मानसूनी तमाशे में दम तोड़ती किसान की उम्मीदें

kisan sookha
विमल शंकर झा।
कस का किसान भैया तोर काय हाल चाल हे..। देशभर मा तोर नाव के बवाल है..। मतलागे पानी हर ढिमरा मन के मारे,मछरी मन जाएं कहां तरिया भर जाल है..। कवि मुुकुंद कौशल की यह पंक्तियां महज शायराना अंदाज नहीं बल्कि इस देश के किसानों की वह पीड़ा है जिससे वह आज गुजर रहा है। लोकतंत्र के मंदिर में एक-दूसरे को चोर बताने की अली बाबा की सियासी तमाशेबाजी में उसकी मानसूनी उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। हाड़तोड़ मेहनत अपना पेट काट कर देश और दुनिया का पेट भरने वाला अन्नदाता पूरे देश के साथ कातर दृष्टि से बेबस होकर देखता रहा है । कहने को तो मानसूनी सत्र है मगर मानसूनी समस्याओं को छोड़कर सियासी जुमलेबाजी से लेकर वृहन्नलाई नखरेबाजी तक सारी राजनीतिक नौटंकी हो रही है। संसद को हाईजैक करने वाले सत्तापक्ष और विपक्ष को क्या इसकी परवाह है कि देश इस समय खेत-खलिहान के वीरान हो जाने की भयावह त्रासदी की ओर बढ़ रहा है । छत्तीसगढ़ और बुंदेलखंड जैसे राज्य में सूखे के हालात से चिंता के बादल घने हो रहे हैं तो देश के कई राज्य बाढ़ की त्रासदी झेल रहे हैं। इससे बेपरवाह सियासतमंदों को कर्ज के तनाव से गुजर रहे किसानों की ङ्क्षचता और न ही रोजमर्रे की परेशानियों से जूझने वाले बहुसंख्य मुफलिसों मजलूमों ,मजूदरों,कर्मचारियों, महिलाओं और युवाओं की । डेढ़ महीने का अहम संसद का मानसून सत्र हंगामे के चलते किसानों के साथ पूरे देश को हताश कर गया । बहुमत की जैसी दादागीरी और विपक्ष के नाम पर अल्पमत की जैसी गांधीगीरी दोनों सदनों में दिखी उससेे लोकतंात्रिक मर्यादा संसदीय गरिमा मटियामेट हुई । जनमत के अभिमत की ऐसी अराजकता देख लोगों को यह अहसास हुआ कि हमने कैसे लोगों को चुनकर लोकतंत्र के मंदिर में भेज दिया है। जनता के करोड़ों रुपए से चलने वाली संसद को जनसमस्याओं के निदान और विकास का मंच बनाने के बजाए सियासी अखाड़ा बनाने की टीस राष्ट्रपति तक ने महसूस की । स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर देश के नाम संबोधन में कहा कि लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं। संसद परिचर्चा के बजाए टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है। इस पर राजनीतिज्ञों को सोचना चाहिए। संविधान का सबसे कीमती उपहार लोकतंत्र है। इसे बचाना होगा। क्या राष्ट्रपति का यह आर्तनाद मोटी चमड़ी वाले सुन्न हो रहे कानों तक पहुंचेगा । संसद में कांग्रेस और भाजपा के लोगों ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया वैसी बोली तो इनके बंगलों के सर्वेंट क्वार्टरों और स्लम बस्तियों में भी नहीं होता होगा । जनहित के मुद्दों को छोड़ दोनों दलों के नुमाइंदों को एक दूसरे पर भृकुटियां तानते देख जनता को अब इन पर गुस्सा नहीं तरस आता है। जनता के वोट से विकास का वादा कर संसद के काबिल बने कोहराम मचाने वाले दोनों दलों के नुमाइंदों ने कभी सोचा है कि उनकी इस नौटंकी को पूरी दुनिया देखती है। और क्या उनके दिगभ्रमित करने से देश सच्चाई से विमुख हो जाएगा। चुनाव के पहले प्रधानमंत्री मोदी और उनके लोग कांग्रेस को भ्रष्टाचार के लिए गरियायाते नहीं थकते थे और एक मौका देने की बारंबार गुहार करते थे। मगर जब मौका मिला तो क्या मौका..मौका नहीं कर डाला। पूरे देश के साथ खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज कुख्यात भगौड़े गुनहगार रमेश मोदी मामले की सच्चाई जानती है। वे स्वीकार भी कर रही हैं कि रमेश मोदी की पत्नी मदद की । मगर के पीछे वे मानवीयता का मुलम्मा चढ़ा रही है। यह तो वैसी ही बात हुई कि कोई किसी की हत्या कर दे और बोले मैंने तो मानवीयता के लिए हत्या की। मजे की बात यह है कि मदद के एवज में परिवार ने लाभ भी लिया । यह कैसी नैतिकता है? पूरी की पूरी सरकार वसुंधरा और सुषमा को बचाने में लगी हुई है। क्या यह सरकार भी कांग्रेस के नक्शकदम पर नहीं चल रही है। क्या फर्क है भ्रष्टाचार और सत्ता की तानाशाही के मामले में दोनों में। रमेश मोदी जैसा आर्थिक घबलेबाज जो भाग कर दूर देश में जाकर बारी -बारी से सबको भ्रष्ट बताता रहा । और मीडिया मसालेदार खबरों के रुप में देश को परोसते रहा।सवाल यह है कि जो खुद आईपीएल और कई मामलों में खपलेबाज है उसकी बातों में कितनी सच्चाई है? मगर यह भी है कि उसकी सच्चाई पर तो खुद सुषमा स्वराज यह कहकर मुहर लगा रही हैं कि हां मैंने उनकी पत्नी की बीमारी हेतु मदद की।सवाल यह है कि बीमार तो बहुत जेलो में बंद उन अपराधियों की मदद क्यों नहीं की? और यदि मदद की तो फिर उसके एवज में परिवार के लिए मदद क्यों ली? विपक्ष ऐसे आरोप लगा रहा है। सुषमा पर इसके पहले भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री रेड्डी बंधुओं को कोयले की दलाली में संलिप्तता के अरोप कांगेस लगाती रही है। अच्छा तो यह होता कि मोदी सुषमा और वसुंधरा दोनों का इस्तीफा लेकर विपक्ष की बोलती बंद कर देश के सामने नैतिकता की मिसाल पेश करते । संसदीय कोहराम भी थम जाता और जनता व देश के अहम विधेयकों पर भी सार्थक चर्चा हो जाती । मगर ऐसा करने के लिए नैतिक साहस और राजनीतिक सद्चरित्रता की जरुरत होती है जो सल्तनत के तख्तेताउस पर बैठते ही गायब होने लगती है। कांगे्रस के साथ भी तो दस साल तक यही हुआ था। जिस अंहकार, दर्प और बड़बोलेपन से आज मोदी और उनके मंत्री गुजर रहे हैं,वही सत्ताई गुरुर तो कांग्रेस के मंत्रियों में था जिसे मौका मिलते ही जनता न चूर-चूर कर दिया । याद है न कैसे अन्ना आंदोलन के दौरान रात को संसद में बिना अनुमति के राहल बोलने लगे थे और लोकपाल को खारिज कर दिया था । उन्हें उस समय यह अहसास क्यों नहीं हुआ कि चंद महीने बाद भी उनकी सरकार को जनता खारिज करने वाली है। दरअसल यह चेयर का मिजाज है होता है कि इस पर बैठते ही व्यक्ति बौराने लगता है। बैठने के पहले तो अच्छा खासा होता है मगर इस पर बैठते ही पता नहीं क्या हो जाता है। अभी मुख्यमंंत्री रमन सिंह भिलाई के एक सतनामी सम्मेलन में बोल रहे थे कि एक बार विधायक -सांसद बनने के बाद उसका चाल,ढाल व्यहहार बदल जाता है। वे बिल्कुल सच कह रहे थे कि उन्हीं दल में ऐसे कई विधायक हैं जो रावण को भी अहंकार में फेल कर दें। बहरहाल सत्तारुढ़ भाजपा व कांग्रेस दोनों जिस तरह से डेढ़ माह तक संसद को हाईजैक कर के रखा उससे जनता में उनकी छवि खराब तो हुई ही भरोसा भी कम हुआ । देश पर मंडराते आतंकी खतरे, पचास रुपए वाली प्याज और चायना दाल मंगाने की मजबूरी वाली मंहगाई,स्टील उद्योग की कमर टूटने और बेकारी गरीबी बढऩे जैसी समस्याओं को दरकिनार कर जिस अमर्यादित और अराजक तरीके से सियासी रहनुमा चीखते चिल्लाते और विलाप करते रहे उससे लोगों में राजनीति के प्रति वितृष्णा बढ़ी । एक दौर था जब संसद में पं. नेहरु अटल बिहारी वाजपेयी, कृपलानी, फिरोज गांधी और लोहिया जैसी सियासतदानों के गरिमामयी संसदीय व्यवहार व वैचारिक बहसों से संसद की गरिमा बढ़ती थी। उनमें परस्पर तालमेल देश व और समाज हित में होता था । एक दौर यह है जहां अपनी खुदगर्जी और राजनीति के लिए देश और समाज हित को गौण कर दिया गया है। विपक्ष ने जिस तरह से अध्यक्ष की आसंदी का अपमान किया वह संसदीय मर्यादा पर धब्बा है। विपक्ष को चाहिए था कि वह संसद में जनहित के प्रस्तावों पर बहस के लिए मदद करती और सुषमा मामले में संसद में मर्यादित तरीके से दबाव बनाने के साथ सड़क की लड़ाई लड़ता । गलतियों पर सरकार कान मरोडऩा विपक्ष का कर्म है और गलती स्वीकार करना सत्ता का राजधर्म है। यह सच है कि सियासत का अखाड़ा बनी संसद में आज कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़ रहा है मगर यह भी सच है कि बारी -बारी से सल्तनत संभालने वाली देश की दोनों बड़ी पार्टियां यदि इसी तरह से नूराकुश्ती करती रहेंगी तो जनता उनकी सियासी पैंतरेबाजी को ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करने वाली है। बिहार चुनाव सामने है। कांग्रेस को पिछला लोकसभा चुनाव नहंीं भूलना चाहिए और भाजपा को दिल्ली चुनाव को याद रखना जरुरी है। जनता जनार्दन से बड़े वे हैं और न ही उनकी कुर्सी । मोदी सरकार की यह कोशिश होना चाहिए कि राजनीतिक शुचिता की कथनी के अनुकूल संसदीय परंपरा मजबूत हो । गरिमा बनी रहे। इसके लिए जरुरी है कि वह सब न हो जिसके लिए वह कांगे्रस के पाप गिना कर जनमत हासिल कर पाई । यदि वह भी वही सब करेगी तो फिर फर्क क्या रह गया । कांग्रेस को भी चाहिए कि विपक्ष का भूमिका मर्यादित और धीरज के साथ निर्वाह करे। वह जनहित सर्वोपरि है स्वहित नहीं,यह दोनों को देशहित में स्वीकारना जरुरी है, वरना विश्व का सबसे बड़ा यह लोकतंत्र टूट जाएगा। दोनों ही दल सबसे बड़े और पुराने हैं सबसे ज्यादा गंभीर आरोप भी इन्हीं पर लगे लिहाजा दोनों की कोशिश हो कि मिल कर ऐसा कर कुछ कर जाएं कि अब बहुत हो लिया, सात पुश्तों का जुगाड़ हो गया अब देश-समाज के लिए कुछ किया जाए। ऐसा अधम काम न करें कि फिर किसी मुक्तिबोध को लिखना पड़े कि मर गया देश जीवित बच गए तुम । सोचें कि कितने बलिदानियों के खून पसीने से यह आजादी मिली है। स्वतंत्रता दिवस पर इनका बखान अपनी राजनीति चमकाने नहीं उनसे प्रेरणा लेने करें । आजादी के सिपाहियों का इतिहास भाषण की चीज नहीं आचरण की है।