डॉ. भरत झुनझुनवाला।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश के नागरिकों को सातों दिन 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने के वायदे की हाल में समीक्षा की गई। समीक्षा के दौरान यह बात सामने आई कि देश में पर्याप्त मात्रा में बिजली उपलब्ध है परन्तु राज्यों के बिजली बोर्ड इसे खरीद कर उपभोक्ता को सप्लाई नहीं कर रहे हैं। देश में बिजली की खरीद-बिक्री इंडिया एनर्जी एक्सचेन्ज में होती है। यहां बिजली उत्पादक कंपनियां बिजली आफर करती हैं और बिजली बोर्ड इसे खरीदते हैं। एक्सचेन्ज पर वर्तमान में बिजली का दाम लगभग तीन से 3.50 रुपए के बीच में है। बिजली बोर्डों द्वारा बिजली को 6 से 8 रुपए तक बेचा जा रहा है। दो रुपये में खरीद कर 6 से 8 रुपये में बेचना इनके लिये लाभ का सौदा है। इस लाभ को कमाने के स्थान पर ये लोड शेडिंग कर रहे हैं। कारण कि बोर्डों द्वारा जो बिजली सप्लाई की जाती है, उसमें बड़ा हिस्सा चोरी हो जाता है। कुछ राज्यों में ट्रांसमिशन नुकसान 40 से 50 प्रतिशत है। इसके अलावा बोर्ड द्वारा जो बिल जारी किये जाते हैं, उनमें से आधे की ही वसूली हो पाती है। दूर क्षेत्रों में बसे गांव तक बिजली पहुंचाने में खर्च ज्यादा आता है। बिजली की लाइनें डालनी पड़ती हैं, ट्रांसफार्मर लगाने पड़ते हैं तथा सब स्टेशन बनाने पड़ते हैं। फलस्वरूप बिजली को सप्लाई करना बोर्ड के लिये घाटे का सौदा हो गया है। जितनी अधिक बिजली सप्लाई की जाएगी, उतना बोर्ड का घाटा बढ़ेगा। अत: कहा जा सकता है कि बिजली की वास्तविक डिमांड ज्यादा है परन्तु बोर्डों की अकर्मण्यता के कारण यह डिमांड बाजार में नहीं पहुंच रही है।
इस दृश्य के विपरीत अगर बोर्डों द्वारा 24 घंटे बिजली की सप्लाई की जाये तो भी बिजली की मांग में विशेष वृद्धि नहीं होगी। पहला कारण है कि पांच रुपये से अधिक दाम पर लोगों की बिजली खरीदने की इच्छा नहीं है। द एनर्जी रिसर्च इन्स्टीट्यूट द्वारा किये गये अध्ययन में पाया गया कि शहरी उपभोक्ता बिजली के लिये पांच रुपये प्रति यूनिट अदा करने को तैयार हैं और किसान मात्र तीन रुपये। इससे ऊपर दाम पर ये उपभोक्ता बिजली की खपत कम करेंगे, जैसे एयर कंडीशनर के स्थान पर डेजर्ट कूलर लगायेंगे। दूसरा कारण है कि बड़े उपभोक्ताओं ने कैप्टिव पावर प्लांट लगा लिये हैं। पेपर फैक्टरी के एक मालिक ने बताया कि धान की भूसी से वे दो रुपये में स्वयं बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। ऐसे में उद्योगों में बिजली की डिमांड घटती जायेगी। तीसरे बिजली की जो चोरी हो रही है, उस बिजली की भी खपत की जा रही है। बोर्ड सुचारु रूप से चलने लगे तो यह बिजली नं. दो से नं. एक में ट्रांसफर हो जायेगी। चोरी कम होने से बिजली की मांग पर कोई असर नहीं पड़ेगा। चौथे जिन क्षेत्रों की बिजली काटी जाती है, वे राजनीतिक अथवा आर्थिक दृष्टि से कमजोर होते हैं। अत: यदि इन्हें 24 घंटे बिजली सप्लाई की गई तो भी मांग में ज्यादा वृद्धि नहीं होगी, चूंकि इनके पास क्रय शक्ति नहीं है। अत: अनुमान है कि बोर्डों के सुचारु रूप से काम करने पर बिजली की मांग में लगभग मात्र 10 प्रतिशत की वृद्धि होगी।
केन्द्र सरकार की संस्था सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी द्वारा प्रचार किया जाता है कि दूसरे देशों की तुलना में भारत में बिजली की खपत कम है और इसे बढ़ाना जरूरी है। अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 13,227 यूनिट की खपत की जाती है तथा चीन में 3,298 यूनिट की। तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष बिजली की खपत मात्र 684 यूनिट है। अथारिटी का दबाव है कि देश में बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाये, जिससे खपत बढ़ सके। यह एक विकृत सोच है। उत्पादन बढ़ाने से खपत नहीं बढ़ती है। बाजार में आलू की डिमांड पर इस बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है कि एक रेहड़ी लगी है अथवा बीसों ढेर लगे हैं। डिमांड तो खरीददारों के पहुंचने से बनती है। देश की जनता के पास बिजली खरीदने की ताकत नहीं है। ऐसे में बिजली का उत्पादन बढ़ाने से खपत नहीं बढ़ेगी। बल्कि बिजली कंपनियों को घाटा लगेगा चूंकि उनके द्वारा बनाई गई बिजली नहीं बिक सकेगी। हर देश को अपने संसाधनों के अनुरूप जीवन शैली अपनानी पड़ती है। सऊदी अरब के लोग ब्राजील जितने पानी की खपत नहीं कर सकते। उन्होंने कम पानी में जीना सीखा है। इसी तरह हमें कम बिजली में जीने की कला को विकसित करना चाहिये। हम एयरकंडीशन डाइनिंग हाल की जगह पेड़ के नीचे भोजन करें तो बिजली की जरूरत कम होगी और स्वास्थ्य भी सुधरेगा।
बिजली की खपत बढ़ाना दूसरे कारण से भी अनुचित है। सच यह है कि एक सीमा के बाद बिजली की खपत में वृद्धि से जीवन स्तर में सुधार नहीं होता। घर में एक बल्ब जल जाए तो जीवन स्तर में भारी वृद्धि होती है। पंखा, टीवी और फ्रिज लग जाएं तो ही जीवन स्तर में सुधार आता है। परन्तु इसके बाद डिश वाशर, माइक्रोवेव तथा एयर कंडीशनर लगाने से जीवन स्तर में विशेष सुधार नहीं होता।
वास्तव में सेन्ट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी पर बिजली माफिया हावी है। बिजली उत्पादक कंपनियों के लिए पावर प्लांट लगाना लाभ का सौदा है। यदि 1000 करोड़ रुपए के लोन की जरूरत होती है तो बैंक अधिकारियों को घूस खिलाकर ये 2,000 करोड़ का लोन स्वीकार करा लेते है। फर्जी बिल लगाकर अपनी पूंजी को निकाल लेते हैं। लेकिन बैंक तब ही लोन देते हैं जब बाजार में मांग होने के आंकड़े दिखाए जायें। इसलिए बिजली माफिया द्वारा सेन्ट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी से मांग के फर्जी आंकड़े बनवा लिए जाते हैं। सरकार को चाहिये कि सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथारिटी के अधिकारियों से पूछे कि उनके द्वारा बताई गई शार्टेज के विपरीत बाजार में दाम क्यों गिर रहे हैं?
जनता की क्रय शक्ति में विस्तार के उपायों पर विचार करना चाहिए। जनता की क्रय शक्ति बढ़ेगी तो बिजली बोर्डों की वसूली बढ़ेगी और इनके द्वारा बिजली को खरीद कर सप्लाई करना लाभ का सौदा हो जाएगा। राज्यों के बिजली बोर्डों के प्रबन्धन को भी ठीक करना चाहिये। वास्तव में ये जानबूझ कर लोड शेडिंग करते हैं। ये पहले बिजली की चोरी कराते हैं और शार्टेज बनाते हैं, फिर लोड शेडिंग करते हैं। इससे जनमानस में बिजली की सप्लाई बढ़वाने की प्रवृत्ति बनती है। इन्हें अधिक बिजली खरीदकर अधिक कालाबाजारी करने के अवसर मिल जाते हैं।