मंहगाई की मार: दालों के उत्पादन को बढ़ावा दे सरकार

daalडॉ. अश्विनी महाजन।
अभी महंगे प्याज से त्रस्त जनता को आंशिक राहत मिलने लगी थी कि पिछले लगभग दो माह से दालों, विशेषतौर पर तूर (अरहर) और उड़द की दालों के भाव आसमान को छू रहे हैं। बाजार में तूर और उड़द की दाल 210 रुपए किलो बिक रही है। दालों के भाव पिछले कुछ सालों से ऊंचे बने हुए हैं और वे आम जन की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। पिछले साल की तुलना में दालों की कीमतें 40 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं, लेकिन कुछ दालों में महंगाई कहीं ज्यादा है। वित्तमंत्री भी मानते हैं कि चाहे दूसरी चीजों में महंगाई कुछ थमी हो, लेकिन प्याज और दालों में महंगाई तेजी से बढ़ी है।
सरकार ने दालों के आयात का तो हुक्म जारी किया ही है, 500 करोड़ रुपये का एक फंड भी बनाया है, जिससे आयातित दालों के ट्रांसपोर्ट और प्रसंस्करण की लागत को कम किया जा सके। यही नहीं, आनन-फानन में सरकार ने व्यापारियों के लिए दालों की अधिकतम स्टॉक की सीमा भी लागू कर दी है और अधिक स्टॉक रखने पर जब्ती के आदेश जारी कर दालों के दामों को बांधने का प्रयास भी किया है।
आश्चर्य का विषय यह है कि कृषि प्रधान देश होते हुए भी, दुनिया में दालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता राष्ट्र उनके उत्पादन के लिए दूसरे देशों से आयात कर रहा है। भारतीय थाली में दालों का एक विशेष महत्व है। आम जनता जो अधिकांशत: शाकाहारी भोजन पर निर्भर करती है, को ये दालें आवश्यक प्रोटीन उपलब्ध कराती हैं। पारंपरिक रूप से लोग दालों का सेवन कर अपने लिए संतुलित आहार उपलब्ध करवा पाते हैं। लेकिन दालों के महंगे होने से घर का बजट ही नहीं बिगड़ता बल्कि गरीब की थाली से पोषण भी गायब हो जाता है।
गौरतलब है कि एक ओर जहां लोगों की आमदनी बढ़ी, और दालों को खरीदने की क्षमता भी, लेकिन दालों का उत्पादन बढऩे की गति अत्यधिक अपर्याप्त रही। 1960-61 में जहां दालों का उत्पादन 130 लाख टन था, जो 2013-14 तक आते-आते मात्र 190 लाख टन तक ही बढ़ पाया, यानी 50 प्रतिशत से कम वृद्धि। इसका कारण था दालों के अंतर्गत कृषि क्षेत्र का स्थिर रहना और प्रति हैक्टेयर उत्पादन में बहुत कम वृद्धि होना। गौरतलब है कि जहां 1964-65 में दालों का प्रति हैक्टेयर उत्पादन 520 किलो था, वह 2013-14 तक 760 किलो तक ही बढ़ पाया, जबकि इस दौरान गेहूं का प्रति हैक्टेयर उत्पादन 910 किलो से बढ़कर 3080 किलो हो गया। फलस्वरूप अनाजों (गेहूं, चावल एवं मोटे अनाज) का उत्पादन 690 लाख टन से बढ़कर 2460 लाख टन हो गया, यानी 3.6 गुणा वृद्धि।
दालों के उत्पादन में वृद्धि कम होने के कारण दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1960-61 में 69 ग्राम से कम होकर 2013-14 में मात्र 42 ग्राम ही रह गई है। हालांकि अनाजों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी 400 ग्राम से बढ़कर लगभग 440 ग्राम तक ही पहुंच पाई है, लेकिन दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भारी कमी वास्तव में चिंता का विषय है। इस बीच कुल अनाज उत्पादन में चावल और गेहूं का हिस्सा भी 66 प्रतिशत से बढ़कर अब 83 प्रतिशत हो गया है, जबकि मोटे अनाजों का हिस्सा 37 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत ही रह गया है। यानी कुल अनाजों के उत्पादन के बढऩे में मुख्य कारण गेहूं और चावल के उत्पादन का ज्यादा बढऩा था।
पिछले कुछ समय से किसी वस्तु की कमी और इस कारण से महंगाई होने पर सरकार के पास एक आसान तरीका है कि उसका आयात बढ़ा दिया जाए और जैसे-तैसे कीमत पर काबू किया जाए। देश में दालों और खाद्य तेलों के उत्पादन कम होने और उनकी महंगाई से निजात पाने के लिए भी यही तरीके अपनाए गए। उसका असर यह हुआ कि आज हमारा देश आयातित दालों और तेलों पर निर्भर होने लगा है। यह सही है कि चावल, चाय, काफी, तम्बाकू, मसाले आदि कृषि वस्तुओं का निर्यात भी भारत से होता है, लेकिन साथ ही साथ दालों और खाद्य तेलों के लिए विदेशों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है।
गौरतलब है कि जहां 2005-06 में हम मात्र 56 करोड़ डालर की दालें आयात करते थे, 2014-15 में देश ने 2.8 अरब डालर की दालें आयात कीं। खाद्य तेलों की स्थिति और भी खराब रही, और 2014-15 में हमने 10.6 अरब डालर के खाद्य तेल आयात किए। देश हर वर्ष औसतन 35 लाख टन दालों का आयात कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आज मूंग और तूर दाल की कीमत औसतन 80 रुपये किलो है और उस पर परिवहन लागत और ढुलाई की लागत जोड़ी जाए तो आयातित दाल की देश में कीमत काफी ज्यादा होगी।
देश में विदेशी मुद्रा की भारी कमी के चलते इतनी बड़ी मात्रा में खाद्य तेलों और दालों का आयात सही नहीं ठहराया जा सकता, जरूरी है कि इस आयात को घटाने का काम किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि इन चीजों का देश में उत्पादन बढ़े। सरकार का भी मानना है कि देश में तो 35 लाख टन दालों का अभाव है, जिसके लिए सरकार को उत्पादन बढ़ाने की रणनीति बनानी होगी। उधर आमदनी और जनसंख्या बढऩे के कारण देश में दालों की मांग औसतन 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, जबकि उत्पादन एकदम स्थिर है। साफतौर पर कहा जा सकता है कि आम आदमी को प्रोटीनयुक्त पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने में दालों की उचित कीमत पर उपलब्धता बहुत जरूरी है। इतिहास गवाह है कि हमारा देश गेहूं और चावल में जो आत्मनिर्भर हुआ है, उसके पीछे सरकार द्वारा लाभकारी समर्थन मूल्य दिलाने में बड़ी भूमिका है। ऐसे में देश का किसान और दालें भी पैदा कर सकता है, बशर्ते कि उसे उसके बदले में सही कीमत मिले।
आज देश में दालों की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता की तुलना में गेहूं की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता 4 गुणा से भी ज्यादा है। ऐसे में सरकार किसानों से लाभकारी मूल्य पर दालें खरीद सकती है और उन्हें बाजार की अनिश्चितता से बचा सकती है। आज तूर की दाल अंतरराष्ट्रीय बाजार में 80 रुपये किलो है और सरकार को उसे मजबूरी में खरीदना पड़ रहा है, ऐसे में दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन की नीति के दूरगामी शुभ परिणाम निकल सकते हैं। इससे किसानों की हालत भी सुधरेगी और गरीब की थाली में दाल भी वापस आएगी।
दुर्भाग्य की बात है कि देश में केवल गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ाने हेतु प्राथमिकता दी गई और संतुलित भोजन और पौष्टिक आहार देने वाली दालें उपेक्षित रहीं। दाल उत्पादक क्षेत्रों को चिन्हित कर उन्हें अच्छे बीज और सिंचाई की सुविधा देना भी एक अच्छा कदम होगा। सरकारी उदासीनता के कारण दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन न मिलने के कारण, दालों की कमी के फलस्वरूप कई बीज कंपनियां दालों के जीएम बीज आगे बढ़ाने का भी प्रयास कर रही हैं। हमें ऐसे प्रयासों से सावधान रहना होगा और देश में जैविक दालों का उत्पादन बढ़ा कर हम उसके निर्यात में भी आगे बढ़ सकते हैं।