भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन क्यों?

सुबोध तिवारी । हमारा देश भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से विशाल और विस्तृत है बल्कि वह अपनी विभिन्न प्राकृतिक सुन्दरता के कारण भी बहुत बड़ा देश है । भारत की प्राकृतिक सुन्दरता सचमुच में निराली और अद्भुत है ।अपनी इस अद्भुत सुन्दरता के कारण ही भारत विश्व का एक अनोखा और महान् राष्ट्र समझा जाता है । अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के साथ-साथ भारत की भौतिक सुन्दरता भी कम आकर्षक और रोचक नहीं है । हमारा देश अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण सबके आकर्षण का केन्द्र रहा है वास्तव में जितनी भारत की प्राकृतिक एवं भौतिक सुन्दरता है उतनी ही इसकी ऐतिहासिक सुन्दरता भी है वास्तव में इतिहास लेखन की पद्दति रोम एवं यूनान से शुरू हुई लेकिन भारत आते आते इतिहास लिखने की पद्दति में भी काफी बदलाव नजर आता है हालाँकि इसके भी कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस बात को बिलकुल भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि भारतीय इतिहास लेखन को स्वतंत्रत रूप से नहीं किया गया भारत में हमने कई महापुरुषों को अपनी इतिहास की पुस्तकों में भुला दिया। उन्होंने कई उदाहरण भी दिए। भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखें तो अबतक तो यही दिखाई देता है कि हमारे देश का ज्यादातर इतिहास गुलाम बनाने वालों ने या गुलाम मानसिकता वालों ने ही लिखा। माक्र्सवादियों ने जिस प्रकार से इतिहास लेखन किया उसको देखने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों की पड़ताल कर ली जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जब 1972 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना की गई थी तब इसका प्रमुख उद्देश्य था ‘वस्तुपरक और वैज्ञानिक इतिहास लेखन को बढ़ावा देना, जिससे देश की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत की समझ बढ़े व सही मूल्यांकन भी हो सके। अपने स्थापना काल से ही भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, माक्र्सवादी इतिहासकारों के कब्जे में चला गया। परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास लेखन में छल की प्रविधि का उपयोग होने लगा। यह अनायास नहीं है कि प्राचीन भारत के इतिहास से लेकर मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत के इतिहास में भारतीय नायकों को परिधि पर रखने की एक कोशिश दिखाई देती है। इतिहास लेखन के लिए औपनिवेशिक और माक्र्सवादी पद्धति अपनाई गई। वही पद्धति जिसने रूस के लेनिन-त्रॉतस्की शासन को लेनिन-स्तालिन शासन बना दिया। रूस के इतिहास से त्रॉतस्की को प्रयासपूर्वक ओझल कर दिया गया।
इस पद्धति के अलावा ब्रिटिश इतिहासकारों के लिखे को भी आधार बनाकर लेखन किया गया। लेकिन ब्रिटिश इतिहासकार किस तरह से सोचते हैं इसका एक उदाहरण डेविड वॉशब्रुक की आधुनिक भारत के संबंध में की गई एक टिप्पणी है। इस टिप्पणी से भारत को लेकर उनकी दृष्टि और मानसिकता का संकेत मिलता है। आधुनिक भारत का इतिहास लिखते वक्त वो एक जगह टिप्पणी करते हैं कि ‘1895 और 1916 के बीच मद्रास की सडक़ पर शायद ही कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता भौंका हो। देश का इतिहास वह नहीं है, जो भारत को गुलाम बनाने और गुलामी की मानसिकता रखने वालों ने लिखा। महाराजा सुहेलदेव को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। आज भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की अत्यंत ही आवश्यकता है, क्योंकि मुख्यधारा का भारतीय इतिहास लेखन बहुत ही संकीर्ण और तथ्यों के बजाय प्रोपेगेंडा पर ज्यादा टिका हुआ है, लेकिन इतिहास के पुनर्लेखन में छह महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। इतिहास लेखन के साथ पहली परेशानी परिप्रेक्ष्य की है। इतिहास को जनमानस के दृष्टिकोण से लिखा जाना चाहिए, न कि शासकों के। यह एक त्रासदी है कि भारत के इतिहास को विदेशी राजवंशों के इतिहास के रूप में लिखा गया और यहां के लोग मात्र फुटनोट्स में रह गए। विशेष रूप से मध्ययुगीन युग इतिहास तुर्क, अफगान, मुगलों आदि की राजनीति और युद्धों के बारे में है, न कि उनके विरुद्ध भारतीयों के प्रतिरोध एवं स्वाभिमान के बारे में। इतिहास लेखन के प्रमुख कारण जो इंगित करते हैं कि इतिहास में पूंजी को काफी महत्त्व दिया गया जिसने भारत के गौरवशाली इतिहास को छिपा दिया एवं लोगो को वही चश्मा पहनाया गया जो उस समय की सरकार अथवा ब्रिटिश सरकार ने पहनाने का आदेश दिया होगा
पहला कारण: इतिहास लेखन में दलित-आदिवासी जातियों और जनजातियों के इतिहास का अभाव
इतिहास लेखन में दलित-आदिवासी जातियों और जनजातियों के इतिहास का अभाव तीसरा मुद्दा है। अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां भारतीय आबादी का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा हैं और किसी भी इतिहास लेखन को बिना उनकी उपस्थिति के प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। शूद्र और यहां तक कि दलित जातियों से आने वाले शासकों की समृद्ध पंक्ति भी पाठ्यपुस्तकों में अनुपस्थिति है। राजा सुहेलदेव जैसे राजाओं का भी मुख्यधारा के इतिहास में कोई स्थान नहीं है। आदिवासी समाज, राजनीति, आध्यात्मिक परंपराओं, आदिवासी राज्यों और संस्कृति के बारे में छात्र शायद ही कुछ पढ़ते हों।
दूसरा कारण: भारत के हजारों वर्षों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की अनदेखी
इतिहास लेखन में छठी खामी भारत के हजारों वर्षों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की अनदेखी है। भारत की समृद्ध समुद्री परंपराएं, दुनिया भर में भारत के विचारों और दर्शन का प्रसार और भारत द्वारा आयातित विभिन्न प्रभावों का इतिहास लेखन में अभाव है। मानव सभ्यता चाहरदीवारी में घिरी रहकर विकसित नहीं होती। वास्तव में दुनिया के साथ संबंध किसी भी देश और सभ्यता के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं और यह भारत के साथ और भी अधिक है, जिसने हिंद महासागर क्षेत्र और मध्य एशिया में सामाजिक-राजनीतिक एवं आर्थिक विकास पर गहरा प्रभाव डाला और स्वयं भी उनके प्रभाव से लाभान्वित हुआ। दुनिया का पहला अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक बंदरगाह गुजरात के लोथल में बना, जहां से चार हजार वर्ष पहले भारतीय जहाज अरब, ईरान, अफ्रीका और बेबीलोन की ओर रवाना होते थे, न केवल सामान, बल्कि लोगों और विचारों के साथ। हड़प्पावासियों की सभ्यता एक समृद्ध व्यापारिक सभ्यता थी। दो हजार साल से भी पहले ओडिय़ा नाविक दक्षिण पूर्व एशिया के समुद्र में व्यापार कर रहे थे। इन व्यापारिक संबंधों के कारण भारत में दक्षिण पूर्व एशिया, पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की समृद्ध परंपरा का विकास हुआ।
तीसरा कारण: इतिहास केवल राजनीतिक इतिहास से कहीं अधिक होता है
पांचवां मुद्दा यह है कि इतिहास केवल राजनीतिक इतिहास से कहीं अधिक होता है। इतिहास लेखन में पर्यावरणीय इतिहास, सामाजिक इतिहास, आर्थिक इतिहास, प्रौद्योगिकी का इतिहास और ज्ञान, कला एवं साहित्य, उत्पादन प्रक्रियाओं, उद्योग आदि विषयों को अधिक से अधिक वरीयता देने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि प्रतिहारों ने एक शक्तिशाली सेना के साथ एक मजबूत और समृद्ध साम्राज्य का निर्माण किया और लगभग तीन सौ वर्षों तक भारत की सीमाओं का बचाव किया। इसके साथ उन्होंने एक उल्लेखनीय काम शानदार जल प्रबंधन और सिंचाई प्रणाली के निर्माण के रूप में किया। इसके चलते उन्होंने पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी उप-महाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में भी एक समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य बनाया।
चौथा कारण :भारत का इतिहास बेहद कमजोर धरातल पर आधारित है
चौथी समस्या यह है कि भारत का इतिहास न केवल त्रुटिपूर्ण परिप्रेक्ष्य से लिखा गया है, बल्कि वह बेहद कमजोर धरातल पर आधारित है। भारतीय इतिहास लेखन में वैचारिक बहसें और विचारधारा की लड़ाई अधिक हैं और पुरातत्व, तथ्य एवं डाटा बहुत कम हैं। हम संस्कृत, तमिल, कन्नड़, पाली और विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों के सैकड़ों ग्रंथों के आधिकारिक अनुवाद करने में भी विफल रहे हैं।
पांचवा कारण: इतिहास के कालक्रम में भारत की राजनीतिक और भौगोलिक विविधता की अनदेखी है
दूसरा मुद्दा इतिहास के कालक्रम का है, जो हड़प्पा युग से लेकर वैदिक युग और फिर मौर्यवंश के अधीन प्रथम साम्राज्य के उदय तक आता है और फिर गुप्त साम्राज्य और हर्षवर्धन से होते हुए दिल्ली सल्तनत, मुगलों और अंग्रेजों तक पहुंच जाता है। इसमें भारत की राजनीतिक और भौगोलिक विविधता की अनदेखी है तथा उत्तर भारत का दबदबा है। दक्षिण में चोल, सातवाहनों और यहां तक कि विजयनगर साम्राज्य को काफी हद तक अनदेखा किया गया है। इतिहास में चालुक्यों, गुर्जर-प्रतिहारों, कश्मीरी राजवंशों, काकतीय, राष्ट्रकूटों, पाल साम्राज्य, ओडिशा के गंगा और असम के अहोमों का भी ज्यादा उल्लेख नहीं है। इन राजवंशों और साम्राज्यों ने सदियों तक यूरोपीय देशों से बड़े क्षेत्रों पर शासन किया, लेकिन विडंबना देखिए कि अधिकतर भारतीय इनका नाम तक नहीं जानते। पाठ्यपुस्तकों में पूर्वोत्तर के इतिहास का उल्लेख न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। इतिहास दो शब्दों से मिलकर बना है इति+हास अर्थात निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ था। प्रत्येक देश का इतिहास उसकी भावी संतान के लिए मार्गदर्शक धरोहर होता है अपने पूर्वजों के महान कार्य से भावी पीढिय़ां प्रेरणा प्राप्त करती है उनकी भूलों का विश्लेषण करके भावी मार्ग निर्धारित करती हैं तथा गौरवशाली इतिहास की पुन: प्रतिष्ठा का प्रयास होता है लेकिन भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखें तो अब तक तो यही दिखाई देता है कि हमारे देश का ज्यादातर इतिहास गुलाम बनाने वालों ने या गुलाम मानसिकता वालों ने ही लिखा। माक्र्सवादियों ने जिस प्रकार से इतिहास लेखन किया उसको देखने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है सिर्फ भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना के उद्देश्यों की पड़ताल कर ली जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा जब 1972 में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की स्थापना की गई थी तब इसका प्रमुख उद्देश्य था ”वस्तु परक और वैज्ञानिक इतिहास लेखन को बढ़ावा देना” जिससे देश की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत की समझ बड़े वह सही मूल्यांकन भी हो सके। अपने स्थापना काल से ही भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, माक्र्सवादी इतिहासकारों के कब्जे में चला गया परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास लेखन में छलकी प्रविधि का उपयोग होने लगा यह अनायास नहीं है प्राचीन भारत के इतिहास से लेकर आधुनिक भारत के इतिहास तक भारतीय नायकों को परिधि पर रखने की एक कोशिश दिखाई देती है इतिहास लेखन के लिए औपनिवेशिक और माक्र्सवादी पद्धति अपनाई गई वही पद्धति जिसने रूस के लेनिन – त्रोत्सकी शासन को लेनिन -स्टालिन शासन बना दिया एवं रूस के इतिहास से त्रोत्सकी को प्रयासपूर्वक ओझल कर दिया गया। आज भारत के इतिहास लेखन को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। आधुनिक भारत का इतिहास भी मुख्यत: उन ब्रिटिश विद्वानों की देन है, जिनकी मुख्य दिलचस्पी इस देश के राष्ट्रीय गौरव को ख़त्म कर देने में थी। इसके साथ ही, भारत में इतिहास की समझ और उसके लेखन के प्रति समझ और पश्चिमी इतिहासकारों के बोध के अंतर को भी समझना होगा। विदेशियों ने भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अनदेखा किया। अपने औपनिवेशिक हित के कारण अंग्रेज भारतीय धार्मिक ग्रंथों, दंतकथाओं और पौराणिक ग्रंथों आदि में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के साथ न्याय करना तो दूर, उन्होंने उसे उपहास का पात्र बना दिया। भारत को उपनिवेश बनाना उन्हें उचित ठहराना था, इसलिए भारतीय इतिहास तथा साहित्य को हीन साबित करना उन्हें जरूरी लगता था। उपनिवेशवादी अंग्रेज लेखकों ने भारत के इतिहास और साहित्य को नकार कर ही अपनी सत्ता के खिलाफ विद्रोह को दबाया। इतना ही नहीं, उन्होंने भारतीयों में इतनी हीन भावना भर दी कि बाद में भी जो इतिहासकार हुए, उन्होंने भी अपनी एकांगी और अधूरी दृष्टि से ही भारतीय इतिहास को लिखा। अंग्रेजों और उनके बाद उनके पिट्टुओं का लिखा भारत का साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जो भी इतिहास है, वह एकांगी और भ्रम पैदा करनेवाला है। भारतीयों की इतिहास-दृष्टि भी अलग थी। उन्होंने समय को केवल ‘टाइम’ में न बांधकर ‘काल’ में बांधा था। अधिकांश उलटफेर तो शब्दों को नहीं समझने की वजह से ही है। काल में सांस्कृतिक-सामाजिक आचार समाहित हो जाते हैं। इसीलिए, भारतीय इतिहास-लेखन में अनायास ही तीन-चार सौ वर्षों तक की खाई भी आ सकती है, क्योंकि जब तक कुछ बड़ा सांस्कृतिक बदलाव नहीं होता था, भारतीय इतिहास अपनी गुंजलक में ही खोया रहता था। इसके अलावा, नामवरी से परहेज और श्रुति-परंपरा का होना भी भारतीय इतिहास-लेखन की भिन्नता में है। वेदों में जैसे नाम नहीं दिए गए हैं, रचयिता के, उसी तरह उनको श्रुति परंपरा से याद भी किया जाता था। इसीलिए भारतीयों ने न तो कभी ऐतिहासिक दस्तावेज लिखने में रुचि दिखाई, और न ही उन्हें सहेजने में। इसका मतलब यह नहीं था कि भारतीयों ने इतिहास लिखा ही नहीं था, या उन्हें आता ही नहीं था। दरअसल, अपनी औपनिवेशिक दृष्टि को जायज ठहराने के लिए अंग्रेजों ने सारा घालमेल किया। वह कोई महान जाति भी नहीं थे, जैसा कि हमारे वामपंथी-कांग्रेसी मित्र बताते रहते हैं कि उनके आने के बाद ही असभ्य भारतीय सभ्य हुए। यहां तक कि रामविलास शर्मा भी उनको कोसते हुए लिखते है:- “अग्रेजी राज ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को मिटाया, हिंदुस्तानियों से एक रुपए ऐंठा तो उसमें से छदाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार अंग्रेजों पर बलि-बलि जाते हैं।” (सन सत्तावन की राज्य क्रांति और माक्र्सवाद, पृ. 67)।
भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन सबसे जरूरी इसलिए है कि इसकी नींव ही सबसे बड़े झूठ पर रखी हुई है। वह, यह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। दूसरा, कारण यह है कि इस इतिहास पर कोई भी सवाल उठाते ही आपको प्रतिक्रियावादी, हिंदू राष्ट्रवादी और न जाने क्या-क्या कह दिया जाएगा। तीसरा, कारण यह है कि मिथकों के जवाब में हमें मिथक ही सुनाए गए हैं। चौथा, कारण यह है कि तथ्यों और सबूतों की रोशनी में जब आप बात करेंगे, तो वामपंथी-कांग्रेसी धड़े के तथाकथित इतिहासकार आपकी बातों का कोई जवाब देने ही नहीं आएंगे और आएंगे, तो कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ेंगे। (यह लेखक जेएनयू का है, वह भी उस दौर का, जब पहली एनडीए सरकार बनी थी, इसलिए पाठक समझ सकते हैं कि वहां इतिहास के नाम पर कितनी बहस हुई होगी। बहरहाल, इस लेखक को अच्छी तरह याद है कि इतिहास के एक शोधार्थी ने जब आर्यन इनवेजन के मसले पर परचा लिखकर वामपंथी गुब्बारे की हवा निकाल दी थी, तो एसएफआइ ने उसका जवाब देने के लिए देश के एक नामचीन इतिहासकार को बुला लिया था)।
आर्यों के विदेशी होने का सारा मसला भाषा-वैज्ञानिक तरीके पर है, लेकिन यह न भूलें कि यह सिद्धांत विलियम जोंस ने दिया था और 17 वीं सदी से पहले इस सिद्धांत का कोई नामलेवा नहीं था। (भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के दौर से इसको जोड़ कर देखें)। दूसरी, बात यह कि अगर आर्य कहीं बाहर से आए थे, तो उन्होंने समस्त वेदों में कहीं भी एक बार अपनी जन्मभूमि को क्यों नहीं याद किया है?? एक बार तो बनता है, भाई। तीसरी बात, वेदों में जिस मुंजवंत पर्वत का उल्लेख है, वह तो पंजाब में पायी जाती है (सारे संदर्भ, संस्कृति के चार अध्याय से)। चौथी और सबसे अहम बात, प्रख्यात माक्र्सवादी इतिहासकार रामविलास शर्मा भी इस मिथ को तोड़ते है:- वे लिखते हैं, “दूसरी सस्राब्दी ईस्वी पूर्व में जब बहुत-से भारतीय जन पश्चिमी एशिया में फैल गए, तब ऐसा लगता है, उनमें द्रविड़ भी थे। इसी कारण ग्रीक आदि यूरोप की भाषाओं में द्रविण भाषा तत्व मिलते हैं यथा तमिल परि (जलना), ग्रीक पुर (अग्नि), तमिल अत्तन (पीडि़त होना), ग्रीक अल्गोस (पीड़ा), तमिल अन (पिता), ग्रीक अत्त (पिता)। यूरोप की भाषाओं में 12 से 19 तक संख्यासूचक शब्द कहीं आर्य पद्धति से बनते हैं, कहीं द्रविड़ पद्धति से। (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग 2, पृ. 673)। पांचवी बात यह है कि अगर आर्य कहीं औऱ से यहां आए (जो अक्सर कहा जाता है, रूस या ईरान से आए) तो इतनी बड़ी यात्रा के दौरान कुछ तो अवशेष कहीं होने चाहिए। कहीं कोई हड्डी, कोई राख। हालांकि, कहीं कुछ नहीं है। छठी और अंतिम बात, इस संदर्भ में यह है कि जब स्वराज प्रकाश गुप्त ने रोमिला थापर के इस सिद्धांत को चुनौती दी थी, तो थापर ने उन्हें बौद्धिक जगत से बदर करवा दिया था। यह है इनके इतिहास-लेखन का सच। भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत इसलिए भी है कि अंग्रेजों ने हमें जिस तरह से हीन-भावना से ग्रस्त किया, हम पर बर्बर और असभ्य होने की मुहर लगा दी, हमें बताया कि उन्होंने हमें ज्ञान की रोशनी दी, उससे उबर कर हमें अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विरासत को सहेजने की जरूरत है। हमें सबसे पहले तो प्रश्न पूछने की जरूरत है। आखिर, प्रश्न पूछने को मनाही करना किस इतिहास-लेखन का हिस्सा है? हमें यह मान लेने में हर्ज नहीं कि ताजमहल वही है, जो हमें बताया गया है….लेकिन, अगर हम जानना चाहें कि आखिर शाहजहां के पहले के कागज़ातों में उसका उल्लेख क्यों है? ताज के बाहरी हिस्से में लगे लकड़ी की कार्बन डेटिंग से उम्र 11 वीं सदी पता चलती है और शाहजहां के दरबारी कागज़ों में कहीं भी इससे संबंधित उल्लेख नहीं, कई यूरोपीय पुरातत्वविदों और आर्किटेक्ट ने इसको हिंदू मंदिर जैसा बताया है, तो इन सवालों तक को क्यों उड़ा दिया जाता है?? इन पर चर्चा करने और इनके सही या गलत जवाब देने से किसको और क्यों आपत्ति है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि आगरे के लाल किले को भी शाहजहां द्वारा बनाया बताया जाता रहा है, जबकि वह मूलत: सिकरवार राजपूतों ने बनाया था (यह भी यूपीए शासनकाल में लिखी एनसीईआरटी की किताब में बदला गया है)। (एनसीईआरटी, सामाजिक विज्ञान, कक्षा 7) जब, तथ्यों के आलोक में यह जानकारी बदल सकती है, तो बाक़ी क्यों नहीं? इतिहास का पुनर्लेखन इसलिए जरूरी है कि हमें पता चल सके कि हमारे यहां स्त्री-शिक्षा की समृद्ध परंपरा रही है। हमारी ऋषिकाएं लोपा, अपाला, घोषा आदि-इत्यादि रही हैं, जिन्होंने कई मंत्र लिखे हैं। हमें इतिहास फिर से लिखना चाहिए,ताकि पता चले कि मुरैना में चौंसठ योगिनी का एक मंदिर है, जिसे शिव-संसद कहते हैं, जो नवी-दसवीं सदी का है और जो बिल्कुल उसी तरह का है, जैसी आज की भारतीय संसद। तो, क्या यह मुमकिन है कि ल्युटयंस की 20 वीं सदी की इमारत की नकल 9वीं सदी के लोगों ने कर ली? हमें इतिहास फिर से लिखना चाहिए, ताकि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, रानी अब्बक्का , सुहेलदेव आदि के बारे में पता लगे। ताकि, हम एक बार में यह मान लें कि हम किसको मिथक मानेंगे और किसे इतिहास? यदि महाभारत मिथक है, तो फिर एकलव्य की कहानी भी मिथक क्यों नहीं…रामायण मिथक है, तो केवट, शंबूक और शबरी की कहानी क्यों नहीं मिथक है? यदि ये मिथक हैं…तो सारा कुछ इतिहास क्यों नहीं है?

छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय
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