मर्यादाओं का उल्लंघन करती राजनीति चिंताजनक

राजेंद्र बज। वर्तमान राजनीतिक परिवेश में दिनोंदिन मर्यादाओं का उल्लंघन गहन चिंता का विषय है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुरूप निर्वाचित नेतृत्व पर निम्न स्तरीय शब्दावली का उपयोग करते हुए निरंतर बयानबाजी की जा रही है। राजनीति में सामान्य शिष्टाचार बीते समय की बात हो चली है। यह स्थिति निकट भविष्य में राजनीति के और भी निकृष्ट स्वरूप को प्रतिबिंबित करती दिखाई देती है। लगातार उलजलूल बयानों का सिलसिला नैतिक मर्यादाओं को ताक पर रख रहा है। ऐसी स्थिति में संभ्रांत एवं प्रबुद्ध वर्ग के लिए राजनीति में कोई संभावना दिखाई नहीं देती। वैसे भी इस समय यह वर्ग राजनीति से एक निश्चित दूरी बनाए हुए हैं। पारिवारिक विरासत के चलते अलग-अलग घराने के राजकुमार राजनीति के नीति निर्धारक बने हुए हैं।
धकांश राजनीतिज्ञों में परिपक्वता का अभाव है। असंयमित भाषा चाटुकारों के लिए उत्साहवर्धक होकर लोकलुभावन भाषा का दर्जा प्राप्त कर रही है। बेबाक बोलों पर नेताओं की जय-जयकार का नजारा आए दिन दिखाई देता है। राजनीति में स्थापित होने के लिए किए जाने वाले आंदोलन कानून और व्यवस्था के लिए चुनौती बनते दिखाई देते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनर्गल प्रलाप नैतिक मर्यादाओं को तार-तार करते जा रहे हैं। बेलगाम राजनीतिज्ञ आए दिन आपत्तिजनक कथन के माध्यम से मीडिया में सुर्खियां पाकर अपने अस्तित्व का बोध कराते रहते हैं। चर्चाओं में बने रहना, राजनीतिज्ञों का प्रिय शगल होता है। इसके लिए परिणाम की चिंता नहीं की जाती अपितु त्वरित लाभ की दृष्टि से अपने होने का प्रमाण दिया जाता है। लोकतंत्र की राजनीति में प्रत्येक नेता के अपने समर्थक एवं अनुयायी भी हुवा करते हैं। इनमें कुछ समर्थक अंध समर्थक के रूप में होते हैं। यह अपने राजनीतिक आकाओं के प्रत्येक कथन को ब्रह्म वाक्य के रूप में लिया करते है। ऐसे में विवादित बोलो के समर्थक बिना गुण-दोष का आकलन किए अपने आकाओं की बात पर सिर्फ ताली ही बजानी आती है। स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना को साकार करने के लिए इन तमाम राजनीतिक विकृतियों से मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा राजनीति का गिरता स्तर कालांतर में लोकतंत्र के औचित्य पर बहुत से वाजिब सवाल खड़े कर सकता है। आज नहीं तो कल लेकिन इस दिशा में संज्ञान अवश्य लेना होगा। अन्यथा राजनीतिक परिस्थितियों निरंतर बद से बदतर होती चली जाएगी।
राजनीति में लच्छेदार भाषा का अपना एक अलग ही महत्व है और यह समय-समय पर राजनीतिक सफलता की कारक भी बनती रही है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य मे नकारात्मक से सकारात्मक बनाने का अनुक्रम चल रहा है। यहां हमारे लोकतंत्र में ही संभव है कि नकारात्मक से सकारात्मक की ओर बढ़ा जा सकता है। लोकतंत्र के मंदिर में पुजारी बनने हेतु अतिरिक्त योग्यता के रूप में आपराधिक पृष्ठभूमि का होना जरूरी नहीं होता। लेकिन ऐसा गैरजरूरी रूप से होते दिखाई देता है। समय-समय पर विभिन्न चुनाव के प्रत्याशियों की सूची पर यदि नजर डालें, तो पता चलता है कि कैसे-कैसे लोकतंत्र के महारथी हैं ? कैसे-कैसे उन पर आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं ? आम नागरिकों के सामने बड़ी और छोटी बुराई में से चयन करने की विवशता है। ऐसे में ऐसे पुजारी भारत माता की कितनी भक्ति करेंगे ? और कैसे करेंगे ?, इसका आकलन किया जा सकता है। दरअसल लोकतंत्र को भीड़तंत्र से पृथक करना होगा। बिना इस उपचार के राजनीतिक रोगों का निवारण नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विकृतियों पर प्रभावी रूप से अंकुश लगाने की दिशा में नागरिकों का जागृत होना अत्यंत आवश्यक है। दरअसल जागृत जनमत ही विसंगतियों के जाल के जंजाल से राजनीति को पूर्ण रूप से मुक्त करने की दिशा में कारगर हो सकता है। बेहतर हो यदि राजनीति में मर्यादाओं का उल्लंघन करने की मनोवृति पर विराम लगाने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास किए जाएं। इस संदर्भ में नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति चमत्कारिक परिणामों की कारक सिद्ध हो सकती है।कुल मिलाकर मुद्दे की बात यह कि राजनीति में साफ-सुथरे चेहरे स्थापित हो ताकि राजनीति उच्च स्तरीय मूल्यों को प्राप्त हो सके। इस हेतु वर्तमान राजनीतिक कर्णधारों से ही अपेक्षा की जा सकती है। वास्तव में जो नीति नियंता होते हैं, अपेक्षा उनसे ही की जा सकती है। निश्चित ही जब राजनीति में उच्चस्तरीय मूल्यों की स्थापना हो सकेगी, तब राजनीति एक तप का स्वरूप धारण कर सकेगी। राजनीति में सक्रिय चेहरे तपीय तेज की तेजस्विता से आलोकित हो सकेंगे। इनका आभामंडल देशवासियों के लिए उच्च स्तरीय आदर्श का प्रतिरूप हो सकेगा। बेहतर हो यदि राजनीति में शुचिता और पवित्रता के प्रबल पक्षधर मत-मतांतार से सर्वथा परे सर्वसम्मति से इस दिशा में गंभीर प्रयास करने का संकल्प धारण करें।