देश हित में प्रगतिशील सोच

voteअनूप भटनागर। देश में इस समय लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराने के सवाल पर चर्चा छिड़ी हुई है। चुनाव एक साथ कराने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि ऐसा करने से इन पर होने वाले खर्च में कटौती होगी और राष्ट्र का बेशकीमती समय बच सकेगा, जिसका उपयोग और दूसरे कार्यों में हो सकेगा। वैसे चुनाव एक साथ कराने की अवधारणा नयी नहीं है। पहले भी यह विषय उठता रहा है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव रखा था। बाद में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी इस विचार का समर्थन किया। उन्होंने भी यही महसूस किया कि पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव की प्रक्रिया चल रही होती है और इस वजह से आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण सरकार का कामकाज थम जाता है। यदि सभी राजनीतिक दल सामूहिक रूप से इस पर विचार करें तो हम इसमें बदलाव कर सकते हैं।
संसद की स्थाई समिति ने चुनाव एक साथ कराने की संभावना पर विचार करके दिसंबर, 2015 में अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपी थी। रिपोर्ट में कहा था कि ये चुनाव दो चरणों में कराये जा सकते हैं। इसके अनुसार कुछ विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के कार्यकाल के मध्यावधि में पहुंचने पर और शेष विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने पर उसके साथ कराये जा सकते हैं। समिति ने यह महसूस किया कि दोनों चुनाव एक साथ कराने से न सिर्फ चुनाव कराने पर आने वाले खर्च में काफी कमी आ जायेगी बल्कि चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू होने के कारण नीतिगत निर्णय लेने पर प्रतिबंध की अवधि भी कम होगी। संसदीय समिति ने रिपोर्ट में कहा कि प्रथम चरण में इस प्रक्रिया को नवंबर, 2016 में शुरू किया जा सकता है और दूसरे चरण में जिन विधानसभाओं का कार्यकाल छह महीने से एक साल के भीतर पूरा हो रहा हो, उनके चुनाव भी 2019 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के साथ कराये जा सकते हैं।
वैसे भी जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 14 और 15 के तहत निर्वाचित सदन का कार्यकाल पूरा होने से छह महीने पहले उसके चुनाव कराये जा सकते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने की दिशा में गंभीरता से प्रयास किये जा सकते हैं क्योंकि अभी भी इसमें दो साल से अधिक का समय बाकी है। यही नहीं, निर्वाचन आयोग भी चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में है। हालांकि इसके लिये सरकार को संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172 और 174 में संशोधन करना पड़ेगा। अनुच्छेद 83 और 85 संसद के सदनों की अवधि और इसके विघटन से संबंधित है जबकि अनुच्छेद 172 और 174 राज्य विधानमंडल की अवधि और इनके विघटन के बारे में है। कुछ राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को कम और कुछ अन्य का विस्तार करना पड़ेगा। इसके अलावा, चुनाव एक साथ कराने के लिये सबसे पहले सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति कायम करने की आवश्यकता होगी।
आयोग महसूस करता है कि एक साथ चुनाव कराने के लिये मौजूदा समय में उसे बहुत अधिक तैयारियां करनी पड़ेंगी। इसके लिये बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें और मतदान की पुष्टि संबंधी पेपर आडिट टेल (वीवीपीएटी) मशीनें खरीदनी होंगी। एक अनुमान के अनुसार इसके लिये 9,200 करोड़ रुपए से अधिक की राशि की आवश्यकता होगी। इसके अलावा इन मशीनों को हर 15 साल पर बदलना पड़ेगा।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि 1971 से पहले देश में 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे। परंतु 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले ही भंग हो जाने के कारण यह सिलसिला टूट गया। इसके बाद 1970 में लोकसभा कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग कर दी गयी। इसके लिये 1971 में चुनाव हुए। इसके बाद केन्द्र और राज्यों में सरकार की अस्थिरता के कारण लोकसभा या राज्य विधानसभाओं को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग करके चुनाव कराने का सिलसिला ही चल पड़ा।
जानकार बताते हैं कि 1952 में पहली लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव कराने पर करीब 10 करोड रुपए खर्च हुए थे जबकि 1957 और 1962 में तो यह खर्च इससे भी कम होकर करीब 6 करोड़ और साढ़े सात करोड़ रुपए रह गया। लेकिन 2014 में सिर्फ लोकसभा के लिये चुनाव कराने पर ही करीब 3500 करोड़ रुपए खर्च हुए।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल एक सर्वदलीय बैठक में चुनाव एक साथ कराने की जोरदार वकालत की। केन्द्र सरकार यदि राजनीतिक दलों में आम सहमति कायम कर चुनाव एक साथ कराने में सफल होती है तो निश्चित ही यह चुनाव सुधारों के मामले में एक मील का पत्थर होगा।