उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में अभी धुंध है

डा. सीपी राय। चुनाव आयोग के चुनाव की तारीखो का एलान हो चुका है और सभी चुनावी प्रदेशो के साथ उत्तर प्रदेश का भी राजनीतिक तापमान इस कडक़डाती ठंड भी बढ़ गया है ।हर चुनाव की तरह इस बार भी एन मौके पर आस्थाए दरक रही है और स्वार्थ को सिद्धांत या उपेक्षा के मुलम्मे मे परोसा जा रहा है और घर बदल को तार्किक बनाया जा रहा है । लम्बे समय से दल बदल बुराई और सिधान्तहीनता का नही बल्कि समझदारी, चालाकी और समय पर निर्णय लेने की क्षमता का प्रतीक बन चुका है।ये अलग बात है कि इन सब के नीचे दबा हुआ लोकतंत्र कराह रहा है और बनियादे मुद्दे पाताल मे पड़े है । उत्तर प्रदेश के इस चुनाव मे जहा भाजपा के खाते मे तमाम वादाखिलाफी, नाकामियां,बेरोजगारी ,महंगाई, कानून व्यवस्था , भ्रस्टाचार,कोरोना काल की बदहाली या योगी आदित्य नाथ का अक्खड़ स्वभाव ,जनता तो दूर खुद अपने ही विधायको से दूरी और सबकी नाराजगी तथा उनके सजातीय लोगो के वर्चस्व और कुछ अधिकारियो के हाथ मे सिमट गया सत्ता संस्थान है तो समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी के खाते मे उनकी सरकारो की कुछ कड़वी यादे और उससे भी ज्यादा पिछले 5 सालो जनता के सवालो पर मुखरता का अभाव और सडक तथा संघर्ष से दूरी है । कन्ग्रेस जरूर पिछले कुछ समय से प्रियंका गांधी के नेत्रत्व मे जनता के बीच खास घटनाओ पर पहुची और लडकी हूँ लड़ सकती हो का नया एजेन्डा दे दिया जो आकर्षक लगा पर प्रियंका गांधी की राजनीति मे निरंतरता का अभाव और उनकी टीम का उत्तर प्रदेश की राजनीति को इवेंट के नजरिये से देखना और उनका भी उप्लब्ध नही होना उनकी बड़ी कमजोरी साबित हुआ है ।जब जब प्रियंका गांधी निकली राजनीति के आकाश पर चमकी पर फिर एक लम्बी चुप्पी और अदृश्य हो जाना भाई बहन दोनो को राजनीतिक रूप से अगम्भीर बनाता रहता है ।उत्तर भारत की राजनीति पूर्णकालिक है और नेता को हर रोज सडक और लोगो के बीच होना पडता है । इसिलिए कांग्रेस से चाहे अनजाने से कुछ लोग जुडे हो पर जाने पहचाने चेहरे या तो नदारद है या पलायन कर रहे है । इन हालातो मे अब सभी दल युद्ध के मैदान मे विजयी घोडा साबित होने को जद्दो-जहद कर।रहे है ।जहा कई प्रदेशो की हार के बाद आरएसएस और भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश चुनावी चक्रव्यूह का अंतिम और करो या मरो वाला द्वार है वही समाजवादी पार्टी के लिये भी पार्टी और नेता के भविश्य का निर्धारक साबित होना है । बसपा टिकेट के बेचने के आरोप के नीचे कराह रही है और बस अपनी उपस्थिति बनाये रखने तथा वोट बैंक बचाए रखने की चुनौती उसके सांमने है पर अभी तक प्रत्यक्ष तौर पर उसमे धार का अभाव दिख रहा है और आत्मविश्वास से क्षीण मायावती मिश्रा जी के सहारे ब्राह्मण मतदाताओ से आस लगा कर बैठी है तो लगता है कि कांग्रेस किसी दैवीय चमत्कार की आस लगाकर बैठी है जबकि 32 साल सत्ता के बाहर होने के कारण और प्रियंका गांधी का नया नेतृत्व होने के कारण इस चुनाव मे वो अश्वमेघ का घोडा साबित हो सकती थी । तमाम छोटे दल मोल भाव के हिसाब से पाले तय कर रहे है तो आया राम गया राम ने भजन लाल की लकीर को पीछे छोड़ दिया है । जहा तक रणनीति और रुझान का सवाल है भाजपा ने पहले अपने आजमाये हुये ब्रहमाश्त्र हिन्दू मुस्लमान और मंदिर पर ही मुख्य भरोसा अभी तक किया और साथ ही पहले कांग्रेस को निशाने पर लिया तो आगे चल कर प्रधानमंत्री से लेकर सभी नेताओ ने सपा पर हमला शुरु किया जिसके कारण उसको खुद ही मुख्य प्रतिद्वंदी कबूल कर लिया और उसे मजबूती देने के साथ इधर उधर जाने वाले नेताओ को भी उधर का रास्ता दिखा दिया । दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा अपने मुख्य गढ़ उत्तर प्रदेश मे पहले तो प्रधानमंत्री सहित सभी के कार्यक्रमो के लिये अधिकारियो द्वारा पत्र जारी करने और भीड़ लाने की जुगत के कारण सवालो के घेरे मे आ गयी तो लायी गयी भीड़ के रुख से भी उसको धक्का लगा और एक सवाल उठा की इनके और आरएसएस के लाखो लोग कहा चले गये । दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने बहुत सुरक्षित तरीका अपनाया और जहा भी कार्यक्रम रखा उस क्षेत्र के आसपास के 50/60 टिकेट चाहने वालो को अपनी शक्ती दिखाने की चुनौती दे दिया परिणाम स्वरूप सभी अपनी अपनी भीड़ लेकर आये और संगठन भी अपनी उपस्थिति दर्ज करने पहुचा । सपा की सभाओ मे बोलती हुयी भीड़ ने एक सन्देश देने का काम किया । कांग्रेस ने पिछले दिनो जो अनजान से लोगो का एक नेट्वर्क खड़ा किया था ऐसा उनका दावा है की प्रियंका गांधी की इधर जो भी रैलिया हुयी वो उनके कारण विशाल हुयी । हा केवल महिलाओ के साथ संवाद मे और मैराथन मे 10 से 20 हजार या उससे ज्यादा महिलाओ और लडकियो की उपस्थिति निश्चिंत ही राजनीतिक पण्डितो को भी चौकाने वाली है तो बसपा अभी शायद किसी मुहूर्त का इन्तजार कर रही है। इधर स्वामी प्रसाद मौर्य और काफी विधायको और नेताओ का लगातार भाजपा ,कांग्रेस और बसपा से सपा की तरफ जाना निश्चित ही एक खास सन्देश का वाहक बनता है तो सपा बसपा और कांग्रेस से लोगो का भाजपा की तरफ जाना भी सवाल पैदा करता है ।
जहा पच्चिमी जिलो मे किसान आन्दोलन से उपजी परिस्थितियो पर राजनीति निगाह रख रही है और वोटो की करवट को परख रही है वही पहले ठाकुर बनाम ब्राह्मण से शुरु किया गया खेल बड़ी जाति बनाम पिछडी बनाने की कश्मकश जारी है । जहा नॉएडा गाजिय़ाबाद मेरठ से लेकर अलीगढ हाथरस और आगरा तक भाजपा भारी दिखती है तो सहारनपुर से लेकर रामपुर मुरादाबाद बदायू इत्यादि मे सपा दिखती है ।बीच मे कही कही बसपा भी खडी दिखेगी ।आगे मैनपुरी से लेकर कानपुर देहात तक फिर बाराबंकी से लेकर आज़मगढ़ तक सपा मजबूत दिखती है तो इलाहबाद बनारस सहित कई जिले भाजपा के साथ आज भी खडे दिखते है । बुंदेलखंड मे अभी तक भाजपा कुछ बढत पर दिखती है ।पूरे प्रदेश मे प्रत्यक्ष रूप से तो भाजपा और सपा की कांटे की टक्कर है और बाकी लोग भी अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद मे है । बनिया पंजाबी और सिन्धी ही कभी भाजपा का मूल आधार थे पर मंदिर आन्दोलन के बाद कांग्रेस के नेपथ्य मे जाने के बाद जहा बड़ी जातियो मे भाजपा की तरफ रुख किया तो धर्म के लिये कष्ट सहने वाले पिछड़ो और दलितो ने भी उधर का रुख किया ।गोविंदाचार्य के फार्मूले पर भाजपा ने उस जातियो पर विशेष ध्यान दिया जिनको राजनीति मे कोई पूछता नही था पर थोडी थोडी होने के बावजूद उनकी संख्या विधान सभा क्षेत्र मे 15 से 20 हजार या उससे ज्यादा होती है और यही अति पिछड़े तथा अति दलित भाजपा की ताकत बन गये ।यद्दपि 2014 , 17 और 19 के चुनाव मे यादव सहित ऐसी पिछडी और दलित जातिया भी हिन्दूवाद के झूले पर कम या अधिक झुली तभी भाजपा का वोट भी बढा और सदन मे संख्या मे ।दूसरी तरह अन्य दलो को भी बार बार सरकार बनाने का मौका मिला पर वो अपना और अपने तक सीमित हो गए । अगर सत्ता मे रहने के दौरान अन्य पिछड़ो और दलितो को भी इन नेताओ ने बराबरी का एहसास करवाया होता और सामान अवसर दिया होता तो भाजपा अपना।अस्तित्व तलाश रही होती और ये पिछड़े तथा दलित नेता अजेय हो गये होते । इस बार अंतिम समय मे ही सही सपा ने अन्य पिछड़े को भी सन्देश देने का प्रयास किया है और भाजपा भी उसे अपने साथ रखने के प्रयास मे है ।
माना जाता है राजनीति मे कम से प्रमुख ढाई जाती आप के साथ है तभी आप लडाई मे रह सकते है और जब तक कम या ज्यादा करीब करीब सभी जातियो का थोडा बहुत वोट नही मिलेगा तक तक किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नही मिल सकता है । अब युद्ध का मैदान सज़ा है और सभी पक्ष अपने अपने राजनीतिक हथियारो के साथ मैदान मे है । एक हथियार को चलते देख उसे अन्तिम मान लेना उचित नही होगा क्योकी दोनो कोई पक्ष कोई दाव पेंच नही छोडने वाले है और सभी ने कुछ अस्त्र बचा कर रखे है समय पर प्रयोग करने को। अगर जानकारी सही है तो बसपा से प्रमुख लोगो का सपा की तरफ जाना अभी रोका गया है तो सपा से भाजपा की वैतरणी मे भी कुछ लोग डुबकी लगा सकते है जबकि बाकी दल अभी एक्सट्रा खिलाडी की तरह इन्तजार कर रहे है ।एक बात तय है कि आज की तारीख तक जाड़े के कोहरे की चादर उत्तर प्रदेश की राजनीति के भविश्य को और आगे के दृश्य को ढके हुये है परंतु जनवरी के अन्त मे कोहरा छटने लगेगा और 10 मार्च को तो सब कुछ आसमान पर लिख गया होगा ।
स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक