अंधविश्वास की भारत में गहरी होती जड़ें

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विमल शंकर झा।
वैश्वीकरण के दौर में तेजी से बदलते भारत में बहुत कुछ बदल रहा है । हाईटैक हो चले माहौल में विकास के साथ समझ और जीवन के आसान होने को एक बड़े बदलाव के रुप में देखा जा रहा है । गांव कस्बे, कस्बे शहर, और शहर महानगरों में बदल रहे हैं। शैक्षणिक, बौद्धिक, सत्ता व सरकारी प्रतिष्ठानों में प्रगति और समाज की जागरुकता के यशोगान गाए जा रहे हैं । मगर सामाजिक चेतना की इस लहर से समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी अछूता प्रतीत हो रहा है । भारतीय समाज में अंधविश्वास की जड़ें सूखने के बजाए और गहरी होती जा रही हैं । शिक्षा और सोशल मीडिया से समाज के आधुनिक होने का भ्रम पालने वालों के लिए जड़ होता समाज एक कड़वी सच्चाई है। देश में आधुनिकता और अंधविश्वास की आंघी एक साथ चल रही है। समाजशास्त्रियों और चिंतकों के लिए यह बात हैरान और परेशान करने वाली है कि हम आधुनिक भी हो रहे हैं और अंधविश्वासी भी हो रहे हैं। दोनों काम एक साथ चल रहा है। एक बड़े विरोधाभास के अंतरदं्वद्व से भारतीय समाज गुजर रहा है। तीस साल पहले तक भारत मदारियों और जादूगरों का देश कहा जाता था। अस्सी के दशक के बाद आर्थिक उदारीकरण की मुक्त अर्थव्यस्था के बाद दुनिया के जहन मे बसी भारत की यह छवि बदलती दिखी । पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंग से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक देश की प्रगति के साथ सूचना क्रांति से जागरुकता के दावे कर रहे हैं। मगर इस सतही सच्चाई का परदा हटा कर देखने पर जो दृश्य नजर आते हैं वे हमें एक दूसरी ही दुनिया में ले जाते हैं। यह दुनिया आदिम और मध्य युग से भी भयावह है। इसकी भयावह मौजूदगी सरकार के साथ बौद्धिक -शैक्षणिक प्रतिष्ठानों के प्रगति और चेतना के दावों की सच्चाई के साथ उनके लिए एक गंभीर सवाल भी है। तथाकथित आधुनिकता के इस हाईटेक युग में भी देश में अंधविश्वास का जो समंदर जमीन के ऊपर और नीचे उफन रहा है वह देश के लिए पीड़ादायी और समाज को खोखला करने वाला है। यह अंधविश्वास दो स्तर पर है। एक तो गांव से महानगरों में रहने वाले करोड़ों निरक्षर लोगों के स्तर पर दूसरा शिक्षित और उच्चशिक्षित लोगों के स्तर पर । पढ़े लिखे तबके में भी लाखों ं करोड़ों लोग अनपढ़ों की तरह जादू,टोना टोटका ज्योतिष कुरीति, परंपरा, बाबा, बैरागी, साधू, साध्वियों के साथ धर्म के नाम पर धर्मांधता के मकडज़ाल में इतनी बुरी तरह फंसे हुए हैं कि निकलना मुश्किल है। बड़े बड़े कालेज, विश्वविद्यालय से उच्च स्तरीय डिग्रियां लेकर बड़े -बड़े संस्थानों में प्रबंधन व प्रशासन में बैठे ब्यूरोक्रेट्स व टेक्नोक्रेट्स और उनके परिवार के लोग बीमारी, तरक्की, व्यवसाय, प्रेम, आदि अपनी परेशानियों ् के निदान और तरक्की के लिए वही सब कुछ कर रहे हैं जो गांव का अनपढ़ आदमी कर रहा है। रोजबरोज मीडिया की सुर्खियां उन्हें उनके आदिम होने का स्मरण कराती हैं। शायद ही देश का ऐसा कोई प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री, राज्यपाल, और मंत्री हुआ ं होगा जो बाबा बैरागी और मठों की शरण में नहीं गया नहीं गया होगा। पूरी सियासत बिरादरी इनके आगे आजादी के बाद से साष्टांग दंडवत होती रही है। को लाला बाबा का भक्त रहा तो कई काला बाबा का । यह सिलसिला पिछले तीस सालों में तेजी से बढ़ा है। इसकी वजह वोट बैंक रहा हो या सौजन्य भेंट या दीगर सामाजिक -राजनीतिक मजबूरी । मगर कड़वी सच्चाई यह है कि ऐसे बाबाओं और बैरागियों में कई जघन्य और घिनौने आरोपों मे ्आज जेल में हैं। आरोप हत्या, बलात्कार, चोरी दैहिक रैकेट चलाने जैसे हैं। यह भी कम शर्मनाक और चौंकाने वाली बात है कि कई बाबाओं को फायनेंस हमारे पावरफुल सियासतमंदों, ब्यूरोक्रेट्स,बिजनेसमैन और उनक समकक्ष संपन्न लोगों ने ही किया । दुनिया भर का सारा ज्ञान हासिल करके इन बेचारों को उम्र के इस मोड़ पर भी समझ नहीं आया कि आशाराम बापू से लेकर राधे मां धर्म है या फिर धर्मांधता । याद है न कैसे बिछे जाते थे आशाराम के पैरों ,दरबार व प्रवचन मेें यह तमाम लोग। अब नाम लेने मे इन्हें शर्म आ रही है। कई लोगों की तो थाने से लेकर अदालत में पड़ताल चल रही है। सूचना क्रांति से बेनकाब हुए तीस सालों में पाखंडी, अपराधी, और भ्रष्ट और चरित्रहीन सजायाफ्ता बाबा, साधू, साध्वियों पर नजर डालें तो इनके काले इतिहास को बढ़ाने मे हमारे समाज के सफेदपोश लोगों का कम योगदान परोक्ष व प्रत्यक्ष रुप से नहीं रहा है। कई मठों के संरक्षक व पैटर्न तक नेता अधिकारी व बिजनेसमैन ्आदि बड़े बड़े पढ़े लिखे लोग रहे हैं। देश मे धर्मांधता के नाम पर न जाने ऐसे कितने मठ चल रहे हैं जहां आशाराम व राधे मां की तरह कुकर्म हो बड़े -बड़े अपराध हो रहे हैं? रोज ये बेनकाब भी हो रहे हैं। चिंता की बात यह है कि ऐसे मठों व मठाधीशों की सरपंच से लेकर विधायक, सांसद तक की टिकट दिलाने फिर मंत्री बनाने में बड़ी अहम भूमिका रहती है। परोक्ष रुप से इनके कोटे आरक्षित रहते हैं। इतना ही नहीं यह ब्यूरोक्रेट्स व टेक्नोक्रेट्स से लेकर कई अहम पदों की पोष्टिंग,प्रमोशन, नियुक्ति से लेकर ठेके, लायसेंस दिलवाने तक सारे लाभ अपने प्रभाव से दिलवाते हैं। इनके एवज में मठ को फाईव स्टार होटल व एक बड़े रिलेजयिस कार्पेरेट के रुप में बदलने मे यह संपन्न तबका फायनेंस करता है। जमीन,संसाधन से लेकर सोना, हीरा नकदी तक चढ़ावा के नाम पर डोनेट किया जाता है। दूसरे प्रकार के धार्मिक संस्थान वह है जो खुद को विशुद्ध रुप से धार्मिक बताते हैं मगर उनमे भले ही आशाराम व राधे मां जैसी बात उजागर न हुई हो मगर पाखंड,अंधविश्वास इतना है कि वह धर्म नही धर्मांधता है। खुद को धार्मिक-आध््यात्मिक बताने कई बड़े -बड़े अरबों खरबों से चलने वाले मठ इस दायरे में है। सोचिए भला कभी मृत व्यक्ति की आत्मा भी किसी जीवित व्यक्ति की देह में प्रवेश कर सकती है? वह भी पूरे संसार के मीडिया और उच्चशिक्षित लोगों की मौजूदगी में । कोई एक दिन नहीं बल्कि पिछले कई सालों से देश वैज्ञानिक और हाईटैक दौर में यह देखते आ रहा है ? हजारों मंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री रह चुके लोग अतिथि बनकर यह देखते आ रहे है।ं क्या ऐसा संभव है ? जेलों मे बाबा बैरागी, साधू, साध्वियां बंद हैं, और जिन पर अपराध दर्ज हैं उन्हें सपोर्ट देने वाला भी हमारा पढ़ा-लिखा तबका ही रहा है। इनके कार्यक्रम आयोजित करने में पावरफुल लोगों की बड़ी भूमिका रहती है।बेनकाब होते ही यह उनसे दूरी बना लेते हैं। हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व साहित्यकार प्रोफेसर एमएस कलबर्गी की नृशंस हत्या इस अंधविश्वास की ही घृणित परिणति है। उन्होंने कई किताबों मेंं अपने लिंगायत होने के अनुभव व उसके रुढि़वादी व अंधविश्वास को उजागर किया था । इसका दक्षिणपंथी लोगों ने विरोध किया था। क्या समाज को जागरुक करना अपराध है। इसके पहले महाराष्ट्र में 2013 में नरेद्र दाभोलकर व गोविंद पणसारे की हत्या कर दी गई थी। दोनों जीवनभर अंधविश्वास के खिलाफ चेतना जगाते रहे। कट्टर अंधविश्वासियों को यह पसंद नहीं था। उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं। समाज में धर्मांधता व अंधविश्वास किस कदर पैठ जमा चुका है कि इसके आगे सरकारें और कानून तक नतमस्तक होते दिखता रहा है। हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय के संथारा को आत्महत्या करार देने के निर्णय के विरुद्ध देशभर में जैन समाज का आंदोलन इसकी ज्वलंत मिसाल है। समाज में कितने पढ़े लिखे लोग हैं जो झंडे उठाए कोर्ट की खिलाफत करते सड़कों पर चुनौती देते देखे गए । बुद्दिवीवियों में यह आंदोलन मखौल का विषय बना रहा । आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को इस पर स्थगनादेश देना पड़ा । मीडिया ने आस्था, धर्म, मसाला और विज्ञापनदाता वर्ग होने के नाते इस आंदोलन को हवा दिया। अब यह अंादोलन बाकी समाजों के लिए भी एक मिसाल बन गया है कि धर्म और आस्था के नाम पर संविधान व कानून की खिलाफत कर किसी भी गैर कानूनी बात को आस्था के नाम पर मनवा लो । धर्मांधता किस कदर है इसका एक हास्यास्पद व चिंतनीय अनुभव लेखक को हुआ। शंकराचार्य स्वरुपानंद से भिलाई के एक कालेज में पे्रस कांफे्रंस में एक पत्रकार ने पूछा कि स्वामीजी आप धर्माचार्य राजनीति क्यों करते हैं? जवाब मे आगबबूला होते उन्होंने कहा कि अभी तुमको भस्म कर दूंगा। ऐसे सवाल क्यों पूछ रहे हो? भिलाई में ही प्रेस कांफेंस में कालमकार ने एक जैन मुनि से उनके आदमकद होडिंग पर पूछा क्या आज के आधुनिक युग मे आप वस्त्रधारण करने के बारे में सोचेंगे तो उन्होंने को्रधित होते कहा कि आप लोग मीडिया में नंगा-नंगा दिखाते हैं, हम तो ऐजराज नहीं करते ? हमारा निर्वस्त्र रहना अश्लीलता नहीं धर्म है। जब समाज को ऐतराज नहीं तो आप लोग कौन होते हो ऐतराज करने वाले ? उनका यह जवाब प्रगतिशील होते समाज व उच्चशिक्षित लोगों के लिए एक बड़ा प्रश्न है। धर्म को ग्रंथों व मनीषियों ने आत्मिक शुदधता व मानवीय सेवा निरुपित किया है, यह धर्मांधता या अंधविश्वास तो कतई नहीं है। क्या समाज व सरकारें लोगों को जागरुकता का ग्राफ बढ़ाने के साथ अपनी अपनी मानसिकता भी बदलेंगी। अंधविश्वास, काला जादू, पाखंड, टोटका टोनही, के नाम पर बीमारी दूर करने अस्पताल न जाकर इनकी शरण में जाना कब लोग छोड़ेंगे? इससे इतर ज्योतिष के नाम पर जो कारोबार चल रहा है यह अंधविश्वास वहां तक फैला है जो बेहद चिंतनीय है। इसके खिलाफ समाज को जागरुक करने की जरुरत है । गांवों मे पसरे अंधविश्वास और धर्म के नाम पर शहरों में फैले इस तरह के धर्मांथता के खिलाफ चेतना को बढ़ाने की दरकार है।