बेदम महाराजा के लाइलाज मर्ज

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अभिषेक कुमार
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू को हवाई जहाज में जगह देने के लिए पहले से टिकट लेकर बैठे तीन यात्रियों को उतार दिए जाने और अमेरिका जा रही फ्लाइट को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस के आने तक रोके रखने के कारण हुए विलंब की घटनाएं अगर किसी एयरलाइंस में हो सकती थीं, तो वह एयर इंडिया ही है। इन दोनों तात्कालिक घटनाओं से पहले भी लोगों के जेहन में इस सरकारी एयरलाइंस की एक लचर छवि ही बनी हुई है। किसी अन्य सरकारी महकमे के कर्मचारियों की तरह इसके पायलट और स्टाफ के दूसरे सदस्य जब चाहे छुट्टी और हड़ताल पर चले जाते हैं और राजनीतिक आकाओं की मिजाजपुरसी के चलते यात्रियों की दिक्कतों की कोई परवाह नहीं करता।
इन्हीं दिक्कतों के चलते देश-दुनिया के समझदार लोग इस एयरलाइंस के निजीकरण की सलाह देते हैं। ज्यादातर वक्त कर्जे में डूबे रहने और सतत वित्तीय छूटें लेने वाले इस महाराजा के कई मर्ज लाइलाज हो चुके हैं। खुद सरकार इसकी बीमारियों से वाकिफ है और यही कारण है कि राजनीतिक सहमति बनाकर एयर इंडिया के निजीकरण की बात कही जा चुकी है। इसके बावजूद लगता है कि सरकार शायद एकमात्र उड्डयन कंपनी के अपने हाथ से निकल जाने से खौफजदा है। पर सरकार को डरना तो इस बात से चाहिए कि इस सफेद हाथी की सेवा में जो पैसा वह लगाती रही है, वह ज्यादातर ऐसे लोगों की जेब से आया है, जो कभी जहाज में उडऩे का सपना भी नहीं देखते।
हालांकि दशकों तक भारी घाटे और बेलआउट पैकेज यानी सरकार की तरफ से भारी वित्तीय मदद पर चलते रहे ‘महाराजाÓ ने बीते साल के दिसंबर महीने में 14.6 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाया था। पर उसे यह लाभ ऐसी अवधि में हुआ, जब सिडनी स्थित विमानन थिंकटैंक- कापा ने चालू वित्त वर्ष में भारतीय उड्डयन क्षेत्र को करीब 8 हजार करोड़ रुपये घाटे का अनुमान लगाया था। लेकिन यह मुनाफा भी लगता है कि इस एयरलाइंस की समस्याएं दूर करने में नाकाम साबित हो रहा है क्योंकि इस पर पहले की तरह सरकारी कार्य संस्कृति हावी है।
कई मौकों पर इसके निजीकरण की मांग उठती रही है। यह मांग पिछले साल उस समय भी उठी थी, जब एयर इंडिया ने अपनी बैलेंस शीट पेश की थी। इसमें एयरलाइंस ने 5000 करोड़ का भारी-भरकम घाटा दिखाया था। यह स्थिति तब थी, जब इसे 2012 में सरकार ने घाटे से उबारने के लिए करीब 32 हजार करोड़ रुपये का भारी-भरकम बेलआउट पैकेज (आर्थिक मदद) प्रदान की थी। इस पैकेज के आधार पर उम्मीद की गई थी कि एयर इंडिया 2012-13 में अपनी कमाई को 16,130 करोड़ से बढ़ाकर 19,393 करोड़ तक पहुंचा देगी, बल्कि इसी अवधि में अपने सकल घाटे को 5,198 करोड़ से घटाकर 3,989 करोड़ तक ले आएगी। लेकिन तब एयर इंडिया अपने दोनों लक्ष्य पाने में नाकाम रही।
पिछली सरकार ने इसके लिए 32 हजार करोड़ रुपये का पैकेज यह कहते हुए जारी किया था कि इसकी मदद से इसके आधुनिकीकरण के लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ यात्री विमान कहलाने वाले ड्रीमलाइनर बोइंग-787 श्रेणी के 27 विमानों की खेप 2016 तक शामिल कराई जानी है। एयर इंडिया प्रबंधन का अनुमान है कि इस विमान के सहारे एयर इंडिया उस बाजार में सेंध लगा सकेगी, जिसमें एयरबस 310 के जरिए प्रवेश करने का उनका पिछला प्रयास 80 के दशक में नाकाम साबित हुआ था। कह सकते नहीं कि फिलहाल एयर इंडिया को पिछले साल दिसंबर में जो मामूली मुनाफा हुआ, उसमें ड्रीमलाइनर का कितना योगदान है क्योंकि जब-तब ऐसी खबरें आती रही हैं कि ड्रीमलाइनर विमान अपनी किसी न किसी खराबी के कारण हवाई अड्डों पर खड़े रहते हैं।
एक सच्चाई यह है कि जब तक एयर इंडिया को स्वायत्तता नहीं दी जाती और जब तक सरकार एक मजबूत निदेशक मंडल नहीं बनाती, इस एयर लाइंस की हालत जर्जर ही बनी रहेगी। स्वायत्तता देने और निदेशक मंडल बदले जाने पर ही भारी प्रतिष्ठा वाली इस एयर लाइंस को लाभ कमाने वाले संस्थान में बदलना और इसकी छवि में सुधार करना संभव होगा। वर्ष 2013 में यह तथ्य भी प्रकाश में आ चुका है कि विमानों की उड़ान योजना भी ठीक ढंग से नहीं बनाई जाती, जिसका नतीजा यह निकलता है कि एयर इंडिया के ज्यादातर विमान उडऩे की बजाय एयरपोर्ट पर खड़े ही रहते हैं। इसके चलते भारी-भरकम वेतन लेने वाले एयर इंडिया के पायलटों को दूसरी एयरलाइंसों के पायलटों के मुकाबले कम घंटों तक उड़ान करने पर भी ज्यादा वेतन मिलता है। खुद एयर इंडिया प्रशासन ने यह आकलन किया था कि उसके 1600 से ज्यादा विमान उस तय वक्त से कम उड़ान भरते हैं, जितने घंटों का अनिवार्य वेतन उसके पायलटों को मिलता है।
सरकार ने 1992 में विमानन क्षेत्र पर अपना एकाधिकार छोड़ा था और निजी एयरलाइंसों के आने का रास्ता साफ किया था। इस दौरान कई निजी एयरलाइंसों का जो हश्र हुआ है, एयर इंडिया को उनसे सबक लेने चाहिए थे पर ऐसा नहीं किया गया।
असल में, मंदी का दौर शुरू होने और कई नए खिलाडिय़ों के मैदान में आने तक निजी विमान कंपनियां भारी मुनाफा कमाती रहीं। लेकिन बाद में जब यात्रियों की कमी पडऩे के साथ उड़ानों का संचालन महंगा पडऩे लगा, निजी विमान कंपनियां अपना बिजनेस मॉडल दुरुस्त करने की बजाय सरकारी मदद की हायतौबा मचाने लगीं। बेलआउट के रूप में सरकार से पैसे मांगने की जगह उन्हें अपने लिए बाजार से पूंजी जुटानी चाहिए थी।। ठीक यही काम एयर इंडिया को करना चाहिए, जिससे कि वह अब तक बचती रही है और सरकारी बैसाखी पर चलती रही है।
हकीकत यह है कि इस एयरलाइंस को पटरी पर लाने की ज्यादार कोशिशें बरसों से नाकाम होती आई हैं। इसकी वजह वही सरकारीपन है, जो इस देश के तमाम सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को नकारा बनाता आया है। एयर इंडिया जब तक सरकारी डिपार्टमेंट रहेगा, उसके तौर-तरीके बदलने वाले नहीं। यह उन दिनों की विरासत है, जब सरकारें हर चीज पर अपना कब्जा चाहती थीं और गैर सरकारी लोगों से उसे डर लगता था। आज ऐसे काम सरकार से बाहर ही बेहतर हो रहे हैं। अगर अब भी एयर इंडिया के मामले में इस जिद पर कायम रहने की कोशिश की जाती है तो फिर मुसाफिरों के खत्म होते भरोसे के बीच उसे घाटे का नया पहाड़ लगाते देखने को तैयार रहना होगा।