अस्मिता का समझौता अस्वीकार्य

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अनूप भटनागर
उच्चतम न्यायालय ने पिछले सप्ताह एक बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें व्यवस्था दी गयी कि बलात्कार और बलात्कार के प्रयास जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमे में आरोपी और पीडि़त के बीच किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं हो सकता।
यह फैसला सुनाये जाने से चंद दिन पहले ही मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश का फैसला सुर्खियों में था। इस मामले में न्यायालय ने बलात्कार के मामले में आरोपी को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया था ताकि वह पीडि़ता के साथ विवाह की संभावना तलाश सके।
इस मामले में पीडि़ता के माता-पिता नहीं हैं और उसके एक बच्चा है जो बलात्कार की घटना के बाद पैदा हुआ। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी. देवदास ने अपने एक पुराने अनुभव के आधार पर इस मामले में बलात्कारी को जमानत पर रिहा करने का फैसला किया।
राष्ट्रमंडल मानवाधिकार संगठन के अध्ययन के अनुसार भारत में हर घंटे कम से कम दो महिलायें बलात्कार की शिकार होती हैं। इस संगठन ने 13 साल तक महिलाओं के प्रति होने वाले हिंसक अपराधों का विश्लेषण किया और पता चला कि यहां रोजाना 57 महिलायें बलात्कार की शिकार होती हैं। इस संगठन के अनुसार 2001 से 2013 की अवधि में देश के 28 राज्यों और सात केन्द्र शासित प्रदेशों में कुल 2,64,130 बलात्कार के मामले रिपोर्ट किये गये थे जबकि अकेले दिल्ली में इस अवधि में 8060 ऐसे मामले सामने आये।
उच्चतम न्यायालय ने नाबालिग से बलात्कार के प्रयास के आरोप को छेड़छाड़ में तबदील कर उसकी सजा कम करने के खिलाफ मध्य प्रदेश सरकार की अपील पर एक जुलाई को फैसला सुनाया है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी पंत की दो सदस्यीय पीठ ने दो टूक शब्दों में कहा-बलात्कार और बलात्कार के प्रयास जैसे आरोप में समझौते के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह महिला के शरीर, जो उसका अपना मंदिर है, के खिलाफ अपराध है।
यह मामला मध्य प्रदेश के गुना जिले के एक गांव की सात साल की बच्ची का है जो 27 दिसंबर, 2008 को अपनी मां की तलाश में निकली थी। रास्ते में उसे आरोपी मिला जो उसे पार्वती नदी के पास ले गया। आरोपी ने उससे बलात्कार का प्रयास किया था लेकिन बच्ची के शोर मचाने की वजह से वह अपने कुत्सित प्रयास में सफल नहीं हो पाया था।
इस मामले में गुना की सत्र अदालत ने आरोपी और पीडि़त के परिवार के बीच हुए समझौते को अस्वीकार करते हुए दोषी को पांच साल की सश्रम सजा सुनायी थी, लेकिन मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बलात्कार के प्रयास के आरोप को बदलते हुए इसे छेड़छाड़ के मामले में तबदील करने के साथ दोषी की सजा को जेल में बिताई गयी अवधि तक सीमित कर दिया था। न्यायाधीशों ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से असहमति व्यक्त की और कहा कि ऐसे मामलों में नरम रवैया अपनाने से अदालतों को गुरेज करना चाहिए।
न्यायाधीशों ने बलात्कार और बलात्कार के प्रयास के मामलों में किसी भी प्रकार की नरमी नहीं बरतने पर जोर देते हुए कहा कि ये ऐसे अपराध हैं जो पीडि़त को जीवन भर सालते हैं और उसकी प्रतिष्ठा को धूल धूसरित कर देते हैं। न्यायालय की ताजा व्यवस्था आने से पहले से ही अकसर पढऩे और सुनने को मिलता है कि निचली अदालत ने बलात्कार के आरोपी को बरी कर दिया क्योंकि पीडि़ता अदालत में अपने बयान से मुकर गयी और उसने अपनी गवाही में कहा कि अब उसकी आरोपी से शादी हो गयी है या फिर चूंकि आरोपी शादी से इनकार कर रहा था, इसलिए उसने घर वालों के दबाव में उसके खिलाफ बलात्कार की शिकायत दर्ज करायी। तो क्या बलात्कार की झूठी शिकायत दर्ज कराने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए।
यदि हम वास्तव में इस तरह के अपराधों के प्रति गंभीर हैं। यह चाहते हैं कि नारी सम्मान की रक्षा हो। कोई भी व्यक्ति किसी नारी से जबरदस्ती करने की कल्पना तक नहीं करे तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि त्वरित अदालतों में बलात्कार, बलात्कार के प्रयास और यौन हिंसा से संबंधित मुकदमों की एक निश्चित अवधि के भीतर सुनवाई पूरी हो। आरोपियों को दोषी पाये जाने पर अधिकतम सजा दी जाये।
सरकार को इस तरह के अपराधों की शिकार हुई बच्चियों, किशोरियों, युवतियों और महिलाओं के पुनर्वास की ओर भी विशेष ध्यान देना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बलात्कार और बलात्कार के प्रयास जैसे अपराधों में आरोपी और पीडि़ता के बीच समझौता करने का यह सिलसिला किसी न किसी रूप में चलता ही रहेगा।