रावण यहां करता था बिन्दु महादेव की अराधना

मिर्जापुर । आदि शक्ति मां विंध्यवासिनी मंदिर की सीढिय़ों पर पैर रखते ही जाति तिरोहित हो जाती है। सभी द्विज हो जाते है। इस बार दस दिन का नवरात्रि बेहद शुभ है। मां के दर्शन के लिए मंदिर के बाहर मीलों लंबी कतार लग गई है। जिसमें बेहद अनुशासित अमीर-गरीब, आदिवासी, वनवासी, देशी-विदेशी सभी एक साथ खड़े है। हाथों में मां के श्रृंगार का सामान और चढ़ावा, माथे पर पटका और मां विंध्यवासिनी का जयकारा, बेहद भक्तिमय माहौल है। यह आने वाले मां के भक्त मंदिर के साठ गुणा साठ फिट के गर्भगृह से गुजरते है, जहां आदि शक्ति की अलौकिक छवि विराजमान है। मंदिर के कपाट चार घंटे रात में 12 बजे से 4 बजे तक बंद रहता है। तडक़े 4 बजे से रात कपाट बंद होने के बीच चार श्रृंगार और आरती होती है। षोड्स श्रृंगार की ज्यादातर सामग्री वाराणसी और कोलकता से आती है।
कई वर्षो बाद अच्छे मानसून से ग्रामीण इलाके के भक्तों के चेहरे खिले हुए है। मांए गोद में शिशुओं के साथ और बुजुर्ग परिवार के साथ उत्साहित है। चाह है कि मां धनधान्य से परिवार को खुशहाली दें। उप्र, बिहार की घनी आबादी के साथ मध्य प्रदेश, झारखंड, देश-विदेश से हर दिन भक्तों के वाहनों का काफिला पहुंच रहा है।
आदिशक्ति का मंदिर पवित्र गंगा नदी के तट पर विंध्याचल की झुकी हुई पहाड़ी पर है। कहते है कि अगस्त ऋषि दक्षिण भारत गए तो पहाड़ उनके सम्मान में झुका था। अष्टभुजी देवी और रक्तबीज का वध करने वाली, महाकाली के खुले मुंह का रौद्ररूप, मातृ शक्ति स्थलों का त्रिकोण बनता है। जिसके बीचों बीच है, भारतीय मानक समय का केन्द्र। इन्हे वन देवी, वनदुर्गा भी कहा जाता रहा है, आसपास अद्भुत प्राकृतिक वातावरण और करोड़ों वर्षो के इतिहास की गवाही दे रहा है। मंदिर से 70 किमी दूर सलखन में 1.5 करोड़ पुराने जीवाश्म है, और 40 किमी दूर अहिरौरा में आदिकालीन गुफाओं में मानव के हस्ताक्षर के रूप में भित्तचित्र मौजूद है। कहते है कि रावण यहां बिन्दु महादेव की अराधना करता था। वह इस स्थान को पृथ्वी का केन्द्र मानता था। देवी को विंध्यवासिनी के साथ बिन्दुवासिनी भी कहा जाता है। बिंदु जो पृथ्वी व समय के कालचक्र का केन्द्र है। यहां के चप्पे-चप्पे पर कहानियां व किवदंतियां है।
तीर्थपुरोहित सुधाकर मिश्र बतातें है कि पुराणों व शास्त्रों के मुताबिक आदिशक्ति की अराधना सतयुग-द्वापर-त्रेता तीनों युग में होती रही है। सात्विक व वाममार्गी पूजन के दो रूप अभी भी प्रचलित है। आम भक्तगण सात्विक पूजन नारियल, मिश्री व हलवे के साथ करते है। रात में होने वाली पशुबलि के साथ तांत्रिक-वाममार्गी। हालांकि खुले रूप में बलि प्रथा अब लगभग खत्म है। हर रोज आने वाले लाखों श्रद्धालु तीनों मंदिरों के दर्शन के लिए बिखरे रहते है, दिन भर आने जाने का क्रम चलता रहता है, जिससे भीड़ स्वत: नियंत्रित रहती है। व्यवस्था प्रबंधन के लिए तीर्थपुरोहित समाज और जिला प्रशासन की भागीदारी के विंध्यविकास परिषद काम करता है। मंदिर के दानपात्र का चढ़ावा परिषद के पास और खुले रूप में दिये गए चढ़ावे पर पंडा समाज का हक होता है। खुले दान से यहां के लगभग 2500 परिवार का पालन होता है। जिनमें ब्राह्मण, माली, नाई, चर्मकार आदि शामिल है। लाखों की भीड़ की व्यवस्था के प्रशासन दस रूपये में पूड़ी सब्जि प्रदेश सरकार अलग से खर्च नही करती है। पूरे क्षेत्र को कई जोन में बांट कर जोनल मजिस्ट्रेट की तैनाती होती है। जिले के डीएम पर पूरी व्यवस्था को संभालने की जिम्मेदारी होती है। लगभग 2000 से अधिक पुलिस व पीएसी के जवान चप्पे-चप्पे पर नजर रखें है। सीसीटीवी कैमरे बेहद कारगर साबित हो रहें है। दर्शनार्थियों के वाहन के लिए टैक्सी स्टैंडों की भरपूर व्यवस्था की गई है। भक्तों के भोजन के लिए प्रशासन ने 10 रूपये में पूड़ी सब्जि खिलाने की व्यवस्था की है। भंडारे भी चलते है। तमाम श्रद्धालु मिट्टी के बर्तनों में भोजन बनाते है। पेयजल की समुचित व्यवस्था है। लेकिन यहां आ रहे भक्तों को उन सभी सडक़ों से परेशानी हो रही है जो या तो खस्ताहाल है या उनकी मरम्मत चल रही है। मां विंध्यवासिनी के माहात्म्य का जिक्र आदिशक्ति मंदिर के इतिहास पर शोध करने वाले डा.राजेश मिश्र बताते है कि त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल देवी, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। रक्तबीज का वध करने वाली महाकाली। यह सती के अंग गिरने से बना शक्तिपीठ नही बल्कि आदिशक्ति पीठ है। जिनका यजुर्वेद, मत्स्य पुराण, वाल्मिकी रामायण, मार्कण्डेय पुराण, देवी भागवत,दुर्गासप्तसती, कलिका पुराण आदि में उल्लेख है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं विन्ध्येचैवनग श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्। हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचल पर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराणमें विंध्याचल महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है। विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी। त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजी के साथ विंध्याचल आए थे। पूर्वजों के लिए रामगया घाट पर पिंडदान किया था। यहां शिवलिंग रामेश्वर महादेव की भी स्थपना का जिक्र मिलता है। मार्कण्डेयपुराण के दुर्गासप्तशती देवी माहात्म्य के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वत मन्वन्तर के अ_ाइसवेंयुग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और दोनों असुरों का नाश करूँगी।
श्रीमद्भागवत महापुराणके श्रीकृष्ण जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी की आठवें संतान श्रीकृष्ण को वसुदेव कंस के भय से रातों रात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।