अमृतांशु मिश्र। हिमाचल प्रदेश को लोग कहते हैं देवभूमि। वहां की भौगोलिक और प्राकृतिक सुंदरता शायद इसमें मदद भी करती है। कोरोना काल के बाद मिली ढील का फायदा उठाते हुए जून माह में हिमाचल प्रदेश की यात्रा मेरे जीवन की पहली यात्रा थी और इसमें हमने उन दुर्गम स्थानों का भ्रमण किया जहां शायद ही दोबारा जाने का मौका मिले। हिमाचल की मेरी यात्रा उत्तराखंड के हरिद्वार से शुरू हुई और हम चंडीगढ़ होते हुए शिमला पहुंच गये। शिमला पहुंचते-पहुंचते घड़ी ने दोपहर के 3 बजे का इशारा किया। हमें लगा कि शिमला हम लोगों का पड़ाव नहीं है और कुछ खा पीकर हम लोग आगे के लिए निकल गये। शिमला का प्राकृतिक सौंदर्य किसी से छिपा नहीं है। हरे भरे पहाड़ और नदियां मन को मोह लेती हैं। शिमला से कुछ आगे जाने के बाद ही सडक़ भी अपना स्वरूप बदल लेती है। कहीं पक्की सडक़ तो कहीं कच्ची धूल उड़ाती सडक़ें हैं। हम लोगों को नारकंडा पहुंचते-पहुंचते शाम हो गयी और सूरज भी डूब गया। दिन भर की थकान ने गाड़ी चलाने का जज्बा भी कम कर दिया और फैसला किया गया कि नारकंडा में ही रात्रि विश्राम किया जाये। रात्रि विश्राम के लिए वैसे तो नारकंडा में काफी होटल और होम स्टे हैं मगर जिस समय हम लोग पहुंचे लगभग सबमें जगह भर चुकी थी। समय भी तेजी से बीत रहा था जिससे थकान और बढ़ रही थी। थकहार हम लोग निराश हो गये तो वहां के स्थानीय होटल वालों ने बताया कि यहां से करीब 25 किमी. नीचे कुमारसैन जगह जहां आपको होमस्टे मिल सकता है। खैर हम लोग कुमारसैन के लिए रवाना हो गये तब तक रात्रि के 9 बज चुके थे ऐसे में पहाड़ पर गाड़ी चलाना किसी जोखिम से कम नहीं था। कुमारसैन के होम स्टे पहुंचने में हमलोगों को 2 घंटे लग गये। देर आयद दुरूस्त आयद की कहावत चरितार्थ हुई। कुमारसैन के आर्चिड व्यू होम स्टे में थकान के बाद ऐसी नींद आयी कि सुबह के 7 बजे नींद टूटी। होम स्टे के आतिथ्य से हम लोग अभिभूत थे। खैर नाशते आदि के बाद हम लोग अपने दूसरे गंतव्य के लिए रवाना हो गये। दूसरा गंतव्य था किन्नौर जिले में पडऩे वाला चितकुल। जोकि हिमाचल में भारत का सबसे अंतिम गांव है। कुमारसैन से हमलोगों को चितकुल पहुंचने में पूरा दिन लग गया। रास्ते में कहीं सूखे पहाड़ और कहीं हरी भरी वादियों ने थकान मिटा दी। रास्ते में पडऩे वाले नालों ने गाड़ी का रास्ता रोकने की भरपूर कोशिश की मगर फिर भी हमने सारी बाधाओं को पार करते हुए चितकुल फतह किया। चितकुल के रास्ते में सांगला की घाटियों की सुंदरता किसी का भी मन मोह लें। चितकुल पहुंचते-पहुंचते शाम के 7 बज चुके थे। जून के महीने में भी चितकुल में हाड़ कंपाने वाली ठंड थी। ठंड के कारण हाथ भी काम नहीं कर रहे थे और ऊपर से थकान ने बदन को तोड़ दिया था। मन में बस यही ख्याल आ रहा था कि किसी तरह से होटल मिल जाये और बिस्तर पर तुरंत गिर जाऊं। फिलहाल चितकुल में होटल मिलने के बाद हम लोगों ने रात का डिनर किया जिसमें कुछ हिमाचली व्यंजन और कुछ उत्तर भारतीय भोजन का समागम था। खा पीकर हम लोग विश्राम के लिए चले गये। सुबह जल्दी उठकर सूर्योदय देखना अपने आप में काफी अनूठा था। जैसे जैसे सूरज की किरणें पहाड़ों पर जमा बर्फ पर पड़ रही थीं उनका रंग सोने जैसा हो गया था। सुबह के नजारों के बाद हम लोग नाशते के लिए तैयार हो गये। नाशता आदि करने के बाद हम लोक कल्पा जाने की तैयारी में लग गये। चितकुल से कल्पा की दूरी करीब 60 किमी है मगर हम लोगों का गंतव्य स्थान काजा था।
-क्रमश: