समान शिक्षा, समान सम्मान और विकास

shalini sri
शालिनी श्रीवास्तव।
सम्पूर्ण शिक्षा में मानव का विकास निहित है और समान शिक्षा में देश की अंखण्डता का। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं में एक बिंदु यह भी शामिल है कि एक निश्चित स्तर तक हर शिक्षार्थी को बिना भेदभाव के एक जैसी शिक्षा प्रदान की जाये। और इस लिहाज से हालही में इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा शिक्षा को लेकर दिया गया फैसला अहम, महत्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय है। इससे न सिर्फ उत्तरप्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालात सुधरने के आसार हैं बल्कि इससे शिक्षा में समानता और एकरूपता आने की भी पूरी संभावना है। पूरे भारत के लिए कोर्ट का यह क्रांतिकारी फैसला तब तक निरर्थक ही रहेगा, जबतक इसे हकीकत में साकार न कर लिया जाये । शिक्षा की दशा और दिशा सुधारने के लिए न जाने ऐसी कितनी ही योजनाएं, संगठन, नीतियाँ एवं आयोग की सिफारिशें कागजों में सदियों से साकार होने की इंतजार में पड़ी है । चाहे फिर वह बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पूरी तरह से लागू करने की हो, राधाकृष्णन आयोग की हो या फिर मुदलियार या कोठारी आयोग की कुछ महत्वपूर्ण सुझाओं की।
हमारे देश एवं जनता के हित में कार्य कर रहे नेताओं, संगठनों एवं व्यक्तिगत लोगो में एक छोटी सी कमी हमेशा देखी गई है। वह यह कि जितना ध्यान और मेहनत किसी कानून या विधेयक को पारित करवाने में लगाया जाता हैं उसका एक प्रतिशत भी उसको सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करवाने या कराने में नहीं लगाया जाता। शायद यही वजह है कि हमारा देश समुचित विचार, व्यवस्था और कानून होने के बाद भी कई मामलो में निसहाय नजर आता है। कोर्ट के अपने इस फैसले को साकार करने में काफी मुश्किलो का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि लोग सरकारी नौकरी तो चाहते हैं, परन्तु सरकारी स्कूल या सरकारी अस्पताल नहीं। सरकारी स्कूल हो, दफ्तर हो या फिर अस्पताल, ये सब समाज में बदहाली का प्रतिक बनते जा रहे हैं। मान्यता यहाँ तक है कि सरकारी नौकरी को छोड़कर, दूसरी सभी सरकारी व्यवस्थाएं सिर्फ गरीबों के लिए हैं। शायद यहीं से अमीरी- गरीबी का फर्क सरकारी स्तर पर शुरू होकर पूरे देश को खोखला बनता जा रहा है। और यदि यह फर्क एवं असमानताएं शिक्षा के स्तर पर जारी रहा तो निश्चित है कि आगे आने वाली पीढ़ी अवसादग्रस्त तो होगी ही साथ ही जिस अखंडता, संप्रभुता एवं समानता की बात हम करते है वहां पहुँचना तो दूर उसकी कल्पना भी दूभर होगी। जब शिक्षा पर प्रत्येक बच्चे का सामान अधिकार है तो अमीरों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग शिक्षा क्यों? पाठ्यक्रम अलग क्यों? शिक्षा में इतने सारे बोर्ड क्यों? अलग-अलग मीडियम क्यों? आखिर यह किस स्तर शिक्षा की समानता है? बात अगर प्राथमिक शिक्षा कि करे तो न सिर्फ प्रत्येक राज्य में इसके स्वरूप में भिन्नता है बल्कि भाषा, पाठ्यकर्म एवं बोर्ड भी अगल -अलग हैं। लेकिन सबसे बड़ा फर्क शिक्षा में भाषा का है। आज भी अंग्रेजी, अमीरो की भाषा समझी जाती है और हिंदी गरीबो की। यही फर्क और हाल अंग्रेजी और हिंदी माध्यमो से चल रहे विधालयो का भी है। जमाना भले काबिलियत और परिश्रम के नारे लगाती हो, मगर जमीनी हकीकत है कि अंग्रेजी विद्यालयों में पढ़ रहे छात्रों को हिंदी माध्यम से पढ़े छात्रों की अपेक्षा अधिक अवसर और मान मिलता है। वे तेज और कुशाग्र समझे जाते है और शायद यही वजह है कि हर पेरेंट्स चाहते है कि उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में ही पढ़े।
सोचने वाली बात है कि जिस शिक्षा से हमारा और पूरे देश का भविष्य जुड़ा हुआ है, यही वह कुंजी है जिसके सहारे हम सारी कुरीतियों एवं कुविचारों से दूर होकर समानता एवं एकता की राह पर चल सकते है और उसी शिक्षा में इतना विभेद? आजादी के इतने सालो बाद भी शिक्षा में न तो भारतीय भाषाओं को समुचित स्थान मिल सका है और न ही कही समानता ही देखने को मिल रही है। शिक्षा से दृष्टिकोड़ और विचार बदलता एवं श्रेष्ठ बनता है और उसी अनुरूप हम अपने कर्यो को तय करते है। लेकिन यदि शिक्षा से ही यह भेद पैदा होने लगे, तो क्या सभी प्रांतो के छात्रों के अंदर कभी समानता का भाव लाया जा सकेगा? क्या कही भी विभिन्न माध्यमो से पढ़े हुए विधार्थी एक ही तराजू पर तोला जा सकेगा? क्या सभी को समान अवसर मिल सकेगा? अगर जवाब नहीं में है तो हमे तत्काल इस विषय पर सोचने की आवश्यकता है। यह बात सत्य है कि केवल भाषा से शिक्षा को दोषप्रद नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह बात भी बिलकुल सत्य है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में सबसे बड़ी असमानता हिंदी और अंग्रेजी शिक्षा के वजह से ही है। सभी भाषाएँ अपने आप में श्रेष्ठ है। लेकिन किसी देश कि अपनी भाषा का इस्तेमाल उसे मजबूती और सम्मान तो देती ही है साथ ही उस देश की श्रेष्ठता को भी सिद्ध करती है। अपने देश में समानता लाने के लिए शिक्षा का माध्यम और भाषा का एक होना जरुरी है।
आर्थिक रूप से असमानता छात्रों की मजबूरी हो सकती है, लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के मामले में सभी छात्र समान है। सभी छात्रों की मानसिक क्षमता लगभग एक जैसी ही होती है, बस कुछेक मानसिक रूप से विक्षिप्त छात्रों को अगर छोड़ दिया जाये, इसका भी प्रतिशत कुल 100 प्रतिशत छात्रों में से सिर्फ 2 प्रतिशत ही है। अजीब बात है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम ना तो मैकाले की शिक्षा नीति खत्म कर सके है, ना ही शिक्षा में भारतीय भाषाओं को ही समुचित स्थान दिला पाये है। 1968 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार भारत में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं होनी चाहिए। लेकिन क्या अबतक हम इस लक्ष्य तक पहुँच पाये है? क्या हिंदी को इतना विकसित कर सके है जिससे न सिर्फ प्राथमिक बल्कि विश्व विद्यालयी स्तरों तक हम अंग्रेजी के बिना आगे बढ़ सके? क्या हिंदी में अवसरों को इतना बढ़ा पाये है कि आज का विद्यार्थी स्वेक्षा से अंग्रेजी छोड़ सके ? अगर जवाब ना है तो हमको यह मान लेना चाहिए , कि आगे आने वाले कई सालों तक भारतीय शिक्षा में भारतीय भाषा का समावेश सभी स्तरों पर सामान रूप से हो पाना असंभव रहेगा। जबतक कि हिंदी को सभी स्तरों तक विकसित और लागु ना किया जा सके।
बात किसी भाषा विशेष के विरोध का नहीं है। इस बात से सभी वाकिफ है कि अंग्रेजी एक वैश्विक स्तर की भाषा है, जिसका ज्ञान वैश्विक स्तर पर बात- व्यवहार के लिए जरुरी है। यदि अंगेजी के ज्ञान के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते तो इसे शिक्षा के प्राथमिक स्तर से ही बढ़ावा मिलना चाहिए और यदि भारतीय भाषा के विकास के बिना हमारे अस्तित्व को चुनौती मिल सकती है तो जल्द से जल्द इसे विकसित कर सुविधाजनक बनाना होगा। शिक्षा में समानता तभी आ सकती है जब शिक्षा की एक भाषा हो। तभी सभी शिक्षार्थी मानसिक स्तर पर शिक्षा कि समानता स्वीकार कर सकेंगे।

लेखक- पूर्व रिसर्च एसोसिएट
केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान लखनऊ