बिहार चुनाव का एलान और जनादेश की जंग

bihar-election
पुष्पेंद्र कुमार।
बिहार विधानसभा चुनावों की विधिवत घोषणा से पहले प्रधानमंत्री मोदी की तीन बड़ी चुनावी रैलियां और गैर-भाजपा महागठबंधन की एक रैली आयोजित हुई। इन रैलियों में भाजपा ने चुनावी चर्चा को रणनीतिक रूप से विकास पर केंद्रित रखने की कोशिश करते हुए लालू और नीतीश के गठबंधन को अवसरवादी कहा है, जबकि महागठबंधन प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व, बयान और केंद्र में एनडीए सरकार की कथित नाकामियों पर बिहार विधानसभा के लिए जनादेश चाहते हैं। चुनावी नजरिए से देखें तो नीतीश कुमार विकास की राजनीति को लेकर मजबूर दिखते हैं, क्योंकि उनके विकास की उपलब्धियों की पटकथा में भाजपा की भागीदारी को खारिज करना मुश्किल है। वहीं लालू प्रसाद यादव व कांगे्रस के साथ गठबंधन को स्वीकारने की जदयू की जरूरत एक गंभीर सियासी उलझन को जन्म देती है। महादलित की सामाजिक संकल्पना के जनक रहे नीतीश कुमार, भाजपा से अलग होने के बाद बिहार के जातीय गठजोड़ में कमजोर हुए हैं। रही-सही कसर मांझी प्रकरण ने पूरी कर दी है। नीतीश कुमार के पास अकेले दम पर जीत हासिल करने लायक सामाजिक गठजोड़ नहीं होने के कारण उनके लिए लालू जरूरी हैं। लेकिन समस्या यह है कि नीतीश कुमार यदि जातीय सियासत करना चाहेंगें तो लालू प्रसाद यादव अपनी शख्सियत और दावेदारी से उनपर भारी ही नहीं पड़ेंगें बल्कि बिहार में अपेक्षित विकास की मांग करने वाले उभर रहे एस्पिरेशनल मिडिल क्लास में नीतीश कुमार अपनी अपील गंवा देंगें।
बिहार का चुनाव विरोधाभासी विडंबनाओं पर जनादेशी मुहर का लोकतांत्रिक उत्सव भले ही दीखता हो, लेकिन इसके परिणाम से गैर-भाजपावाद के राष्ट्रीय राजनीति के आयाम तय होंगें। समाजवादी पार्टी का ऐन चुनाव की घोषणा से पूर्व बिहार में महागठबंधन से अलग होकर सभी सीटों पर चुनाव में उतरने के ऐलान में हैरानी हुई है, लेकिन सपा ऐसे अप्रत्याशित फैसले करती रही है। लेकिन गठबंधन को छोड़े जाने के लिए कहे गए सुविधाजनक तर्क से अधिक अनकहे तथ्यों का रहस्य और महत्व कहीं ज्यादा है। यह खालिस संयोग नहीं है, लिहाजा समाजवादी पार्टी और भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच मुलाकातें और उसके बाद सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को तय समय से पहले बुलाकर बिहार में गठबंधन से अलग होने के फैसले का कोई मंतव्य तो है। सपा ने इस निर्णय के पीछे बिहार में सीटों के बंटवारे में सपा की उपेक्षा से आहत हुए पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी को कारण बताया, लेकिन 2010 में बिहार में लड़े गए सभी सीटों पर जमानत गंवा चुकी पार्टी यदि अलग होकर चुनाव लड़ती भी है तो भी उसके प्रदर्शन में कोई सम्मानजक सुधार आने की संभावना नहीं है। हां, इस अलगाव का संदेश कहीं व्यापक है। हालांकि सपा प्रमुख के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में सीबीआई के मुकदमे से कथित राहत पर एनडीए सरकार से सहमति को सपा के महागठबंधन से अलग होने के पीछे का कारण बताना एक आसान विश्लेषण से इतर कुछ नहीं है।
छह दलों के प्रस्तावित जनता परिवार के विलय की कवायद के घोषित अभिभावक रहे मुलायम सिंह यादव की सपा का महागठबंधन से अलग होने से जनता परिवार की एकता और गैर-भाजपावादी विकल्प की दावेदारी व संभावना ही नहीं बिखर गई है, बल्कि कथित सेकुलर वोटों की एकजुटता की विचारधारात्मक पेशबंदी भी टूट गई। जनता परिवार की एकजुटता के पक्ष में तर्क यह रहा है कि एक राज्य में सीमित इन दलों का दूसरे राज्यों में कोई विशेष प्रभाव नहीं है, लेकिन हकीकत इससे इतर है। बिहार में महागठबंधन के तहत छह सीटों पर सपा के चुनाव लडऩे का सीधा अर्थ यह है, चुनाव परिणाम चाहे जो भी हो, कि 2017 में होने वाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में सपा को बिहार फार्मूेले पर राजद और जदयू को सीटें देनी पड़ सकती हैं। सियासी दबाव में दिख रही सपा यदि उत्तरप्रदेश में दोबारा अपनी सरकार बनाना चाहती है तो प्रदेश की एक-एक सीट निर्णायक होगी, जाहिर है सपा बिहार में सियासी भविष्य के लिए उत्तरप्रदेश में अपनी संभावनाओं पर समझौता नहीं कर सकती है। बिहार में महागठबंधन से अलग होने के पार्टी के फैसले का सबसे बड़ा निहितार्थ यह है कि सपा ने कांगे्रस नेतृत्व वाले गैर-भाजपा राष्ट्रीय विकल्प को फिलहाल खारिज किया है। सपा के इस कदम से जनता परिवार का भविष्य, सेकुलर वोटों की एकजुटता और गैर-भाजपावाद की उलझन, बिहार में, अब चर्चा का विषय बन चुकी है, जिससे सपा को फायदा भले न हो लेकिन सबसे अधिक नुकसान लालू व नीतीश को है, इसमें कोई दो राय नहीं।
संभवत: मुलायम देख पा रहे हों कि बिहार में महागठबंधन प्रयोग मूलत: नीतीश और लालू द्वारा एक-दूसरे से अधिक सफलता हासिल करने की जोखिम भरी प्रतिस्पर्धा में बदल सकती है जो सीटों की संख्या के तहत सीटों के बंटवारे पर खींचतान में फंस सकती है। हालांकि ऐसी ही समस्या भाजपानीत गठबंधन को भी होगी जिसमें मांझी, पासवान, कुशवाहा जैसे नेताओं की अपनी पसंद और मांगें होंगी। लेकिन इस गठबंधन की सहुलियत यह है यहां भाजपा निर्विवादित बिग ब्रदर के रोल में हैं जबकि महागठबंधन में लालू और नीतीश बराबर के दावेदार हैं, और संभवतरू भावी सियासत को अपने पक्ष में रखने की जद्दोजहद में हैं। लेकिन सियासी नजरिए से देखें तो कुछ रोचक प्रवृतियां हमारे सामने हैं। नीतीश कुमार भले मुख्यमंत्री पद के दावेदार हों और महागठबंधन के पोस्टरों पर नीतीश ही दिख रहे हों, लेकिन पटना रैली मूलतरू लालू समर्थकों की रैली थी। जाहिर है सपा के समान, राजद में भी सम्मान और स्वाभिमान का संकट आने वाले दिनों में उभर सकता है। पूर्वी बिहार में, जहां भाजपा की पकड़ कमजोर है, भागलपुर में प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी रैली और उसमें बड़ी संख्या में युवाओं की मौजूदगी ने चुनाव को रोचक बनाया है। प्रधानमंत्री मोदी ने आखिरी रैली में भाजपा सरकार की बिहार में एनडीए सरकार को दुहराते दिखे, जबकि जनता महागठबंधन के दल मोदी पर केंद्रित हैं। हां, महागठबंधन के मंचों से गुजरात के 2002 दंगे का उल्लेख लगातार कम होता जाना इस बात का संकेत है कि वे प्रतिधु्रवीकरण के खतरों में बीते डेढ़ दशक की विफलता के जोखिम को संभवतरू ध्यान में रख रहे हैं। बीते दिनों एक लेख में बिहार विधानसभा चुनाव को 1764 के बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई के समकक्ष बताया गया था। इस जंग में ईस्ट इंडिया कंपनी के मेजर हेक्टर मुनरो की सेना ने मुगल सल्तनत के कमजोर शासक शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब सिजाउद्दौला और बंगाल के नबाव मीर कासिम की एकीकृत ताकत में फूट के कारण जीत हासिल कर ली थी और इसने अगले 183 सालों के लिए भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रख दी। इतिहास का दुहराया जाना जरूरी तो नहीं लेकिन बिहार में अप्रत्याशित होना असंभव भी नहीं है।

लेखक-राजनीतिक विश्लेषक