अफसरशाही की चक्की में पिसता धन: छतविहीन हुआ जा पहुंचा न्यायालय की शरण

गाजियाबाद। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण में तैनात रहे सेवानिवृत्त उद्यान अधीक्षक सत्य प्रकाश त्रिपाठी द्वारा उपाध्यक्ष जीडीए को पत्र लिखकर अपने बेसहारा बच्चों की छत ना छीने जाने की मार्मिक याचना की है। त्रिपाठी द्वारा पत्र में यह भी वचन दिया गया कि न्यायालय से निर्णय प्राप्त होते ही मय ब्याज के किराया भी जमा किया जाएगा। उक्त भवन का आवंटन ही त्रिपाठी के पक्ष में उक्त आशय का प्रमाण पत्र दिए जाने के उपरांत हुआ कि कहीं भी कोई भवन/ भूखंड नहीं है। त्रिपाठी की पीड़ा का दंश यह कि पहले तो जीडीए अफसरों ने स्थानापन्न/प्रोन्नति के निरस्तीकरण को पदोन्नति मानकर नियुक्ति को पदोन्नति समझ कर नियुक्ति ही निरस्त कर दी गई जबकि त्रिपाठी की श्रेणी के 27 कर्मचारियों में से अधिकांश धीरे धीरे सेवानिवृत्त होकर नियमित कर्मचारी का पूर्ण सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त कर चुके हैं। गजब तमाशा यह कि दिनांक 30 अगस्त 2007 को जीडीए द्वारा ही आरटीआई 2005 के तहत जवाब दिया गया कि दैनिक वेतन से विनियमित की गई नियुक्ति को पदोन्नति नहीं माना जा सकता। अब प्राधिकरण का अपने पूर्व आदेश के विपरीत उचित व नियमानुसार जवाब दिए जाने के उपरांत त्रिपाठी द्वारा प्राधिकरण में प्रत्यावेदन दिए गए। प्राधिकरण से निराश हो न्यायालय की शरण में जाने पर न्यायालय से प्राधिकरण को नोटिस उपरांत भी कोई सुनवाई नहीं हो पाई है। अब मजबूर होकर त्रिपाठी द्वारा प्राधिकरण द्वारा प्रेषित मकान खाली कराए जाने हेतु प्राप्त नोटिस पर बेदखली की अवस्था में परिवार सहित आमरण अनशन पर बैठने की सूचना दी गई है। त्रिपाठी हृदय रोग,मधुमेह,रक्तचाप जैसी विभिन्न गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। त्रिपाठी द्वारा मधुबन बापूधाम में छत मुहैया कराने के लिए किए गए आवेदन पर भी कोई सूचना ना दिए जाने का आरोप प्राधिकरण पर लगाया है। यह भी सर्वविदित है कि प्राधिकरण में कर्मचारियों को कई कई मकान पूर्व में आवंटित होने के उपरांत किराए के भवन प्राधिकरण द्वारा आवंटित किए गए हैं लेकिन त्रिपाठी द्वारा कहीं भी भवन/भूखंड ना होने का प्रमाण पत्र देने पर भी जवाब तक ना दिया जाना बेलगाम अफसरशाही का नमूना मात्र है। अब न्यायालय पर ही भरोसा किया जा सकता है कि गलत निर्णय के आधार पर कर्मचारी के व परिवार के भविष्य से खिलवाड़ करने की सजा किस प्रकार विभाग के साथ-साथ उच्च अधिकारी को भी दे जिसकी जरा सी कलम के चलने से आज परिवार सहित त्रिपाठी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होकर छतविहीन होने की अवस्था में स्वयं व परिवार को जेल में डालने की गुहार लगा रहे हैं कि ताकि वहां तो छत नसीब हो सके। यहां यह तो स्पष्ट सा होता प्रतीत होता है कि एक अफसर दूसरे अफसर के निर्णय को जल्दी से नहीं काटता। चाहे वह निर्णय गलत ही क्यों ना दिया गया हो।