुछ वर्षों से गरीबों का हक छीनने का एक नया हथियार बड़े जोर-शोर से इस्तेमाल हो रहा है। वह है विकास का हथियार। विकास के नाम पर गरीबों की अपनी पैतृक जीवन-गांवों से उजाडऩा, तबाह करना और आत्महत्या के कगार पर पहुंचा देना सभी सरकारों का पुण्य कर्तव्य है। इस तथाकथित विकास के पक्ष में बोलना राष्ट्रभक्ति है, जबकि इसके विपक्ष में बोलना राष्ट्रद्रोह है। इस विकास की भांग कुछ ऐसी कुएं में घुली है कि सरकारों और उच्च वर्ग के साथ-साथ न्यायपालिका और मीडिया तक बहुत हद तक नशे में डूबे दिखाई देते हैं।
दुर्भाग्य है कि विकास का बुलडोजर गरीबों पर ही चलता है। कोठियों और अट्टालिकाओं में बैठे लोगों के लिए यह मलाई कमाने का अवसर होता है। वे उजड़ते तो जानते कि विकास जीवन में क्या-क्या लील जाता है? बड़े-बड़े बांध, चैड़ी-चैड़ी सडक़ें, तमाम प्रदूषण कर तबाही मचाने वाले कारखाने और भी जाने क्या-क्या लोगों को उजाड़ कर बनाए जा रहे हैं। निश्चित रूप से यह गरीब उजडऩे वाली जनता स्वाधीन नहीं है।
आदिवासी अपनी विरासत के जल, जंगल-जमीन से उजाड़े जा रहे हैं। किसानों का उजडऩा, बर्बाद होना इतना अधिक है कि वे आत्महत्या तक को विवश हो रहे हैं। मजदूर नारकीय जीवन जी रहे हैं। उन्हें किसी तरह की सुरक्षा, सुविधा या अधिकार प्राप्त नहीं है। ये किसान, मजदूर और आदिवासी देश के निर्धनतम लोग हैं। किसी भी कर्म के उचित या अनुचित होने को ज्ञात करने के लिए गांधीजी ने एक मंत्र दिया था कि सोचो कि हमारे कर्म से समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को लाभ होगा या नहीं? गांधी को आधार बनाकर सत्ता तक पहुंचे लोग ही गांधी के सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ाते हैं। समाज के अंतिम व्यक्ति का उत्थान करने वाले कितने काम सरकारें, पंूजीपति, समृद्ध लोग या प्रभुत्व सम्पन्नवर्ग कर रहा है यह जगजाहिर है। जब देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अभावग्रस्त, अधिकारविहीन और नारकीय जीवन जी रहा हो तो भारत की स्वाधीनता कितनी सच्ची है, यह स्पष्ट हो जाता है।
व्यक्ति, समाज-देश को प्रभावित करने में, जनमत तैयार करने में प्रजातंत्र के चुनाव की बड़ी अहम भूमिका होती है। लेकिन ये चुनाव आज आम जनता को लुभाने, ठगने एवं गुमराह करने जरिया हो गये हैं। लिहाजा गांव, गरीबी, गरीबों के दर्द और उनकी समस्याओं की चर्चा इन चुनावों का विषय ही नहीं बनते, मुद्दें ही नहीं बनते तो चुनी जाने वाली सरकार की प्राथमिकताओं की बात ही क्या की जाए? खरी बात यही है कि भारत देश की स्वाधीनता मात्र समृद्ध वर्ग के लिए है। इसके सारे संसाधन, अधिकार, अवसर उन्हीं के लिए आरक्षित है। सरकारें, मीडिया, नौकरशाही, न्यायपालिका सब उन्हीं पर मेहरबान हैं। अधिकतर लोगों का जीवन दुर्दशाग्रस्त है।
आजाद भारत के लोकतंत्र की इन जटिल स्थितियों के बावजूद राहुल गांधी का दावा है कि उन्होंने अपनी घोषणा को क्रियान्विति देने का पूरा खाका तैयार कर लिया है। उन्होंने कुल बजट का लगभग 13 प्रतिशत यानी करीब 3 लाख 60 हजार करोड़ रुपये के खर्च की पूरी व्यवस्था कर ली है। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि पहले से चली आरही गरीबी दूर करने से जुड़ी सब्सिडियों का क्या होगा? क्योंकि फिलहाल सरकार 35 तरह की सब्सिडी उपलब्ध करा रही है। इन सभी सब्सिडियों के साथ न्यूनतम आय योजना को लागू करना बेहद कठिन होगा। यह तभी लागू हो सकती है, जब सब्सिडियां कम या खत्म की जाएं। लेकिन अभी जो सहायता दी जा रही है, वह भी समाज के कमजोर वर्ग के ही लिए है। इनमें कटौती से कुछ तबकों में आक्रोश फैल सकता है। ऐसे में अतिरिक्त राशि जुटाने का एक तरीका नए टैक्स लगाने का हो सकता है। लेकिन नये टैक्स की व्यवस्था किसी असामान्य स्थिति के अलावा कैसे युक्तिसंगत हो सकती है? दुनिया के कई मुल्कों में अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाकर उससे कल्याणकारी योजनाएं चलाई जाती हैं। कभी कांग्रेसी शासन में वित्त मंत्री रहे प्रणव मुखर्जी ने इस तरह की कोशिशें की थीं, पर वे प्रभावी नहीं हो पाईं। सच्चाई यह है कि भारत का धनाढ्य वर्ग अभी अपने सामथ्र्य के हिसाब से बहुत कम टैक्स देता है। तमाम सरकारें टैक्स के नाम पर नौकरीपेशा मध्यवर्ग को ही निचोड़ती आई हैं। कांग्रेस अगर अपनी इस योजना के लिए देश के एक प्रतिशत सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ाती है तो यह एक नई शुरुआत होगी। भारत जैसे देश में, जहां आर्थिक असमानता बढऩे की रफ्तार भीषण है, गरीबों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी करना बेहद जरूरी है, लेकिन उसका कारगर उपाय नगद राशि का भुगतान न होकर उनके लिये रोजगार, छोटे-मोटे कामधंधे उपलब्ध कराना है। सामाजिक असंतोष को कम करने का यह एक बेहतर जरिया हो सकता है। देश से गरीबी दूर करने के लिये गरीबों को राजनीतिक प्रलोभन के रूप उनके खातों में सीधे नगद राशि पहुंचाना देश को पंगु, अकर्मण्य एवं आलसी बनाना है। आवश्यकता इस बात की है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को समस्त सुविधाएं, रोजगार, सुरक्षा और अधिकार प्राप्त हों। अमीरों और गरीबों के लिए दोहरे मापदंड न हों। भारत की राजनीतिक आजादी पर्याप्त नहीं है। जरूरत है एक और स्वाधीनता की जंग की जो समस्त जनता को स्वाधीन राष्ट्र के नागरिक की तरह सम्मान, रोजगार, अधिकार और सुरक्षा प्रदान करते हुए राष्ट्र निर्माण में नियोजित करें।