सरकारी कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने तक रह गया हिन्दी सम्मेलन

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भोपाल। 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी के सरकारीकरण और साहित्य और भाषा को लेकर सरकार की विभाजनकारी नीति के कारण किसी तरह का असर छोडऩे में नाकाम होता नजर आ रहा है। इससे यह आशंका जताई जाने लगी है कि कहीं इसके पीछे हिंदी की ताकत को वोटों में तब्दील करने का संकुचित नजरिया तो काम नहीं कर रहा। लेखकों का मानना है कि यह आयोजन हिंदी के विस्तार से ज्यादा उसके शुद्धीकरण की कवायद है। हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक ने तो यहां तक कहा कि इन लोगों की हिंदी के भरोसे गाय पर निबंध भी नहीं लिखा जा सकता। हिंदी के लेखकों का यह भी कहना है कि इस सरकारी आयोजन से लेखकों को इसलिए दूर रखा गया कि सभी भाषाओं के ज्यादातर लेखक रूढि़वादी और कट्टरपंथी नहीं हैं और ऐसे लोग उनके लिए अनुकूल नहीं बैठते। मालूम हो कि हिंदी सम्मेलन की पूर्व संध्या पर विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने लेखकों के शराब पीने को लेकर कथित तौर पर कड़ी टिप्पणी ही नहीं की, बल्कि यह भी कहा कि ऐसे लेखकों को सम्मेलन में नहीं बुलाया गया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर साफ कहा कि यह सम्मेलन साहित्य केंद्रित नहीं, भाषा केंद्रित है और प्रधानमंत्री ने इसकी पुष्टि की। जिस तरह से प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, उनके राज्य के मंत्री, कई राज्यों के राज्यपाल और सरकारी अधिकारी मिलकर इस आयोजन में जुटे हैं, उससे इसके हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इस विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को लेकर किसी तरह की गंभीर चर्चा की उम्मीद उसी वक्त खत्म हो गई जब विचार-विमर्श के विषयों की फेहरिस्त सामने आई थी। सम्मेलन के दौरान जिन विषयों पर अलग-अलग सत्र रखे गए उनमें प्रशासन में हिंदी, गिरिमिटिया देशों में हिंदी, विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी, बाल साहित्य में हिंदी जैसे विषय शामिल थे। इससे स्पष्ट होता है कि यह केवल सरकार के कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने तक सीमित है। भोपाल में तमाम सत्रों में चर्चा भी इसी दृष्टि से हो रही है। गुरुवार को एक सत्र के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कंप्यूूटर और स्मार्ट फोन के उपयोग के मामले में देश के लोगों को आगे बताते हुए कहा कि हमें छोटे कामगारों को स्मार्ट फोन के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। उन्होंने यह भी बताया कि उनके विभाग ने हिंदी के कौन-कौन से ऐप्स तैयार किए हैं। गुरुवार को अपने उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने हिंदी में दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने पर जोर दिया। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था कि दूसरी भाषाओं के शब्द क्या बाबू लोग सरकारी कामकाज की हिंदी में इस्तेमाल करेंगे? जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है, प्रधानमंत्री के सलाहकारों को पता होना चाहिए कि हिंदी दूसरी भाषाओं और खास तौर पर बोलियों से लिए गए शब्दों के कारण की समृद्ध हुई है और इनका हिंदी के विकास में पहले ही बड़ा योगदान रहा है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय ने कहा कि ये सब लोग (भाषा की बात करने वाले भाजपा के लोग) न तो भाषा जानते हैं और न साहित्य। इनसे कोई पूछे कि वाल्मीकि, व्यास, भवभूति और कालिदास को अलग कर क्या संस्कृत का कोई अस्तित्व होगा? इसी तरह साहित्य को छोड़ कर हिंदी क्या होगी? उन्होंने कहा कि हिंदी के लिए लडऩे का काम हिंदी के साहित्यकारों ने किया। भारतेंदु, रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी की लड़ाई लड़ी। इसलिए इन्हें हिंदी भाषा से अलग कैसे किया जा सकता है? पांडेय ने कहा कि भाषा का व्यवस्थित और परिष्कृत रूप साहित्य में ही व्यक्त होता है। नेताओं की हिंदी से तो गाय पर निबंध भी नहीं लिखा जा सकता। सवाल है कि एक तरफ भाजपा और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बात करते हैं तो दूसरी ओर अरबी, फारसी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं व बोलियों के शब्दों को क्या कामकाज और बोलचाल में खुले मन से स्वीकार करेंगे? विश्व हिंदी सम्मेलन में इसी रवैये के कारण सरकारी से लेकर निजी टीवी चैनलों और राष्ट्रीय अखबारों में सम्मेलन की चर्चा नाममात्र की है। इससे ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भोपाल पहुंच कर हिंदी सम्मेलन से पूर्व की गई ‘हवालाबाजÓ वाली टिप्पणी हिट रही। भोपाल से विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर इसमें हवाबाजी ज्यादा होने के ही संकेत मिल रहे हैं। यही स्थिति रही तो भारत में हो रहा यह तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलन अब तक का सबसे असफल सम्मेलन होगा। गुरुवार को प्रधानमंत्री ने कहा था कि दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिंदी में लेने के प्रयास किए जाने चाहिए। पर आश्चर्य की बात है कि उनके सलाहकारों ने उन्हें यह नहीं बताया कि हिंदी भाषा का विकास इसी तरह हुआ है और उसने तमाम दूसरी भाषाओं और उससे ज्यादा विभिन्न क्षेत्रों की बोलियों से शब्द लिए हैं। हिंदी के हर अंचल के लेखकों ने अपने लेखन में अपनी बोली का कोई न कोई शब्द लिया और हिंदी को समृद्ध किया। वरिष्ठ कथाकार और समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि भाषा को बनाने में लेखकों का योगदान टकसाली भाषा बनाने वालों से अलग है। साहित्यकारों ने सांस्कृतिक-सामाजिक जरूरतों के हिसाब से शब्दों (आंचलिक) का इस्तेमाल किया। इस मामले में उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेश मटियानी के साहित्य का उल्लेख किया। बिष्ट ने कहा कि ये लोग (भाजपा) हिंदी को टकसाली हिंदी और संस्कृतनिष्ठ बनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले दो सौ वर्षों में हिंदी इसीलिए फैली कि उसने दूसरी भाषाओं से लगातार लिया। पश्चिम पंजाब से बंगाल तक हिंदी का विस्तार यों ही नहीं हो गया। प्रधानमंत्री के अपने वक्तव्य में इस बात को बड़े गर्व से कहा था कि हिंदी भाषा एक बहुत बड़ा बाजार बनने वाली है। सरकार को यह भी तय करना होगा कि हिंदी को बाजार बनाना है या उसे समृद्ध भाषा बनाना है। बाजार बनाने से हिंदी वह भाषा कभी नहीं रहेगी जिसकी शुद्धता की वकालत भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस करते हैं। वह विज्ञापनों वाली खिचड़ी भाषा बन कर रह जाएगी। सम्मेलन के एक सत्र के विषय से यह स्पष्ट होता है कि इस 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्देश्य भाषा की शुद्धता पर जोर देना भी है। सम्मेलन का एक विषय है हिंदी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता हिंदी की इसी शुद्धता पर जोर दिए जाने के कारण आज उसकी स्थिति यह हो गई है कि अंग्रेजी नहीं जानने वाले भी यह कहते सुने जाते हैं कि सरकारी कामकाज की हिंदी से तो अंग्रेजी आसान है। इस सम्मेलन के आयोजकों ने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष को साहित्य अकादेमी परिषद का अध्यक्ष ही नहीं बताया बल्कि सरकारी आमंत्रितों में कई लोगों के बारे में, उनके पदनाम के बारे में और उनकी मौजूदा स्थिति के बारे में भी उन्हें सही जानकारी नहीं है। इससे लोगों को आमंत्रित करने और नहीं करने के फैसले में हुई जल्दबाजी और इस सिलसिले में ली गई सलाह को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन की वेबसाइट से पता चलता है। ऐसी ही अव्यवस्था की शिकायतें भोपाल से भी मिल रही हैं।