बिहार में यह कैसा चुनाव !

bihar-election newकृष्णमोहन झा। बिहार के विधानसभा चुनावों पर सारे देश की नजरें लगी हुई हैं। इन चुनावों के परिणाम यह तय करेंगे कि क्या वास्तव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता में कमी आ चुकी है या वे आज भी देश में उतने ही लोकप्रिय हैं जितने गत लोकसभा चुनावों के समय थे। बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम यह भी तय करेंगे कि क्या सत्ता की खातिर बिहार के मुख्य सत्ताधारी दल जनता दल (यूनाइटेड) का अब राष्ट्रीय जनता दल से चुनावी गठजोड़ करना बिहार की जनता को पसंद आया जिसको 15 वर्षों के शासनकाल में राज्य में कानून व्यवस्था चौपट हो गई थी। और असामाजिक तत्वों को सत्ता का संरक्षण मिला हुआ था। इन चुनावों से यह भी पता चल जाएगा कि क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को लोग सचमुच आज भी सुशासन बाबू के रूप में ही देखते है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि राज्य की जनता अपने मताधिकार से यह फैसला करेगी कि चुनावों के दौरान राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप में शिष्टाचार और मर्यादा को ताक पर रख देने की छूट राजनीतिक दलों को क्यों मिलनी चाहिए। मेरे विचार से तो बिहार विधानसभा के ये चुनाव अब तक के सारे चुनावों से केवल इसलिए अलग साबित होने जा रहे है क्योंकि इसमें भाग लेने वाले सारे राजनीतिक दलों के नेताओं ने मर्यादा रेखा के उल्लंघन में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब तो यह कहना भी मुश्किल है कि किसने किसकों पीछे छोड़ा। किसी भी राजनीतिक दल ने एक पल के लिए भी यह विचार करने की आवश्यकता महसूस नहीं की कि आखिर राज्य की जनता को उनके मर्यादा विहिन चुनाव प्रचार में कोई दिलचस्पी है भी या नहीं। जनता को शायद ऐसा महसूस हो रहा होगा कि सारे दल मिलकर उसे ठग रहे हैं और उसके पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
टिकिटार्थियों से मोटी मोटी रकमें लेकर टिकिट बेचने के आरोप से कोई भी दल अछूता नहीं है। दागियों को टिकिट न देने की बातें तो सभी दलों ने खूब बढ़चढकऱ की परंतु बड़ी संचसर में दागी उम्मीदवार भी मैदान में हैं और विडंबना यह है कि जनता को उन्हीं के बीच से चुनाव करना है। इन चुनावों पर जातिवाद का ऐसा रंग चढ़ चुका है कि सिद्धांतों और विचार धारा के लिए मानों कोई जगह ही नहीं बची है। चुनाव जीतने के लिए दलितों के बीच महादलितों की एक नई श्रेणी तैयार कर ली गई है। आरक्षण को एक ऐसा मुद्दा बना लिया गया है कि उसके लिए ईट से ईंट बजाने की बा कही जा रही है। हमेशा ही जातिवाद की राजनीति करने वाले दलों को यह सुनना भी गवारा नहीं हैं कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। इस मुददे ने सत्ता की प्रमुख दावेदार पार्टी भारतीय जनता पार्टी को बैकफुट पर ला दिया है। उसे बार बार यह सफाई देना पड़ रही है कि आरक्षण यथावत जारी रहेगा। लालू यादव और मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अंदर ही अंदर खुश हे कि उन्हें मनचाहे मुद्दे हाथ लगते जा रहे हैं। यह बात अलग है कि आरक्षण और योग्यता के बीच कोई संबंध नहीं जोडऩा चाहते। पहले उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा प्रयुक्त शब्द राजनीतिक डीएनए को बिहार के स्वाभिमान से जोडकऱ उसका राजनीतिक लाभ लेने से कोई कसर नहीं छोड़ी फिर आरक्षण के संबंध में संघ प्रमुख के सुझाव का जनता को वे यह मतलब समझा रहे है कि केन्द्र की मोदी सरकार आरक्षण व्यवस्था को खत्म कर दलितों और पिछड़ी जातियों का विकास रोकना चाहती है। भाजपा को नीतिश और लालू की जोड़ी ने इतना संशंकित कर रखा हे कि उसके नेताओं को एक एक शब्द नापतौल कर बोलना पड़ रहा है। फिर आखिर कहां तक संयम रखा जाए। चुनावी माहौल में कुछ तो मुंह से निकल ही जाता है और फिर लालू जब इसका जवाब देने में सारी सीमाएं तोडऩे से परहेज नहीं करते तो भाजपा को अपने कहे पर अफसोस तो होता ही होगा। लेकिन चुनावों तक यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। भाजपा के साथ खड़े रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी लालू की ‘अनुठीÓ टिप्पणियों का जवाब देने की भरपूर कोशिश कर रहे परंतु लालू को हराना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। नीतिश को कम से कम इस बात का सुकून तो अवश्य होगा कि जो वे अपने मुंह से नहीं बोल सकते उसे लालू के मुंह से कहलवा दे रहे हैं। सुशासन बाबू की यह कोशिश समझना कठिन नहीं है कि सुभाषण बाबू भी बनना चाह रहे हैं। आखिर उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जा रहा है तो कुछ तो मर्यादाओं का पालन करना होगा। भजपा को सत्ता की दावेदारी मजबूती से पेश करने में सबसे बड़ी दिक्कत यही महसूस हो रही है कि उसका गठबंधन किसी भी नेता को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का साहस नहीं जुटा पाया।
चुनावों की तिथि नजदीक आते आते नीतिश लालू के महागठबंधन और भाजपा नीति गठबंधन ने अपने अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी कर दिए हैं। भाजपा ने इसे विजन डाक्यमेंट का नाम देकर यह साबित करना चाहा है कि बिहार की जनता के अच्छे दिन यह विजन डाक्यूमेंट ही ला सकता है। लेकिन दोनों पक्षों के इन इरादों को समझना कठिन नहीं है कि यह सब प्रलोभन वोट जुटाने के लिए दिए जा रहे हैं। रंगीन टीवी, लेपटाप, साइकिलें, गणवेश, क्या क्या नहीं मिलेगा बिहार की जनता को, चुनावों के बाद भले ही जीते कोई भी गठबंधन। ऐसा लगता है कि बिहार की जनता पर सोना बरसने लगा है। वादे तो कुछ इसी तरह के किए गए थे परंतु बिहार आज भी अपनी आर्थिक सामाजिक दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। जनता भी सोच रही है कि जो नीतिश 17 साल से चली आ रही भाजपा से अपनी दोस्ती एक झटके में तोड़ सकते हैं वे लालू के साथ हुई नई नई दोस्ती को कितने दिन निभा पाएंगे। फिर जनता के हितों की चिंता कौन करेगा। राज्य की जनता यह तय मान कर बैठी है कि लालू और नीतिश न तो पहले एक रह पाए और न ही आगे एक रह पाएंगे। इसलिए इस बार सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं बलवती हो उठी हैं। केंद्र में भाजपा नीत राजग सरकार से अगर बिहार के लिए विशेष पैकेज चाहिए वे बिहार में भी भाजपा को राज्य में भी सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथों में सौंपने में आखिर क्या हर्ज है। मुख्य बात तो बिहार को पिछड़ेपन के अभिषाप से मुक्ति दिलाना है और अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अंदर इसके लिए पर्याप्त इच्छाशक्ति मौजूद है तो बिहार की जनता को उस पर भरोसा करने में ही अपनी भलाई देखेगी। ऐसा मानने के पर्याप्त कारण है कि बिहार अब परिवर्तन की दहलीज पर खड़ा है। यह भी तय है कि लालू-नीतिश की मीठी मीठी लच्छेदार बातों से बिहार में अच्छे दिन लाना संभव होता तो बिहार के लिए विशेष पैकेज का सवाल ही नहीं उठता। न ही प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ता कि हम केन्द्र से राज्य के लिए विशेष पैकेज भेजेंगे तो नीतिश अहंकार में उसे भी लौटा देंगे। अब समय आ चुका है कि बिहार की जनता को सब्जबाग दिखाने के बजाय विकास की कुछ ठोस योजना लेकर राजनीतिक दल जनता के सामने आएं। जनता यह तय कर चुकी है कि वह उस दल के हाथों में सत्ता की बागडोर नहीं सौंपेगी जो उसे लच्छेदार भाषा से ठगने में ही दिलचस्पी लेता रहे।