जानिए कहां दी जाती है दशहरे पर कबूतर, मछली और बकरे की बलि

dussehra baliसुधीर जैन, जगदलपुर। बस्तर दशहरा के रस्मों में अश्विन अष्टमी व नवमी को रथ परिक्रमा नहीं होती, बल्कि देवियों को प्रसन्न करने निशा जात्रा पर बकरों के अवाला कुम्हड़ा और मछली की बलि दी जाती है। दशहरा के दौरान सप्तमी तक रथ परिक्रमा के बाद अष्टमी व नवमी को रथ परिचालन विधान नहीं होता। अश्विन अष्टमी की आधी रात अनुपमा चौक के समीप निशा जात्रा मंदिर में 11 बकरों की बलि दी जाती है। मावली माता मंदिर में दो, राजमहल के सिहंड्योढ़ी में दो, काली मंदिर में एक बकरे की बलि दी जाती है, जबकि दंतेश्वरी मंदिर में एक काले कबूतर व 7 मोंगरी मछलियों की बलि दी जाएगी।
मावली मंदिर में 12 गांवों के यदुवंशी देवी-देवताओं और उनके गणों के लिए पवित्रता से भोग तैयार करते हैं, जिसमें चावल, खीर और उड़द की दाल तथा उड़द से बने बड़े बनाकर मिट्टी की खाली 24 हंडियों के मुंह में कपड़े बांधकर रखा जाता है। भोग सामग्री वाली हंडियों को निशागुड़ी तक ले जाने के लिए राऊत जाति के लोगों की कांवड़ यात्रा जनसमूह के साथ जुलूस के रूप में होती है। निशागुड़ी में राजपरिवार, राजगुरु और देवी दंतेश्वरी के पुजारी के साथ पूजा-अर्चना करते हैं। पूजा के बाद भोग सामग्री की खाली हंडियों को फोड़ दिया जाता है ताकि इनका दुरुपयोग न हो। इसके बाद 12 बकरों की बलि दी जाती है ताकि देवी-देवता संतुष्ट रहें और बस्तर में खुशहाली हो। बलि से पहले राजगुरु बकरों के कान में मंत्र फूंककर देवी-देवताओं को समर्पित करने और हत्या का दोष किसी पर न लगे, इसकी घोषणा करते हैं।
चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव व्दारा 1408 ई. में शुरू किए गए बस्तर दशहरे की रस्मों में बदलाव आया है। जैसे पशु बलि कम हो गई है। राजा का स्थान किसी-किसी प्रथा में पुजारी ने ले लिया तो कहीं बिना राजा के ही काम चलाया जाने लगा और किसी में राजवंश के सदस्य द्वारा आवश्यक रस्म अदायगी होने लगी। राजा के न होने से अन्य पदवीदार भी महत्वहीन हो गए हैं। राजतिलक करने वाले पुरोहित अब निशा जात्रा की भोग सामग्री अपनी देख-रेख में तैयार करवाते हैं। इन सभी विसंगतियों से अनजान देशी और विदेशी पर्यटक सारी रात जागकर इस पूरे नजारे को आश्चर्य की नजर से देखते हैं। पुरानी और बदल रही रस्मों से अनजान विदेशी पर्यटकों के लिए यह सब आज भी एक अजूबे की तरह ही है।