चार पुस्तक चार वक्ता कार्यक्रम को लेकर नदलेस ने की कार्यकारिणी की बैठक

नई दिल्ली। नदलेस की कार्यकारिणी ने डा. कुसुम वियोगी की चार पुस्तकों पर परिचर्चा ‘चार पुस्तक चार वक्ता’ कार्यक्रम को लेकर दिल्ली विश्विद्यालय, नॉर्थ कैंपस, आर्ट फैकल्टी के लॉन में बैठक का आयोजन किया। बैठक की अध्यक्षता नदलेस के अध्यक्ष डा. अनिल कुमार ने की व संचालन डा. अमित धर्मसिंह ने किया। बैठक में नदलेस की संरक्षक पुष्पा विवेक, प्रचार सचिव डा. अमित कुमार, सदस्य गीता कृष्णांगी और लोकेश चौहान के अतरिक्त डा. हरकेश कुमार, अमिता महरोलिया व ज्योति कुमारी जी उपस्थित रहीं। बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि डा. कुसुम वियोगी जी की पुस्तकों पर कार्यक्रम ऑफलाइन रखा जायेगा। इसके लिए वक्ताओं ने अपने-अपने मत कुछ इस प्रकार रखे। अध्यक्ष डा. अनिल कुमार ने कहा कि दलित साहित्य यथार्थ का साहित्य है, आभासी दुनिया का नहीं इसलिए इसके कार्यक्रम भी यथार्थ रूप में होने चाहिए। आभासी दुनिया में हम चाहे कितने ही लोगों से क्यों न जुड़े हुए हों, लेकिन रहते अकेले और एकाकी ही हैं। उन्होंने मुकेश मानस जी की ‘स्मृति सभा’ का हवाला देते हुए कहा कि कुछ पता नहीं चलता कि कब किसको किसकी जरूरत होती है। जो बात व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से मिलकर एक दूसरे से रख सकता है, वह आभासी दुनिया में नहीं रखी जा सकती है। पुष्पा विवेक ने कहा कि आजकल देखने में आ रहा है कि लेखक अथवा किसी संस्था के एक दो पदाधिकारी मिलकर, घर में ही पुस्तक के साथ फोटो खिंचवा लेते हैं और उसी को पुस्तक का विमोचन मान लिया जाता है। जो कि गलत है। जब तक संबंधित पुस्तक पर खुलकर चर्चा न की जाए तब तक उसका कैसा विमोचन और कैसी परिचर्चा? इसके अलावा जब हम किसी कार्यक्रम में मिलते हैं, तो न सिर्फ कार्यक्रम की विश्वसनीयता बढ़ती है बल्कि कई ऐसे दोस्त भी आपस में मिल लेते हैं जो आपस में घर से लेकर अपने सुख दुख तक की बातें कर लेते हैं। इससे हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत संबंध मजबूत होते हैं। डा. गीता कृष्णांगी ने कहा कि मुझे लगता है कि कार्यक्रम ऑफलाइन ही किया जाना चाहिए। क्योंकि पुस्तकों के प्रति हमारी जो उत्सुकता और जिज्ञासा होती है, उसकी पूर्ति ऑफलाइन कार्यक्रम में ही हो पाती है। अक्सर यह देखने में आता है कि ऑनलाइन कार्यक्रम में लोग ठीक से कनेक्ट नहीं हो पाते हैं। कभी नेटवर्क का इश्यू होता है तो कई बार सम्मिलित होने वाले की अरुचि का। कई लोग तो ऑनलाइन जुडऩे के पश्चात ऑडियो और वीडियो ऑफ करके अपने दूसरे कार्यों में संलग्न रहते हैं। ऐसे और भी बहुत से कारण हैं जो ऑनलाइन कार्यक्रमों की उपयोगिता पर सवाल खड़े करते हैं। डा. अमित धर्मसिंह ने कहा कि जब तक आप किसी पुस्तक को अपनी आंखों से प्रत्यक्ष विमोचित होते और छूकर अथवा खोलकर नहीं देख लेते, तब तक किसी पुस्तक के विमोचन अथवा उस पर रखी गई परिचर्चा का कोई खास औचित्य सामने नहीं आता। जो फर्क किसी फिल्म के अभिनेता से हाथ मिलाने और उसकी फिल्म देखने में है बिलकुल वैसा ही फर्क ऑनलाइन और ऑफलाइन कार्यक्रम करने में है। ऑनलाइन कार्यक्रम में आप लेखक और वक्ताओं को देखते व सुनते हैं, उनसे मिलते नहीं हैं।यह भी देखने में आया है कि मीडिया ऑनलाइन हुए कार्यक्रमों को कोई खास तरजीह नहीं देती है।