एक सरसंघ चालक की खुद की सरकार

Modi-n-RSS-

हरीश खरे।
पंद्रह वर्ष पूर्व इसी माह में भारत के एक प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक महासभा मेले में भाग लेने के लिए अमेरिका की यात्रा की थी। उस यात्रा के दौरान उन्होंने स्टेटन आइलैंड में आयोजित विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में भाग लेने का समय निकाला, जिसमें उन्होंने स्वयं को एक स्वयंसेवक घोषित किया-जी हां, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक की तरह। उनके ये शब्द नागपुर घराने के कानों के लिए मधुर संगीत की तरह थे। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो इस हिंदू संगठन से ज्यादा कुछ लेन-देन नहीं रखने का दिखावा करता आ रहा था, अचानक ही स्वीकारोक्ति की मुद्रा में नजर आया। लेकिन वापस दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी का यह उत्साह ज्यादा समय तक टिका नहीं रह सका। प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत की जा रही संघ की मांगों और उनकी संवैधानिक शपथ के बीच का टकराव इतना उजागर था कि इनके बीच कोई सार्थक जुगलबंदी संभव नहीं थी। हालांकि, वाजपेयी ने वार्षिक गुरु दक्षिणा अनुष्ठानों में अपनी प्रतीकात्मक उपस्थिति को बनाये रखा, लेकिन नागपुर समूह से शत्रुता मोल लेने में उनके मन में कोई भय भी नहीं था। गुजरात के 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद वाजपेयी के लिए यह संभव नहीं रह गया था कि वह स्वयंसेवकों के बीच के इन कामरेडों के साथ कोई सभ्यतापूर्ण संवाद जारी रख सकें। गुरुओं ने अपनी खींची रेखाओं से बाहर जाने के लिए वाजपेयी को कभी भी क्षमा नहीं किया।
और पुन:, 10 वर्ष पूर्व, यानी जुलाई 2005 में नागपुर घराने के तीन अधिकृत गुरुओं ने दिल्ली की यात्रा की, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी से यह कहने के लिए कि वह अपना पद छोड़ दें। आडवाणी मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में कुछ धुंधली-सी बातें कहने की धृष्टता कर चुके थे। उस समय भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं ने अपरिचित, अनिर्वाचित, अनुत्तरदायी बनकर सामूहिक मौन साध लिया था। नागपुर की शक्ति से संचालित विघ्नकर्ताओं ने आडवाणी से इस तरह का व्यवहार किया मानो वह एक तालुका स्तर के राजनेता हों। आडवाणी एक घायल असहाय जैसे व्यक्ति बनकर रह गये। वर्ष के अंत तक उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से विदा लेनी पड़ी। नागपुर का प्रभु वर्ग अपने पहले सिद्धांत की पुनर्पुष्टि चाहता था यह कि भाजपा के किसी भी नेता को इधर-उधर भटकने की अनुमति नहीं दी जाएगी। वाजपेयी के उदारतावादी लटकों-झटकों से वे खासे तंग आ चुके थे।और, पिछले सप्ताह, यही वह पहला सिद्धांत था जिसकी एक बार पुन: प्रतिष्ठा की गयी, जब सरसंघचालक ने प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रियों को अपने दरबार में आमंत्रित किया। जी हां, अगर आप एक स्वयंसेवक हैं तो आपको संघ-श्रेणी के वरिष्ठों के बुलावे का मान रखना ही होगा। इसमें तर्क की कोई गुंजाइश नहीं। भगवा भ्रातृत्व की यही आचार-संहिता है। मानते हैं, सुषमा स्वराज संघ भक्त नहीं हैं। अरुण जेटली भी नहीं हैं। तब तक नहीं जब तक कि वह इस तथ्य को दिल्ली के अपने ‘उदारपंथी और संभ्रांत मित्रों से छिपाये रखने में सफल हैं। लेकिन दोनों के ही पास कोई विकल्प नहीं था। उदारपंथी आत्माएं सिर्फ इस बिना पर अपना आपा क्यों खो रही हैं कि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिपरिषदीय साथियों ने संघ प्रमुख और उनके सलाहकारों के समक्ष उपस्थित होना पसंद किया? आखिरकार, मोदी-संघ का रिश्ता कोई नया तो नहीं है। यह छिपी हुई बात नहीं है कि संघ द्वारा मोदी को जो स्पष्ट और निर्विवाद समर्थन दिया गया था, वही भाजपा द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री पद का शुभंकर घोषित किये जाने में निर्णायक सिद्ध हुआ था। नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 के चुनावों में संघ की संलिप्तता भी कोई गोपन रहस्य नहीं है। यह संलिप्तता खुली और सुनियोजित थी।
अपने गुजरात के दिनों से ही मोदी ने अपनी एक विवरणी तैयार कर रखी है कि संघ और उसके कर्ताधर्ताओं के प्रति क्या रवैया अपनाया जाये। मोदी, वाजपेयी से कहीं अधिक चतुर हैं इसका यह तात्पर्य नहीं है कि अधिक विवेकवान भी हैं। मोदी ने छोटे लोगों और उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को बड़ी चतुराई से नाप-जोख लिया है। सही कहें तो मोदी ने संघ से अपने संबंधों को लेकर कभी भी किसी को अंधेरे में नहीं रखा। फिर भी, नयी दिल्ली में स्थापित कुछ श्रेष्ठतम चतुर बुद्धिजीवियों और अन्य अग्रणी चिंतकों ने मोदी के विकास मंत्र के साथ बह जाना पसंद किया तो यह उनकी समस्या है-मोदी की नहीं। माल खरीदकर पछताने के बजाय, हर उदारपंथी आवाज को संघ के प्रति राष्ट्रीय स्तर के इस आकर्षण का स्वागत करना चाहिए। इसका कोई स्याह पहलू नहीं है। वह संघ जिसने स्वयं के लिए नैतिक मूल्यों के एक मात्र सचेतक की भूमिका निर्धारित कर रखी थी, वही संघ अब भाजपा के मुख्यमंत्रियों-मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान की वसुंधरा राजे-की ज्यादतियों और उनके विचलनों की सफाई प्रस्तुत करने में अपनी सांस फुलाये ले रहा है। यह जानना सचमुच ज्ञानवर्धक होगा कि रातोंरात मालामाल हो जाने की चाह रखने वाले उद्यमी, ललित मोदी, के बारे में जयपुर में लगने वाली सुबह की शाखाओं में किस तरह की बातें की जा रही हैं। ठीक इसी तरह यह जानना भी रोचक होगा कि व्यापम नाम के घोटाले के डरावने उद्घाटनों के संबंध में भोपाल के स्वयंसेवकों ने क्या सफाई प्रस्तुत की। वस्तुत: किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया है कि संघ ने स्वयं को भाजपा का प्रवक्ता हो जाने तक छोटा कर लिया है। इसके दो अन्य मुख्यमंत्री- हरियाणा और महाराष्ट्र के-जो दोनों ही संघ की दिमाग-धुलाई कारखाना पद्धति के गर्वीले उत्पाद हैं-स्वच्छ प्रशासन या संघ ब्रांड के बहुत ही प्रभावहीन विज्ञापन सिद्ध हुए हैं। उत्तेजना पैदा करने की नयी इच्छा के प्रदर्शन के अलावा- खट्टर का बाबा रामदेव के प्रति हास्यास्पद लगाव और फडऩवीस की पाबंदियां लगाने में अनावश्यक रुचि-इन दोनों ने संघ की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए शायद ही कुछ किया हो।
ज्यादा रोचक बात यह है कि भाजपा के पक्ष-पोषकों ने संघ शिविर में मोदी और उनके मंत्रियों की उपस्थिति को बड़े अहंकारपूर्ण तरीके से सोनिया गांधी-राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के समक्ष कुछ कांग्रेसी मंत्रियों और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हाजिरी से ज्यादा भिन्न नहीं ठहराया है।इस पर ध्यान मत दीजिए कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सरकार द्वारा गठित राजपत्रित संस्था थी और उसे बड़ी आसानी से भंग भी कर दिया गया है। इस पर भी ध्यान मत दीजिए कि सोनिया गांधी कानूनी तौर पर मान्यताप्राप्त राजनीतिक पार्टी की अध्यक्ष हैं, उस राजनीतिक पार्टी की जो अपने स्वयं के चिन्ह के साथ चुनाव प्रक्रिया में उतरती है। तथापि, सोनिया गांधी और मोहन भागवत के बीच नैतिक समानता बताने वाले किसी भी सुझाव पर नाराजगी व्यक्त नहीं की जानी चाहिए।
शायद, यह थोड़े से संतोष की बात होनी चाहिए कि संघ सिर्फ एक सांस्कृतिक संगठन होने के अपने झूठे दिखावे से बाहर आ गया है। लोकतांत्रिक ताकतों को इसका स्वागत करना चाहिए और मांग करनी चाहिए कि इसे सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जाये।
इसके बावजूद, गंभीर चिंता का विषय इसका वह नया प्रयास है जो बौद्धिक आधिपत्य स्थापित करने पर केंद्रित है। उदाहरण के लिए, मोदी सरकार के संस्कृत मंत्री महेश शर्मा ने, जो कट्टर भगवा समर्थक हैं, तर्क दिया है कि मोदी और भाजपा को मत देकर मतदाताओं ने शिक्षा, संस्कृति और अन्य संस्थाओं के भगवाकरण का जनादेश दिया है। मात्र 34 प्रतिशत मतों के साथ मोदी सरकार स्वयं को यह भरोसा दिलाना चाहती है कि उसे संघ की कार्य सूची को क्रियान्वित करने का लाइसेंस मिल गया है।
यह एक लोकतंत्र विरोधी तर्क है और नैतिक तौर पर अरुचिकर दुर्गंध से घिरा हुआ है। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिगण सरसंघचालक की सेवा में चाहे जिस आज्ञाकारिता का प्रदर्शन करें, उन्हें यह याद दिलाये जाने की जरूरत है कि वे अभी भी उस चीज से नियंत्रित हैं और बंधे हुए हैं जिसे भारत का संविधान कहते हैं। भारत अभी भी संवैधानिक लोकतंत्र है और इसके शासक, लोकसभा में भले ही उनके पास कितनी भी सीटें हों, अभी भी एक मजबूत संसद और एक निष्पक्ष न्यायपालिका के प्रति जवाबदेह हैं।