राजकुमार सिंह। याद नहीं पड़ता कि विदेशी मूल का कोई व्यक्ति आजाद भारत के लिए इतना महत्वपूर्ण बना गया हो, जितना कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दोहते और सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री मानी गयीं इंदिरा गांधी के बड़े बेटे राजीव गांधी की प्रेयसी से देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की अध्यक्ष तक का सोनिया का सफर किसी रोचक-रोमांचक और भावनात्मक फिल्म सरीखा है। कहना होगा कि स्पेन के चर्चित उपन्यासकार जेवियर मोरो ने पारिवारिक मित्रों तथा तत्कालीन घटनाक्रम के दस्तावेजी उल्लेखों के आधार पर सोनिया गांधी की जीवनी द रेड साड़ी को एक दिलचस्प और पठनीय पुस्तक बना दिया है।
इस सफर में अनेक उतार-चढ़ाव भी हैं। सुदूर इटली के एक छोटे से कस्बे तूरीन में साधारण परिवार में जन्म। महत्वाकांक्षी पिता का शहर जाकर बसना-कारोबार करना। फिर बेहतर अंग्रेजी शिक्षा के लिए अपनी मंझली बेटी सोनिया माइनो को कैंब्रिज भेजना। वहां पढ़ रहे राजीव गांधी से मुलाकात, जो प्यार में बदल गयी। देश-समाज-भाषा के विरोधाभासों के बावजूद प्यार परवान चढ़ा और बालिग होते ही सोनिया भारत आकर राजीव से विवाह कर देश के प्रथम परिवार की बहू बन गयीं।
माइनो से गांधी बनने का सोनिया का असली सफर उसके बाद ही शुरू होता है। विदेशी मूल के बावजूद सोनिया को, मौसम के मिजाज के अलावा, नेहरू परिवार से तालमेल बिठाने में ज्यादा दिक्कत नहीं आयी। लेकिन यह बात भारतीय समाज और राजनीति की बाबत नहीं कही जा सकती। संजय गांधी से उनकी मुलाकात राजीव के साथ ही, ब्रिटेन में पढ़ाई के दौरान ही हो चुकी थी। यह तालमेल बिठाने में संजय के अलावा अमिताभ बच्चन के परिवार ने भी पूरा सहयोग दिया, भारत आने पर जिनके घर सोनिया रही थीं। भारत सरीखे विशाल लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री के समक्ष राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां हमेशा रहती हैं। सोनिया के पुत्रवधू बनने के बाद पहली बड़ी चुनौती 1971 में पूर्वी पाकिस्तान का संघर्ष थी, जिसका परिणाम पृथक बांग्लादेश के रूप में सामने आया। उसके बाद तो इंदिरा को लौह महिला कहा जाने लगा, लेकिन 1974 आते-आते वह छवि ऐसी पिघली कि सत्ता बचाने की खातिर अगले साल आपातकाल लगाना पड़ा।
दरअसल सोनिया की चुनौतियां तभी से शुरू होती हैं। मेनका गांधी से संजय के विवाह के बाद से ही नेहरू परिवार में परस्पर संबंधों में खटास आने लगी थी। संजय गांधी के विफल मारुति प्रयोग और फिर बढ़ते राजनीतिक दबदबे से यह पारिवारिक कलह में बदलने लगी। आपातकाल और उसके बाद 1977 में इंदिरा गांधी समेत कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव के लिए राजीव और सोनिया, संजय और उनके प्रति इंदिरा के अंध प्रेम को ही जिम्मेदार मानते थे, फिर भी संकटकाल में पूरे परिवार ने राजनीतिक एकजुटता का प्रदर्शन किया।
जनता पार्टी प्रयोग की विफलता से, उम्मीद से बहुत पहले ही 1980 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी तो हो गयी, लेकिन इंदिरा गांधी अपना आत्मविश्वास और तेवर गंवा चुकी थीं। द रेड साड़ी के तथ्यों पर विश्वास करें तो राजनीतिक ही नहीं, शासकीय फैसलों में भी संजय का दखल बढ़ गया था। तभी विमान हादसे में संजय की मृत्यु ने नेहरू परिवार और कांग्रेस को बुरी तरह झकझोर दिया। खुद भी अनिच्छुक राजीव को सोनिया की इच्छा के विरुद्ध राजनीति में आना पड़ा। फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार के प्रतिशोध में सुरक्षाकर्मियों ने ही इंदिरा की जान ले ली।
तब भी सोनिया नहीं चाहती थीं कि राजीव प्रधानमंत्री बनें, लेकिन राजीव ने इसे देश और कांग्रेस के प्रति अपना कर्तव्य माना तो परिवार की सुरक्षा की खातिर सोनिया भी मान गयीं। पर अंतत: वही हुआ, जिसका उन्हें डर था। प्रधानमंत्री रहते तो राजीव गांधी श्रीलंका में वहां के एक सैनिक द्वारा रायफल के बट से किये गये हमले से बच गये, लेकिन बाद में 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान मानव बम के हमले में मारे गये। इन अप्रिय घटनाओं की बाबत द रेड साड़ी में कुछ ऐसे तथ्य भी हैं, जिन पर संदेह-सवाल और बहस संभव है। राजीव और सोनिया को महान बतानेवाली इस पुस्तक में संजय और मेनका को जिस तरह खलनायक के रूप में पेश किया गया है, वह भी तटस्थ पाठकों-प्रेक्षकों को अखर सकता है। नियति का खेल देखिए कि सोनिया जिस राजनीति से दूर रहना चाहती थीं, कुछ साल बाद उन्हें उसमें आना ही पड़ा। बेशक तब सोनिया कांग्रेस की संकटमोचक बनीं, लेकिन उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी को इतिहास की सबसे शर्मनाक पराजय भी झेलनी पड़ी। आज उनकी पार्टी कांग्रेस और उनके पुत्र राहुल गांधी, दोनों ही भविष्य के दोराहे पर खड़े हैं। ऐसे में सोनिया गांधी की जीवनी का यह हिंदी अनुवाद पाठकों के लिए और भी दिलचस्प साबित हो सकता है। कांग्रेसजनों के लिए तो यह अतीत से साक्षात्कार भी है।